भगवान श्रीकृष्ण की एक रानी का नाम सत्यभामा था । वह अत्यंत सुंदर थी तथा भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय भी थीं । आप जानते ही हैं कि भगवान श्रीकृष्ण विष्णु भगवान का अवतार हैं । भगवान श्रीकष्ण का वाहन गरुड पक्षी है । भगवान श्रीकृष्ण का शस्त्र सुदर्शन चक्र है । एक बार क्या हुआ कि, द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे । उनके निकट ही गरुड और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे । तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था । बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा, ‘हे प्रभु ! आपने त्रेतायुग में प्रभी श्रीराम के रूप में अवतार लिया था, देवी सीता आपकी पत्नी थीं । क्या वह मुझसे भी अधिक सुंदर थीं ?’
भगवान श्रीकृष्ण समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का अभिमान हो गया है । तभी गरुड ने भी भगवान से प्रश्न किया, ‘हे भगवन, क्या इस संसार में मुझसे भी अधिक तेज गति से कोई उड सकता है ?’ उन दोनों के प्रश्न सुनकर सुदर्शन चक्र भी अपनेआप को रोक नहीं पाए और सुदर्शन चक्र ने भी भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछ ही लिया कि, ‘भगवान ! मैंने बडे-बडे युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है, क्या इस संसार में मुझसे अधिक शक्तिशाली अन्य कोई शस्त्र है ?’
भगवान मन ही मन मुस्कुरा रहे थे । वह समझ गए थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट करने का अब सही समय आ गया है । ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड से कहा, ‘हे मेरे दिव्य वाहन गरुड ! तुम हनुमानजी के पास जाओ और कहो कि भगवान श्रीराम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।’ गरुड भगवान की आज्ञा लेकर हनुमानजी को लाने चल दिए।
इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा, ‘देवी ! आप सीता का रूप धारण करके तैयार हो जाएं ।’ स्वयं भगवान श्रीकृष्णजी ने भी प्रभु श्रीराम का रूप धारण कर लिया । उन्होंनेे सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि, ‘तुम महल के प्रवेशद्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना इस महल में कोई प्रवेश न कर पाए ।’
भगवान की आज्ञा पाकर सुदर्शन चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए । इधर गरुड ने हनुमानजी के पास जाकर कहा कि, ‘हे वानरश्रेष्ठ ! भगवान श्रीराम, माता सीता के साथ द्वारका में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । आप मेरे साथ चलें । मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर अतिशीघ्र ही वहां ले जाऊंगा ।’
हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड से कहा, ‘हे पक्षीश्रेष्ठ, आप चलिए, मैं आता हूं ।’ गरुड को तो अपनी तीव्र गति का अहंकार था । अहंकारवश गरुड ने सोचा, पता नहीं यह बूढा वानर कब तक पहुंचेगा ? यह सोचकर गरुड शीघ्रता से द्वारका की ओर उड चले । पर यह क्या ? गरुड जैसे ही महल में पहुंचे, तो वहां उन्होंन ऐसा क्या देखा कि जिससे वह चकित रह गए । गरुड ने देखा कि हनुमानजी तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं । हनुमानजी को स्वयं से पहले महल में पाकर गरुड का सिर लज्जा से झुक गया । वह समझ गए कि भगवान ने उनका गर्वहरण किया है ।
तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा, ‘हे पवनपुत्र ! तुमने बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश किया ? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं ?’
हनुमानजी ने हाथ जोडते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को बाहर निकाला और प्रभु के सामने रख दिया ।
हनुमानजी ने कहा, ‘हे प्रभु ! मुझे इस चक्र ने आपसे मिलने से रोका था, इसलिए मैं इसे मुंह में रख आपसे मिलने आ गया । मुझे क्षमा करें ।’ इस प्रकार सुदर्शन चक्र का भी गर्व हरण हो गया ।
भगवान मन ही मन मुस्कुराने लगे ।
हनुमानजी ने रानी सत्यभामा की ओर देखा और हाथ जोडकर प्रभु श्रीराम से प्रश्न किया, ‘हे प्रभु ! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है ?’
अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी । उन्हें अपनी सुंदरता का अहंकार था, जो हनुमानजी की बात सुनकर पलभर में ही चूर-चूर हो गया था । वह समझ गईं की सीतामाता उनसे भी अधिक सुंदर थीं । इस प्रकार रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड इन तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था । वे सभी भगवान की इस लीला को समझ गए । तीनों की आंखों से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में नतमस्तक हो गए और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की ।
प्रभु की लीला अद्भुत है ! अपने भक्तों के अंहकार को दूर करने के लिए उन्होंने अपने भक्त को ही माध्यम बनाया ।
इससे आपको क्या ध्यानमें आया ? जीवन में कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए । आवश्यक नहीं है कि आज जो आपके पास है, वह कल भी रहेगा । यदि स्वयं में थोडा भी अहंकार हो तो, भगवान हमसे दूर हो जाते हैं । भगवान को नि:स्वार्थ भक्त अच्छे लगते हैं, अहंकारी नहीं ।