लगभग ४०० वर्ष पूर्व तमिलनाडु में त्यागराज नामक एक रामभक्त रहते थे । वह उत्तम कवि भी थे । वह प्रभु राम के भजनों की रचना करते तथा उन्हीं भजनों को वह गाते भी थे । वह सदैव रामनाम में ही डूबे रहते थे ।
एक बार उन्हें किसी कार्य के लिए दूसरे नगर में जाना था । दूसरे नगर को जानेवाला मार्ग एक जंगल से होकर गुजरता था । वह जंगल बहुत घना था तथा उसमें जंगली जानवर और लुटेरे रहते थे । सभी को उस जंगल से गुजरने में भय लगता था; परंतु त्यागराज सदा रामनाम की धुन गाते थे, प्रभु श्रीराम पर उनकी पूर्ण श्रद्धा थी । भय की बात तो दूर रही यह शब्द भी उनको कभी छू नहीं पाया था ।
जब वह जंगल से गुजर रहे थे, तब दो लुटेरों ने उन्हें देख लिया तथा उन्हें लूटने के लिए उनके पीछे लग गए । त्यागराज को इसका कुछ भी भान नहीं था । वह अपनी ही धुन में भजन गुनगुनाते हुए जा रहे थे । दूसरे नगर में पहुंचने का मार्ग बहुत लंबा था ।
लगभग २ घंटे जंगल में चलने के बाद त्यागराज ने अपने मन में सोचा कि, नगर पहुंचने के लिए अभी लगभग ३ घंटे और लगेंगे, तो क्यों न अभी यहां भोजन कर लिया जाए और उसके बाद आगे की यात्रा की जाए । त्यागराज वहां रूक गए । उनके पीछे चल रहे लुटेरे भी वहां रुक गए । उन्होंने त्यागराज को कुछ नहीं किया ।
त्यागराज ने अपने साथ में लाये भोजन को ग्रहण करनेे से पहले प्रभु श्रीराम से प्रार्थना की और भोजन को भगवान श्रीराम का प्रसाद मानकर ग्रहण करने लगे । जंगल में त्यागराज के इतना समय अकेले रहनेपर भी लुटेरोंने त्यागराज को कुछ नहीं किया । वे केवल पेड के पीछे खडे रहकर त्यागराज को देखते रहे । भोजन करते समय भी त्यागराज तो रामनाम में ही मग्न थे, उन्हें यह भान भी नहीं था कि कुछ लुटेरे उनको लूटने के लिए उनके पीछे लगे हुए हैं ।
भोजन करने के बाद त्यागराजने प्रभु श्रीराम के चरणों में कृतज्ञता व्यक्त की और वे आगे की यात्रा पर निकल पडे ।
पांच घंटों के उपरांत त्यागराज दूसरे नगर के निकट पहुंचे । उस समय दोनों लुटेरे उनके पैरो में गिर पडे । त्यागराज चकित हो गए । उन्होंने पूछा, ‘‘आप कौन हो ? मैं आप को नहीं जानता । आप मेरे पैर क्यों छू रहे हो ?’’
लुटेरे बोले, ‘‘हम चोर हैं । आपको लूटने के लिए हम आपका जंगल से ही पीछा करते आ रहे हैं; परंतु आपके साथ अंगरक्षक थे, इस कारण हम आपको कुछ नहीं कर पाए । उन्होंने हमें पहचान लिया । वे हमें पकडनेवाले थे; परंतु हमने उनसे क्षमा मांगी और उनके चरण स्पर्श किए । तब वह अंगरक्षक बोले कि हमारे चरण स्पर्श करने की आवश्यकता नहीं है । त्यागराज को नमस्कार करें, तो ही हम आपको छोडेंगे; इसलिए हम आपके पैर छू रहे हैं । त्यागराज ने पूछा, ‘‘कौन से अंगरक्षक ? मेरे पास कौनसा धन है, जो मैं अंगरक्षक लेकर चलूं ? इतने समय से मैं केवल अपने प्रभु श्रीराम की धुनमें अकेला चल रहा था । मेरे साथ तो कोई नहीं था । त्यागराज इधर-उधर देखने लगे । वहां कोई भी नहीं था । चोरों को भी आश्चर्य हुआ । दोनों अंगरक्षक अदृश्य हो गए थे ।
त्यागराज ने उनसे पूछा, ‘‘वे अंगरक्षक दिखने में कैसे थे ?’’ चोरों ने कहा, ‘‘दोनों के कंधोंपर धनुष्य-बाण थे । मस्तकपर मुकुट था और दोनों युवा थे ।
अंगरक्षकों का वर्णन सुनते ही त्यागराज ने अपने दोनो हाथ जोड लिए । वह जान गए कि उनकी रक्षा करनेवाले दो अंगरक्षक अन्य कोई नहीं अपितु स्वयं प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण ही थे !
त्यागराज ने चोरों से कहा, ‘‘आप परम भाग्यशाली हो । आप जिन्हें मेरा अंगरक्षक समझ रहे थे, वे अन्य कोई नहीं अपितु मेरे प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण थे । स्वयं भगवान ने अंगरक्षक बनकर मेरी रक्षा की । मैं रामभक्त हूं, परंतु मुझे अभी तक उनके दर्शन नहीं हुए । आप चोर हो और रामभक्त भी नहीं हो, तब भी आप को प्रभु राम के दर्शन हुए । प्रभु, कितने दयालु है ! आज तुम्हें साक्षात प्रभु के दर्शन हुए हैं, आजसे तुम दोनों चोरी करना बंद कर दो और प्रभु श्रीराम की भक्ति में अपना जीवन समर्पित कर दो । प्रभु तुम्हारा कल्याण करेंगे ।
त्यागराज की बात सुनकर लुटेरों की आंखों से अश्रु बहने लगे । उन्होंने त्यागराज के चरण छू लिए और अपना जीवन प्रभु श्रीराम के चरणों में समर्पित करने का दृढ निश्चय किया ।