सांदीपनी ऋषि अत्यंत तेजस्वी ऋषि थे । श्रीकृष्णजी ने छोटी आयु में दुराचारी कंस का वध किया था और मथुरा का राज्य कंस के पिता राजा उग्रसेन को सौंपा था । छोटी आयु में ही श्रीकृष्णजी और बलराम को शिक्षा प्राप्त करने के लिए उज्जयिनी नगरी में सांदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजा गया ।
बलराम और श्रीकृष्ण गुरु सांदीपनी के आश्रम में रहने लगे । उसी आश्रम में सुदामा भी गुरु सांदीपनी से शिक्षा प्राप्त करते थे । उस समय श्रीकृष्ण और सुदामा में मित्रता हो गई । सांदीपनी ऋषि ने उन्हे वेद-पुराणों और १४ विद्याओं के साथ ६४ कलाओं का भी ज्ञान दिया । शिक्षा पूरी होने के बाद श्रीकृष्ण और बलराम अपने गुरु सांदीपनी ऋषि के पास गए । उन्होंने गुरुदेव को विनम्रता से वंदन किया और कहा, ‘‘हे गुरुवर, आपने हमें अमूल्य ज्ञान दिया है । हम आपके चरणों में गुरुदक्षिणा अर्पण करना चाहते हैं । हम आपको क्या दे सकते हैं, वह हमें बताएं ।’’ गुरु सांदीपनी ऋषि को यह ज्ञात था कि श्रीकृष्ण भगवान श्रीविष्णु के अवतार है । उन्हें शिक्षा देने का भाग्य मुझे मिला है, मै उनसे दक्षिणा कैसे लूं ? इसलिए उन्होंने दक्षिणा लेने से नम्रतापूर्वक नकार दे दिया । उसके बाद श्रीकृष्ण और बलराम गुरुमाता अर्थात ऋषि सांदीपनी की पत्नी के पास गए और उन्हें दक्षिणा लेने के लिए प्रार्थना की । गुरुमाता ने उनकी प्रार्थना प्रेमपूर्वक स्वीकार की और कहां, ‘‘पुत्रों, तुम्हारे समान ही मेरा एक पुत्र था । प्रभास क्षेत्र के पास खेलते हुए जल में डूबकर उसकी मृत्यु हो गई थी । दक्षिणा के रूप में मुझे मेरा पुत्र लौटा दो ।’’ गुरुदक्षिणा देने का अवसर मिलने पर श्रीकृष्ण और बलराम को आनंद हुआ । दोनों भाई गुरु पुत्र को खोजने के लिए निकल पडे ।
दोनों भाई प्रभास क्षेत्र पहुंचे । वहां उन्हें पता चला कि शंखासुर नाम का राक्षस ऋषि पुत्र को ले गया है । वह राक्षस समुद्र में एक पवित्र शंख में रहता है, जिसे ‘पांचजन्य’ कहते है । ऋषि पुत्र को ढूंढने के लिए दोनों भाई समुद्र में प्रवेश कर पांचजन्य शंख के पास पहुंचे । वहां उनका राक्षस के साथ युद्ध हुआ और श्रीकृष्णजी ने शंखासुर का पेट चिर दिया । उसके पेट में गुरुपुत्र नहीं था । श्रीकृष्ण और बलराम जी ने ‘पांचजन्य’ शंख में चारों ओर ऋषि पुत्र को खोजा; परंतु वहां पर भी ऋषि पुत्र नहीं था । उन्होंने वहां से पांचजन्य शंख अपने साथ लिया और वे यमलोक पहुंचे । यमलोक के प्रवेशद्वार पर पहुंचकर उन्होंने पांचजन्य शंख बजाया । उस शंख की दिव्य आवाज सुनकर स्वयं यमराज वहां प्रकट हो गए। उन्होंने द्वारपर आए श्रीकृष्ण और बलराम जी को वंदन किया और कहा, ‘‘हे सर्वव्यापी भगवन्, मैं आप दोनों की क्या सेवा कर सकता हूं ?’’
श्रीकृष्णजी ने कहा, ‘‘हे महान शासक, मेरे गुरु का पुत्र जो अपने कर्मों के कारण यहां लाया गया था, उसे मुझे सौंप दिजिए ।’’ भगवान की आज्ञा से यमराज जी ने ऋषि सांदिपनी के पुत्र को लौटा दिया । यमराज जी का आभार व्यक्त कर श्रीकृष्ण और बलराम अपने गुरुपुत्र के साथ गुरुकुल पहुंचे । अपने पुत्र को देखकर गुरुमाता और ऋषि सांदीपनी को अत्यंत आनंद हुआ । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने अपनी गुरुदक्षिणा दी थी ।
मध्यप्रदेश के उज्जैन में ऋषि सांदीपनी का आश्रम है । उस आश्रम में जहां ऋषि सांदिपनी ध्यान के लिए बैठते थे वह स्थान और भगवान श्रीकृष्णजी का मंदिर है ।
आश्रम में गोमति कुंड भी है । अपने गुरु को पवित्र स्थलों की यात्रा न करनी पडे, इसलिए भगवान श्रीकृष्णजी ने इस कुंड में गोमति नदी का आवाहन किया था ।
श्रीकृष्णजी के हाथ में जो दिव्य शंख है, वही पांचजन्य शंख है । श्रीकृष्णजी ने यही पांचजन्य शंख बजाकर महाभारत के युद्ध को आरम्भ किया था ।