भारत मे अनेक तीर्थक्षेत्र ऐसे है जहां पर पितरों के लिए पिंडदान किया जाता है । उनमे से एक तीर्थक्षेत्र है गया, जो बिहार राज्य में स्थित है ।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान राम लंका विजय के उपरांत माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या के लिए लौट रहे थे तब गया की पहाड़ी की एक चोटी पर वे विश्राम के लिए रुके थे । उसी समय पहाड़ से राजा दशरथ का हाथ निकला । पहाड से आवाज आयी, ‘‘बेटा तुम गया की पवित्र भूमि पर हो । मेरा पिंडदान कर दो । जिससे मुझे मोक्ष मिल सके ।’’ भगवान श्रीराम ने उसी पर्वत पर अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था ।
गया यह तीर्थस्थल कैसे बना ? इसकी कथा हम सुनेंगे ।
ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे । तब उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई । गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था; इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी। वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था । परंतु उसके मन में एक विचार खटकता रहता था कि ‘भले ही मै संत प्रवृति का हूं, किंतु मैं असुर कुल का हूं, इस कारण मुझे कभी सम्मान नहीं मिलेगा । इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए जिससे मुझे स्वर्ग मिले ।’
गयासुर ने कठोर तप कर भगवान श्रीविष्णु को प्रसन्न किया । भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा की ‘आप मेरे शरीर में वास करें । जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं । वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले ।’’
भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूमकर-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा । जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट होने लगे और वह स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। कोई घोर पापी भी कभी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते ।
इससे यमराज को लोगों के कर्म का हिसाब रखने में संकट निर्माण हो गया था । यमराज ने ब्रह्माजी से कहा ‘गयासुर को रोक लें। अन्यथा ‘सभी को उसके कर्म के अनुसार फल मिलता है । आपका यह विधान समाप्त हो जाएगा ।’
ब्रह्माजी ने इसपर उपाय निकाला । ब्रह्माजी ने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे अधिक पवित्र है, इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा ।’ यह सुनकर गया को बडा आनंद हुआ ।
ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ गयासुर के पीठ पर बैठ गए । इतना भार उठाकर भी वह घूमने-फिरने में समर्थ था । अब देवताओं को चिंता होने लगी । उन्होंने आपस में परामर्श कर यह निश्चित किया कि गयासुर को श्रीविष्णु ने वरदान दिया है इसलिए यदि स्वयं श्रीहरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर एक ही स्थान पर अचल हो जाएगा । तदोपरांत श्री विष्णु भी उसके शरीर पर बैठ गए ।
यह देखकर गयासुर ने कहा,‘‘आप सभी और श्री विष्णु मेरे पीठ पर बैठे हैं इसलिए अब मैं अचल हो रहा हूं । परंतु मुझे श्री विष्णु द्वारा दिया गया आशीर्वाद व्यर्थ न जाए इसलिए श्रीहरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें ।
श्रीहरि उसके विचारों से प्रसन्न हो गए और गया को वरदान मांगने के लिए कहा । गया ने बोला, ‘हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए ।’
भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गयासुर स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीडा से मुक्ति मिलेगी । तब से गया मे पितरों के मुक्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है ।
हमारे माता-पिता तथा अन्य निकटवर्ती संबंधियों ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, उसे ‘पितृऋण’ कहते हैं । इन सभी को मृत्यु के उपरांत सद़्गति प्राप्त हो, इस उद्देश्य से ‘श्राद्धविधि’ किया जाता है । भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या इस कालावधी को श्राद्ध पक्ष कहते हैं । इस कालावधि में श्राद्ध करना लाभकारी होता है । इस कारण हमारे पूर्वज जो अतृप्त इच्छाओं में अटके होते हैं, उन्हें उचित गति मिलती है ।
श्राद्ध के अंतर्गत जिन मंत्रों को उच्चारण किया जाता है उसमें पितरों को गति प्रदान करने की सूक्ष्म शक्ति समाई होती है; इसलिए श्राद्धविधि से पितरों को मुक्ति मिलना संभव होता है ।