यह प्राचीन काल की बात है । सूर्यवंश में त्रिशंकु नाम के बडे राजा हुए थे । वह अयोध्या के राजा थे । उनके पुत्र का नाम हरिश्चंद्र था ! महाराज त्रिशंकु के पश्चात हरिश्चंद्र अयोध्या के राजा बने । महाराज हरिश्चंद्र सत्यवादी थे । उन्होंने अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला था । वह बहुत बडे धर्मात्मा भी थे । वह अपना वचन पूरा करने के लिए कुछ भी कर सकते थे । सत्यवादी और धर्मात्मा राजा हरिश्चंद्र की कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी । उनकी कीर्ति देवताओं तक भी पहुंच गई थी । धर्मात्मा तथा सत्यवादी होने के कारण देवताओं के राजा इंद्र का भी आसन डोलने लगा था । इंद्रदेव ने महर्षि विश्वामित्र को हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए कहा । इंद्र के कहने से महर्षि विश्वामित्र ने महाराज हरिश्चंद्र से स्वप्न में उनका राज्य दान में मांगा तथा स्वप्न में ही राजा ने अपना राज्य महर्षि को दान में देने का वचन दे दिया । दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्रजी अयोध्या आए और अपना राज्य मांगने लगे । महाराज हरिश्चंद्र ने स्वप्न में दिया हुआ वचन पूरा करने के लिए अपना राज्य महर्षि विश्वामित्र को दान में दे दिया ।
महाराज हरिश्चंद्र संपूर्ण पृथ्वी के सम्राट थे । अपना पूरा राज्य उन्होंने दान कर दिया था । अब राजा के पास पहने हुए कपडों के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह गया था । महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से कहा कि राजा दान की हुई भूमि पर आपको रहने का कोई अधिकार नहीं है । अब राजा ने तो संपूर्ण पृथ्वी ही दान में दे दी थी । इसलिए वह अपनी पत्नी और पुत्र के साथ काशी नगरी में आ गए । अब आपको लगेगा की काशी तो पृथ्वी का ही भाग है तो वहां कैसे चले गए ?
पुराणों में बताया है की काशी नगरी भगवान शंकरजी के त्रिशूल पर बसी हुई है । इसलिए वह पृथ्वी पर होने पर भी पृथ्वी से अलग मानी जाती है ।
महाराज हरिश्चंद्र जब अयोध्या से चलने लगे तब महर्षि विश्वामित्रजी ने कहा, ‘राजा, जप, तप, और ध्यान दक्षिणा दिए बिना पूरा नहीं होता । तुमने इतना बडा राज्य दान किया है, तो दक्षिणा में एक हजार सोने की मुद्राएं भी दान करो ।
पूरा राज्य देने के कारण महाराज हरिश्चंद्र के पास अब कुछ भी नहीं था । राज्य के साथ, राज्य का धन भी दान हो चुका था ।
महाराज हरिश्चंद्र ने विश्वामित्रजी से वह दक्षिणा देने के लिए एक महीने का समय मांगा और काशी चले आए ।
काशी में आकर राजा ने अपनी पत्नी शैव्या को एक ब्राह्मण को बेच दिया । राजकुमार रोहिता, एक छोटा बालक था, ब्राह्मण ने उसे अपनी मां के साथ रहने की अनुमति दे दी । महाराज ने स्वयं को एक चांडाल के हाथ बेच दिया और सबको बेचकर मिली एक हजार सुवर्ण मुद्राएं महर्षि विश्वामित्रजी को दक्षिणा में अर्पण कर दी ।
महारानी शैव्या अब ब्राह्मण के घर दासी का काम करने लगी । चांडाल के सेवक बनकर महाराज हरिश्चंद्र स्मशानघाट पर चौकीदारी करने लगे । चांडाल का कार्य होता है श्मशानघाट पर लाए गए शवों को जलाना तथा उसके परिजनों से कर अर्थात शुल्क लेना । चांडाल ने महाराज को श्मशान में लाए जानेवाले शवों के परिजनों से कर अर्थात शुल्क लेने का कार्य सौंपा ।
राजा का पुत्र रोहिता अपनी मां महारानी शैव्या के साथ ब्राह्मण के घर रहता था । एकदिन राजकुमार रोहिता ब्राह्मण की पूजा के लिए फूल चुन रहा था । उसी समय उसे एक सांप ने काट लिया । सांप का विष राजकुमार के शरीर में फैल गया और उसकी मृत्यु हो गई । उसकी माता शैव्या तो अकेली थी । उन्हें धीरज बंधानेवाला भी कोई नहीं था और न ही कोई उनके पुत्र को स्मशान घाटतक पहुंचानेवाला था । वह वैसही रोते-बिलखते हुए रानी अकेली रोहिता का शव हाथ में उठाकर उसका अंतिम संस्कार करने के लिए रात को ही श्मशानघाट पहुंच गई । वह अपने पुत्र के शव का दाहसंस्कार करनेवाली ही थी । उसी समय महाराज हरिश्चंद्र वहां आ गए और श्मशानघाट का कर मांगने लगे । बेचारी महारानी के पास तो पुत्र को ढंकने के लिए कपडा भी नहीं था, तो वह कर कहां से दे पाती ? महाराज की आवाज से महारानी ने उन्हें पहचान लिया और वह गिडगिडाकर कहने लगी, ‘महाराज, यह हमारा पुत्र रोहिता है । सांप काटने से उसकी मृत्यु हो गई है और मेरे पास कर देने के लिए कुछ भी नहीं है ।’
महाराज हरिश्चंद्र को बहुत दु:ख हुआ, किंतु वे अपने धर्म पर अटल रहे । उन्होंने कहा, ‘रानी, मैं यहां चांडाल का सेवक हूं । मेरे स्वामी ने मुझे कहा है कि बिना कर दिए किसी को शव नहीं जलाने देना । इसलिए तुम्हें कुछ तो देना ही पडेगा ।’
रानी फूट-फूटकर रोने लगी और कहा, ‘महाराज, मेरे पास पहनी हुई साडी के अतिरिक्त कुछ नहीं है । मैं इस साडी में से आधी फाडकर आपको दे देती हूं । आप हमारे पुत्र का अंतिम संस्कार करने की अनुमति दे दीजिए । वह अपनी साडी फाडने ही जा रही थी, उसी समय वहां भगवान नारायण, इंद्र, धर्मराज आदि देवता और महर्षि विश्वामित्र प्रकट हो गए ।
महर्षि विश्वामित्र ने कहा हे राजा तुम हमारी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हो । तुम्हारा पुत्र रोहिता जीवित है । यह सब तो महर्षि ने योगमाया से दिखलाया था । महाराज हरिश्चंद्र को चांडाल के रूप में खरीदनेवाले साक्षात धर्मराज ही थे ।
महाराज हरिश्चंद्र सत्यनिष्ठ थे और सत्य साक्षात नारायण का रूप है । इस सत्यता के कारण महाराज हरिश्चंद्र और महारानी शैव्या भगवान के धाम चले गए और महर्षि विश्वामित्र ने रोहिता को अयोध्या का राजा बना दिया ।
महाराज हरिश्चंद्र की सत्यता के कारण उनके लिए एक दोहा पसिद्ध है ।
चंद्र टले, सूर्य टले, टले जगत व्यवहार ।
पै दृढवत हरिश्चंद्र को, टले न सत्य विचार ॥
तो हमारे जीवन में सत्यनिष्ठ होने का लाभ आपके ध्यान में आया न ?