बहुत पहले महाराष्ट्र के आळंदी गांव में कुलकर्णी नामक एक सदाचारी पुरुष रहते थे । उन्होंने युवावस्था में ही संन्यास ले लिया था । वह अपनी पत्नी को छोडकर अपने गुरु के पास चले गए थे; परंतु अपने गुरु की आज्ञा से उन्होंने पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया । उनकी चार की संतानें थी । चारों बच्चे ईश्वर के परमभक्त थे । उनके बच्चों का नाम निवृत्ति, ज्ञानदेव, सोपान और मुक्ताबाई था । संन्यास के पश्चात पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के कारण गांव के लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया था अर्थात गांववालों ने उनके साथ सभी प्रकार के संबंध तोड दिए थे । उनके बच्चों को ‘संन्यासी के बच्चे’ कहकर गांववाले सदैव उनका अपमान करते थे । गांववालों की अवहेलना से पीडित होकर कुलकर्णीजी ने अपनी पत्नी के साथ इन्द्रायणी नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली थी । उनके बच्चे गांव से भिक्षा मांगकर अपना पेट भरते थे । आळंदी के पंडितों ने उन्हें पैठण के पंडितों से शुद्धि पत्र लाने को कहा था । इसलिए वे सभी भाई-बहन पैदल ही पैठण के लिए चल पडे । उस समय एक गांव से दूसरे गांव में जाने के लिए वाहनों की व्यवस्था नहीं थी । सभी बच्चे कुछ दिन पैदल यात्रा करके पैठण पहुंचे तथा वहां के पंडितों की सभा में शुद्धीकरण पत्र की मांग की । पंडितों के उनको शुद्धीकरण पत्र देने से मना कर दिया । तब ज्ञानेश्वर महाराज ने उनसे कहा कि सभी प्राणियों में ईश्वर का वास होता है । सभी लोग उनके इस ज्ञान से क्रोधित हो गए । उसी समय वहां से एक चरवाहा अपने भैंसो को लेकर निकल रहा था । पैठण के विद्वानों में से एक विद्वान ने उनसे पूछा क्या सामने से आनेवाले भैंसे में भी तुम्हें ईश्वर दिखाई देते हैं, यदि हां तो इस भैंसे के मुंह से वेद कहलवाकर दिखाओ ।
ज्ञानेश्वरजी आगे बढे । भैंसे के माथे पर अपना हाथ रखते ही वह वेदों का उच्चारण करने लगा ! यह चमत्कार देख वहां उपस्थित सभी विद्वान चकित रह गए और उन्होंने ज्ञानेश्वरजी को शुद्धीकरण पत्र दे दिया ।
पैठण के विद्वान पंडितों से शुद्धीपत्र प्राप्त करने की अपेक्षा में वह पैठण के एक ब्राह्मण के घर में निवास कर रहे थे । उस दिन ब्राह्मण के पिता का श्राद्ध था । परंतु श्राद्ध विधि करने के लिए एक भी ब्राह्मण नहीं मिल रहा था । यह समस्या उन्होंने ज्ञानेश्वरजी को बताई । उनकी समस्या को सुनकर वह बोले, ‘‘मैं आपके पितरों को अर्थात पूर्वजों को ही यहां भोजन के लिए बुलाता हूं । आप केवल भोजन की तैयारी करें ।’’
उस ब्राह्मण ने श्राद्ध की संपूर्ण तैयारी की । ज्ञानेश्वरजी ने अपने योग सामर्थ्य से उस ब्राह्मण के पितरों को उस स्थानपर बुलवाया । पितरों के श्राद्ध के भोजन का संपूर्ण कार्य संपन्न होनेपर ज्ञानेश्वरजी ने ‘स्वस्थाने वासः’ इतना कहा । तब वह पितर एक एक कर अदृश्य हो गए ! यह समाचार पूरे पैठण में फैल गई । सभी ब्राह्मणों को अपने गलत व्यवहार पर पश्चाताप हुआ । उन्होंने ज्ञानेश्वरजी का सम्मान किया । तथा ‘आप साक्षात परमेश्वर का अवतार हैं, आपको प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं’ इस आशय का पत्र लिखकर दिया ।
आलंदी गांव में विसोबा नामक एक कुटिल व्यक्ति रहता था । वह इन चारोंसे द्वेष करता था । ज्ञानेश्वरजी के बडे बंधु एवं गुरु निवृत्तिनाथ ने अपनी सबसे छोटी बहन मुक्ताबाई को मांडे अर्थात मैदे की मीठी रोटी बनाने के लिए कहा था । मुक्ताबाई आवश्यक सर्व सामग्री ले आईं । मिट्टी का तवा लाने के लिए वह कुम्हार के पास गई । परंतु वहां कुटिल विसोबा बैठा हुआ था । उसने पहले से ही कुम्हार को कह दिया था कि, वह इन बंधुओं को तवा न दे ।
उस कुम्हार ने विसोबा की बात मान ली । तवा न मिलने पर मुक्ताबाई दुःखी होकर घर लौट आयी और ज्ञानेश्वरजी से बोली, ‘‘मांडे कैसे सेकूं ? कुम्हार ने तवा नहीं दिया !’’ ज्ञानेश्वरजी ने तुरंत अपनी जठराग्नी प्रज्वलित की और वह बोले, ‘‘मेरी पीठ पर मांडे सेको । मुक्ताबाई ने ज्ञानेश्वरजी के पीठ पर मांडे सेंके ! उसके बाद सभी बंधुगण भोजन के लिए बैठ गए । विसोबा ने इस चमत्कार दूर से देखा और वह दौडकर इन बंधुओं की शरण में आ गया ।
महाराष्ट्र में चांगदेव नामक एक श्रेष्ठ योगी थे । वह आत्मा को ब्रह्मांड में ले जाने की योगविद्या जानते थे । इस विद्या के बल पर वह चौदह सौ वर्ष तक जीवित थे ! वह स्वयं को सामर्थ्यशाली मानते थे । उन्हें अपने सामर्थ्य का घमंड हो गया था ।
ज्ञानेश्वरजी की महानता की कीर्ति उन तक भी पहुंच गयी थी । उन्हें पत्र लिखने का विचार उनके मन में आया । वह पत्र लिखने लगे । परंतु पत्र का आरंभ कैसे करें इसपर वह भ्रमित हो गए । यदि वह पत्र के आरंभ में ‘तीर्थरूप’ लिखते तो ज्ञानेश्वरजी उनसे आयु में छोटे थे । यदि ‘चिरंजीव’ लिखते तो, ज्ञानेश्वरजी से उनको आत्म-ज्ञान लेना पडता ! अंत में पत्र कोरा रख उन्होंने अपने शिष्यद्वारा ज्ञानेश्वरजी तक पहुंचाया ।
उस कोरे कागज को देख ज्ञानेश्वर बोले, ‘‘गुरु न करने के कारण चांगदेव चौदह सौ साल कोरे ही रह गए !’’ उन्होंने उसी शिष्यद्वारा पत्र का उत्तर भेज दिया । वह लिखते हैं, ‘‘संपूर्ण विश्वका चालक आपके पास है । उसके द्वार छोटा-बडा (निम्न-उच्च) ऐसा भेद नहीं है ।’’
ज्ञानेश्वरजी का उत्तर उस शिष्य ने चांगदेव को बताया । चांगदेव अपने शिष्य परिवार को साथ लेकर निकल पडे । वह स्वयं एक बाघ पर हाथों में सांप का चाबुक थामे बैठे थे । यहां ज्ञानेश्वर, निवृत्तिनाथ, सोपान एवं मुक्ताबाई एक दीवारपर बैठे थे ।
चांगदेव ने संदेश भेजा कि मैं अपने वाहन बाघ पर बैठकर आ रहा हूं । आप भी वाहन पर बैठकर मुझसे मिलने आइए ।
ज्ञानेश्वर महाराज जिस दीवार पर बैठे थे, उसी दीवार को उन्होंने चलने की आज्ञा दी । आश्चर्य की बात हो गई, निर्जीव दीवार तुरंत चलने लगी ।
यह अद्भूत चमत्कार देख चांगदेवजी का गर्वहरण हो गया । वह ज्ञानेश्वरजी के चरणों में गिर पडे । उनसे उपदेश प्राप्त किया ।
संत ज्ञानेश्वरजी ने केवल १५ वर्ष की आयु में लिखा ‘ज्ञानेश्वरी ग्रंथ’ लिखा था जो मराठी साहित्य का अमर भाग है ! उन्होंने भागवत पंथ की स्थापना की । संत ज्ञानेश्वरजी ने केवल २१ वर्ष की छोटी आयु में ही आलंदी के इंद्रायणी नदी के पावन तटपर संजीवन समाधी ग्रहण की ।