आप कौरवों तथा पांडवों की कथा तो जानते ही हैं । पांडवों के बडे भाई युधिष्ठिर थे । वह इन्द्रप्रस्थ के राजा थे । युधिष्ठिर ने वहां एक ऐसा महल बनवाया था जो कि बहुत ही सुंदर और अद्भुत था । उस महल की विषेशता यह थी कि उसमें जल और स्थल में अंतर ही नहीं दिखाई देता था । जल के स्थान पर स्थल और स्थल के स्थान पर जल के जैसा भ्रम उत्पन्न होता था । उस महल में किसी द्वार की ओर देखने पर ऐसा लगता था कि बाहर तो बहुत मनोरम दृश्य है, परन्तु वहां जाकर पता चलता कि वह तो एक दीवार है तथा जहां द्वार दीवार जैसी दिखाई देती थी, वहां बाहर जाने का द्वार होता था । बहुत सावधानी रखने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत महल में धोखा खा चुके थे । राजा युधिष्ठिर ने एक बार राजसूय यज्ञ किया । उन्होंने इस यज्ञ में सभी राजाओं तथा अपने परिजनों को आमंत्रित किया था । सभी राजा उस अद्भुत महल को देखकर प्रशंसा कर रहे थे तथा चकित भी हो रहे थे ।
दुर्योधन भी उस यज्ञ मंडप में आया हुआ था । और महल को देखने की इच्छासे वह महल में घूमने लगा । जब वह महल की सौर्न्दयता को निहार रहा था । तब वह एक जल के स्थानको को स्थल समझ कर उसपर चलने लगा, परंतु वह स्थल नहीं जल था और भ्रम के कारण वह उस जल में जा गिरा । यह देखकर द्रौपदी ने उसका उपहास किया और यह देखकर वह बोली कि, ‘अंधों की संतान अंधी’ । इससे दुर्योधन क्रोधित हो गया ।
यह बात उसके हृदय में बाण के समान लगी । उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली । उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे । उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीडा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची । उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया ।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भुगतना पडा । वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्टों का सामना कर रहे थे । एक दिन भगवान कृष्ण जब पांडवों से मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने इन कष्टों को दूर करने के बारे में उपाय पूछा । तब श्रीकृष्ण ने कहा – ‘हे युधिष्ठिर ! तुम विधिपूर्वक भगवान विष्णु का व्रत करो, इससे तुम्हारे सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा ।’ अनंत चतुर्दशी का व्रत भाद्रपद मास में किया जाता है । यह महाविष्णु की पूजा है ।
इस संदर्भ में भगवान श्रीकृष्णजी ने उन्हें एक कथा सुनाई ।
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था । उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था । उनकी सुशीला नाम की एक कन्या थी, जो कि बहुत ही सुंदर और धर्मपरायण थी । कुछ समय उपरांत सुशीला की माता दीक्षा की मृत्यु हो गई ।
पत्नी की मृत्यु के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया । सुशीला बडी हुई तब उसका विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य नामक ऋषि के साथ कर दिया । विदाई में कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकडे बांध कर दे दिए ।
कौंडिन्य ऋषि दुखी होकर अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए । परंतु रास्ते में ही रात हो गई । वे नदी तट पर संध्या करने लगे । वहीं वन में सुशीला ने बहुत-सी स्त्रियों को सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा करते हुए देखा ।
सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई । सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास लौट आई ।
कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी । उन्होंने डोरे को तोड कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान विष्णुजी का अपमान हुआ । जिसके फलस्वरूप ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे । उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई । जब उन्होंने अपनी पत्नी से इस दरिद्रता का कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहते हुए वह बोली कि यह सब भगवान अनंत के अपमान के कारण ही हो रहा है ।
पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए । वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक वह दिन भूमि पर गिर पडे । तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- ‘हे कौंडिन्य ! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पडा । तुम दुखी हुए । अब तुमने पश्चाताप किया है । मैं तुमसे प्रसन्न हूं । अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो । चौदह वर्षोंतक व्रत करनेसे तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा । तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे । कौंडिन्य ने पूरे विधि-विधानके साथ १४ वर्ष तक यह व्रत किया । इस व्रत के करने से उन्हें सारे कष्टों से मुक्ति मिल गई ।’
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी भगवान अनंत का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे ।
इससे हमने क्या सीखा ? हमने सीखा कि बिना किसी बात को जाने कोई कार्य नहीं करना चाहिए । यदि ऋषि कौंडिन्य अपनी पत्नी से व्रत की महिमा पूछते, तो धागा नहीं तोडते और उन्हें दुःख का सामना नहीं करना पडता । इसलिए बिना सोचे-समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए ।