श्री नृसिंह सरस्वती श्री दत्तात्रेय के दूसरे अवतार थे । उन्होंने करंजनगर नामक गांव में जन्म लिया । उनके पिता का नाम माधवराव एवं माता का नाम अंबाभवानी था । पति-पत्नी दोनों ही शिवभक्त थे । जन्मपर ही बालक का नाम शालिग्रामदेव रखा । उसके बाद बडे धूमधाम से उस बालक का नामकरण विधि कर विधिपूर्वक उसका व्यावहारिक नाम नरहरि रखा गया ।
जन्म से ही यह शिशु ‘ॐ’कार शब्द का उच्चारण करने लगा । बालक बडा होने लगा । तीन वर्ष का होनेपर भी ‘ॐ’ कार के अतिरिक्त अन्य कोई भी शब्द वह नहीं बोलता था । सात वर्ष का होने पर भी वह बालक ‘ॐ’ कार के अतिरिक्त कुछ नहीं बोलता था । माधवराव एवं अंबा मन-ही-मन बहुत दुखी हुए । उन्होंने शिव-पार्वती की आराधना की थी । उनके कृपाप्रसाद से ही उन्हें लडका हुआ परंतु वह गूंगा है, इस बात से नरहरि के माता-पिता बहुत दुखी हुए ।
एक दिन अंबाभवानी नरहरि को अपने निकट लिया और कहने लगीं, ‘‘ बेटा, तू अवतारी पुरुष है, युगपुरुष है, ऐसा ज्योतिषी कहते हैं । हमारे भाग्य से तूने हमारे घर में जन्म लिया है । तू जगद्गुरु होगा ऐसा हमें विश्वास हो गया है । तू शक्तिमान है । तू बोल क्यों नहीं रहा है ? तुम्हारी बोली सुनने के लिए हम व्याकुल है । हमारी इतनी कामना पूर्ण करो !’’ बालक नरहरि ने माता के यह शब्द सुनकर हाथों से ही बताया, मेरा मौजीबंधन कर दिया तो, मुझे सब कुछ बोलना आ जाएगा !’’
नरहरि के माता ने यह बात अपने पति को बताई । व्रतबंध के लिए मुहूरत सुनिश्चित किया गया । सभी सिद्धता की गई ।
मौजीबंधन समारोह देखने बडी भीड उमडकर आई । माधवरावजीने नरहरि की कमर के आसपास मौजीबंधन किया एवं नियोजित शुभ मुहूरतपर उनके कानों में तीन बार गायत्री मंत्र का उच्चारण किया । नरहरिने मन -ही- मन उच्चारण किया, परंतु प्रकटरूप में नहीं । वह देखकर लोग हंसकर कहने लगे, ‘‘गूंगा लडका गायत्री मंत्र का क्या उच्चारण करेगा?’’
मौजीबंधन के समय पुत्र को भिक्षा दी जाती है । माता अंबा भवानीद्वारा पहली भिक्षा देकर आशीर्वाद देते ही नरहरि ने ऋग्वेद के प्रथम मंत्र का स्पष्ट उच्चारण कर, ऋग्वेद कह सुनाया । दूसरी भिक्षा देते ही यजुर्वेद के प्रारंभ का भाग सुना दिया ।
माताद्वारा तीसरी भिक्षा पाते ही उन्होंने सामवेद का गायन कर दिखाया । माधवराव एवं अंबाभवानी को अत्यंत आनंद हुआ ।
गूंगा लडका चारों वेद बोलने लगा, इसे देखकर लोग आश्चर्यचकित हो गए ।
नरहरि अपनी माता से कहने लगे, ‘‘माता, अब मुझे अनुमति दो । मैंने तीर्थयात्रा जाने का निश्चय किया है । घर-घर भिक्षा मांगकर, ब्रह्मचर्य का पालन कर, वेदाभ्यास करुंगा, ऐसी मेरी मनसा है ।’’ यह सुनकर माता को बहुत ही दुख हुआ ।
अपनी माता को दुखी देखकर नरहरि ने बताया, ‘‘जब मेरा चिंतन करोगे, मुझे मिलने की तीव्र इच्छा होगी, तब मैं मनोवेग से आकर मिलूंगा ।’’ नरहरिद्वारा ऐसा आश्वासन मिलते ही उनके माता-पिताने उन्हें संन्यास दीक्षा की अनुमति दे दी ।
नरहरि पहले काशीक्षेत्र गए । वहां उन्होंने अध्ययन किया । कृष्ण सरस्वतीजी के अधिकार को जानकर नरहरिजीने उनसे दीक्षा ली । उसके बाद वे नृसिंह सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
श्री गुरु नृसिंह सरस्वतीजीने दक्षिण में स्थित विविध तीर्थों का भ्रमण किया । महाराष्ट्र में नरसोबा की वाडी में बारह वर्ष रहकर उन्होंने लोकोद्धार का कार्य किया । भविष्य में वह गुप्तरूप से संचार करते हुए गाणगापुर में प्रकट हुए । उनके असंख्य शिष्य थे । श्री गुरुजीने सभी शिष्यों को बुलाया तथा बताया, ‘‘ हमारी बहुत प्रसिद्धि हुई है; भविष्य में गुप्त रहें मन में ऐसी इच्छा है । मैं तुम को छोडकर नहीं जा रहा हूं, बल्कि केवल गुरुरूप में यहां रहनेवाला हूं ।’’
श्री गुरु कहने लगे, ‘‘ जो लोग मेरी भक्ति करेंगे, मनोभाव से मेरा गुणगान करेंगे, उनके घर हम सदैव रहेंगे । उनको व्याधि, दुख तथा दारिद्र्य का भय नहीं होगा । उनकी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होगी । जो मेरे चरित्र का पठन करेंगे, उनके घर निरंतर लक्ष्मी, सुख एवं शांति रहेगी, ऐसा कहकर वे उनकी इच्छा के अनुसार भक्तोंद्वारा सिद्ध किए हुए पुष्प के आसन पर विराजमान हो गए । उस आसन को नाव की भांति पानी में छोडा गया । भक्तों की भावनाएं अनावर हो गई, ‘‘लौकिक रूप से मैं जा रहा हूं । किंतु भक्तों के घर एवं गाणगापुर को मेरा सान्निध्य सदैव रहेगा ।’’ उसके बाद उनके गाणगापुर पहुंचने पर प्रसाद के प्रतीक स्वरूप पुष्प बहते हुए आ गए ।
श्री गुरुजी की लीलाकथाएं श्रीगुरुचरित्र में आ गई हैं । आज भी श्री गुरुजी गाणगापुर में ही हैं । वे भक्तों को दर्शन देते हैं ।