शिक्षकोंद्वारा उनके धर्म का पालन न होने के कारण विद्यालय से बाहर निकले सदगुणी विद्यार्थीद्वारा भी पश्चात भ्रष्टाचार किया जाना !
वास्तव में शिक्षकों का धर्म विद्यार्थियों में सद्गुणों की वृद्धि कर उन्हें संजोना है ! क्योंकि विद्यालय से निकले हुए सद्गुणी विद्यार्थी का ही समाज को लाभ होता है । समाज और राष्ट्र को खरे अर्थ से (वास्तविक रूप से) सक्षम और गुणों से युक्त परिपूर्ण नागरिक देना ही शिक्षकों का धर्म है । चिंतन करनेपर यह ध्यान में आता है कि हमारेद्वारा सद्गुणी नागरिक नहीं बनाए जाते ! इसका अर्थ यह है कि, हम धर्म का पालन नहीं करते । शिक्षक कहते हैं कि, विद्यार्थियों को अच्छे अंक मिलने से हमारा कर्तव्य पूर्ण हो जाता है; परंतु इससे उनकी कर्तव्यपूर्ति नहीं होती । गुणों से विद्यार्थियो को नौकरी और पैसा तो मिल जाता है; परंतु वे प्रेम से, प्रामाणिकता से और नीतिमत्ता से समाज की सेवा करेंगे, इसकी निश्चिति नहीं है । इसलिए आज हमें प्रत्येक कार्यालय में भ्रष्ट अधिकारी देखने को मिलते हैं । वे निर्लज्ज बनकर भ्रष्टाचार करते हैं । उन्हें यह भान ही नहीं होता कि वे किसी को क्या कष्ट दे रहे हैं ।
शिक्षकोंद्वारा समाज को ‘सेवक’ देनेपर ही उनके धर्म का पालन होना !
यदि इस परिस्थिति से बाहर निकलना है, तो नटखट और दुर्गुणी बालक भी ईश्वर के नामजप से परिवर्तित हो सकता है, यह दृढ श्रद्धा शिक्षक अपने में विकसित करें तथा संस्कारवर्ग के माध्यम से खरे अर्थ से राष्ट्रकार्य करें । यही शिक्षकों का वास्तविक धर्म और कर्तव्य है ! आज हमें समाज को ‘खरे सेवक’ देने चाहिए । फिर वे भले ही वैद्य, अभियंता (इंजीनियर) अथवा सरकारी अधिकारी हो । समाज को सभी स्तरोंपर ‘सेवक’ देने से ही हम यह कह सकते हैं कि हमने वास्तव में अपने धर्म का पालन किया है ।
सभी प्राणियों में एक ही ईश्वर वास करते है, यह भावना दृढ करना ही शिक्षका खरा धर्म है । यदि हमने अपने धर्म का पालन नहीं किया, तो व्यक्ति का, समाज का और राष्ट्र का (अर्थात वास्तव में हमारा अपना ही) विनाश ही हम अपने कर्म से आमंत्रित करेंगे ।
– श्री. राजेंद्र पावसकर (गुरुजी), पनवेल.