आप गुरुनानकजी को जानते ही हैं । गुरुनानकजी सिक्ख पंथ के संस्थापक हैं । वे गांव-गांव जाकर लोगों से मिलते थे । उनके कष्टों को दूर करते थे ।
एक बार श्री गुरुनानकजी लोगों के कष्टों को दूर करते हुए एक गांव के बाहर पहुंचे और वहां उन्हें एक झोपडी दिखाई दी । गांव से इतनी दूर बाहर बनी उस झोपडी को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ । वह उस झोपडी में पहुंचे । उस झोपडी में एक आदमी रहता था, जिसे कुष्ठरोग था ।
कुष्ठ रोग त्वचा से संबंधित रोग है तथा संक्रामक भी है । उस रोग के कारण गांव का कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं जाता था । कभी किसी को दया आ जाती तो उसे खाने के लिए कुछ दे देते थे । गुरुनानकजी उस कोढी के पास गए और उससे कहा, ‘भाई, यदि तुझे कोई समस्या ना हो तो हम आज रात तेरी झोपडी में रहना चाहते हैं ।’
नानकजी की यह बात सुनकर कोढी हैरान हो गया । वह सोचने लगा, ‘ये क्या कह रहे हैं ? गांव के लोग जो मुझे जानते हैं, वे भी मेरे पास नहीं आते । परंतु ये तो मुझे जानते भी नहीं तो मेरे घर में रहने के लिए कैसे आ सकते हैं ?’ यह सब कोढी मन ही मन सोच रहा था । वह अपने रोग से इतना दुखी था कि चाह कर भी कुछ ना बोल सका । केवल नानकजी को देखता ही रह गया । नानकजी के झोपडी में प्रवेश करते ही उस कोढी के शरीर में धीरे धीरे परिवर्तन होने लगा । यह उस रोगी के ध्यान में आ रहा था; परंतु वह कुछ नहीं बोल पाया ।
गुरु नानकजी ने कोढी की ओर हंसकर देखा । गुरुनानक जी के साथ उनका एक शिष्य भी था । उसका नाम मरदाना था । गुरुदेव ने उससे रबाब बजाने को कहा और ऐसा कह कर वह उस झोपडी में बैठकर कीर्तन करने लगे । रबाब एक प्रकार का वाद्य होता है । कोढी बडे ध्यान से कीर्तन सुन रहा था । कीर्तन से पहले कोढी के हाथ ठीक से हिलते भी नहीं थे, परंतु कीर्तन समाप्त होने पर वे सहजता से जुड गए । उसने नानकजी के चरणों में अपना माथा टेका ।
गुरुजी ने उसे अपने दोनो हाथों से पकडकर उठाया और पूछा, ‘और भाई ठीक हो ? यहां गांव के बाहर झोपडी क्यों बनाई है ?’ कोढी की आंखे भर आई । उसने कहा, ‘मैं बहुत दुर्भाग्यशाली हूं । मुझे कुष्ठ रोग हो गया है । मुझसे कोई बात नहीं करता । मेरे घरवालो ने भी मुझे घर से निकाल दिया है । मैं नीच हूं, इसलिए कोई भी मेरे पास नहीं आता ।’ उसकी बात सुन कर गुरुजी ने कहा, ‘तुम अपने आप को क्यों कोस रहे हो ? नीच तो वे लोग हैं जिन्होंने तुम जैसे रोगी पर दया नहीं की और तुम्हे अकेला छोड दिया ।’
गुरुजी ने अत्यंत प्रेम से उसे अपने निकट बुलाया और कहा दिखाओ तुम्हें कहांपर कोढ हुआ है ? गुरुजी की यह बात सुनकर कोढी गुरुजी के निकट आया । वह गुरुजी के निकट पहुंचा ही था तो पता है क्या हुआ ? उसपर प्रभु की और गुरुजी की ऐसी कृपा हुई कि देखते ही देखते उसका कोढ समाप्त हो गया । गुरुजी ने उससे कहा, ‘दिखा, कहां है तेरा कोढ ?’ कोढी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका कोढ अचानक समाप्त कैसे हो गया ? गुरु नानकजी ने केवल अपने संकल्प से कोढी का रोग ठीक कर दिया था ।
यह सब गुरुनानकजी की कृपा से हुआ है, यह जानकर वह गुरुजी के चरणों में गिर गया । गुरुजी ने उसे उठाया और गले से लगा लिया ।
उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा यह रोग केवल प्रभु की कृपा से नष्ट हुआ है । अब तुम्हारा एक ही काम है कि सदैव प्रभु का स्मरण करो । तुम रोगी थे तब सभीने तुम्हें दूर कर दिया था, परंतु तुम दूसरों के साथ ऐसा नहीं करना । जिस प्रकार भगवान ने तुम्हारी सहायता की है, उसी प्रकार तुम अन्य रोगियों की सहायता करना । यही तुम्हारे जीवन का मुख्य कार्य होगा ।’
गुरुनानकजी की बात सुनकर वह आनंदित हो गया और उसने नानकजी के चरण पकडकर उनकी कृतज्ञता व्यक्त की ।
हमारे संत कितने दयालु होते है, वे केवल उनके संकल्प से ही मानव का उद्धार कर सकते है यह आपके ध्यान में आया न ?