यह बहुत प्राचीन काल की बात है । द्रविड देश में इंद्रद्युम्न राजा राज्य करते थे । वह भगवान श्रीविष्णु के परम भक्त थे । वह भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे । उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी । प्रजा संतुष्ट थी ।
इंद्रद्युम्न का ऐसा भाव था कि भगवान श्रीविष्णु ही उनके राज्य की व्यवस्था करते हैं । वह कृतज्ञताभाव से अपने प्रभु की उपासना में ही मग्न रहते थे । उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी का भी स्मरण नहीं रहता था । राजा इंद्रद्युम्न के मन में ईश्वर भक्ति की लालसा दिन-प्रतिदिन और अधिक बढती ही गई । इस कारण उन्होंने राज्य का त्याग कर दिया और वह मलय-पर्वत पर रहने लगे । उनका वेश तपस्वियों जैसा था । सिर के बाल बढकर जटाएं बन गई थीं ।
एक बार, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि कर प्रभु की उपासना में तल्लीन थे । उन्हें बाह्य जगत (अर्थात अपने आस-पास क्या घट रहा है उसका भान न था ) का तनिक भी ध्यान नहीं था । उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पहुंचे । राजा ध्यानस्थ बैठे हुए थे । उन्हें महर्षि के आने का पता ही नहीं चला । महर्षि का यथोचित स्वागत न होने से वह क्रोधित हो गए । क्रोध में आकर महर्षि ने राजा इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया, ‘इस राजा ने गुरुजनो से शिक्षा ग्रहण नहीं की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है । ऋषियों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जडबुद्धि है, इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो ।’ महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर वहांसे चले गए । राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया । राजा इन्द्रद्युम्न को महर्षि के शाप के कारण हाथी की योनि में जन्म मिला ।
आगे क्या हुआ । क्षीराब्धि में लम्बा, चौडा और ऊंचा त्रिकूट नामक पर्वत था । वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था । उस पर्वतराज त्रिकूट की तराई में भगवान वरुण का ऋतुमान नामका जलक्रीडा करने का सरोवर था । उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष थे । वे वृक्ष सदा पुष्पों और फलों से लदे रहते थे । उसी सरोवर के समीप एक घना जंगल था, जिसमें अनेक हाथी हथिनियों का समूह रहते थे । महर्षि के श्राप से इन्द्रद्युम्न राजा को हाथी की योनि प्राप्त हुई थी वह भी इसी जंगल में रहते थे । वह अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी थे । उसका नाम गजेन्द्र था ।
एक बार गजेन्द्र प्यास से व्याकुल हो गया । वह प्यास बुझाने के लिए पानी ढूंढ रहा था । ऋतुमान सरोवर में अनेक कमल पुष्प खिले हुए थे । उन कमल पुष्पों की सुगंध चारों ओर फैल रही थी । अपनी ओर आती हुई कमल की गंध से गजेन्द्र अपने साथियों सहित उस विशाल सरोवर के तट पर जा पहुंचा । गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल, शीतल और मीठे जल को पीकर अपनी प्यास बुझाई, उस जल में स्नान कर अपनी थकान दूर की । उसके बाद गजेंद्र ने अपने साथियों के साथ जलक्रीडा आरंभ की । क्या आप जानते हैं कि, हाथियों को पानी में खेलना बहुत भाता है । जलक्रीडा करते करते अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की । एक मगर ने उसका पैर पकड लिया था । गजेन्द्र ने अपना पैर छुडाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु पैर नहीं छूटा ।
अपने स्वामी गजेन्द्र को आहत देखकर उसके साथी अत्यंत व्याकुल हो गए । वह सूंड उठाकर चिंघाडने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौडने लगे । उन्होंने पूरे प्रयास किए परंतु वे सफल नहीं हुए ।
सरोवर में जिस मगर ने गजेन्द्र का पैर पकडा था, वह भी हूहू नाम का एक शापित गंधर्व था । महर्षि देवल के शाप वह मगर बन गए थे । वह भी अत्यंत पराक्रमी थे । संघर्ष चलता रहा । गजेन्द्र स्वयं को जल से बाहर खींचता और मगर गजेन्द्र को जल में भीतर खींचता । मगर की शक्ति जल में दोगुनी हो जाती है । सरोवर का निर्मल जल गजेन्द्र के रक्त से लाल हो गया था ।
गजेन्द्र और मगर का संघर्ष एक हजार वर्ष तक चलता रहा, फिर भी वह दोनों जीवित थे । यह दृश्य देखकर सारे देवगण चकित हो गए।
अंतमें गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया । उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रह गया । परन्तु जलचर होने के कारण मगर की शक्ति में कोई कमी नहीं आई थी । उसकी शक्ति प्रतिदिन बढ रही थी । अब वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा । असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड गए । उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया । वह पूर्णतया निराश हो गया ।
उसी समय गजेन्द्र को भगवान का स्मरण हुआ । पूर्व जन्म में गजेन्द्र द्वारा की गई भगवान श्रीविष्णु की भक्ति का स्मरण हुआ और उन्होंने निश्चय किया कि अब मैं काल के भय से चराचर प्राणियों की रक्षा करनेवाले भगवान श्रीविष्णु की शरण में जाता हूं । इस निश्चय के साथ गजेन्द्र ने अपने मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्तोत्रों द्वारा परम प्रभु की स्तुति की ।
गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वव्यापि भगवान श्री विष्णु प्रसन्न हो गए । गजेन्द्र की पीडा को देखकर भगवान विष्णु गरुड पर आरूढ हुए और ऋतुमान सरोवर के तट पर प्रकट हुए ।
जब जीवन से निराश तथा पीडा से छटपटाते गजेन्द्र ने अपने समक्ष हाथ में चक्र लिए गरुडपर बैठे भगवान विष्णु को तीव्रता से अपनी ओर आते देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में ऊपर उठाया और बडे कष्ट से कहा, ‘हे नारायण, जगद़्रु भगवान ! आपको मेरा नमस्कार है ।’
गजेन्द्र को अत्यंत पीडित देखकर भगवान विष्णु ने गजेन्द्र के साथ मगर को भी सरोवर से बाहर खींच लिया और तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से मगर का मुंह फाडकर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया ।
सभी देवी-देवताओं ने श्री विष्णु की प्रशंसा करते हुए उनपर पुष्पवृष्टि करने लगे, उनका गुणगान करने लगे । मगर के रूप से शापमुक्त होकर हूहू गन्धर्व ने प्रभु की प्रदक्षिणा की और श्री विष्णु के चरणो में सिर रखकर प्रणाम किया और वह गंधर्वलोक चले गए ।
भगवान श्री विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना सेवक बना लिया । गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न हुए भगवान श्री विष्णु ने कहा, ‘प्रिय गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारे द्वारा की हुई स्तुति से मेरा नित्य स्मरण करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि प्रदान करुंगा ।’
इतना कहकर भगवान श्री विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडपर बैठकर अपने दिव्य धाम को चले गए ।