दत्त संप्रदाय में श्रीपाद श्रीवल्लभ यह पहले अवतार है और नृसिंह सरस्वती दूसरे अवतार माने जाते हैं । अक्कलकोट के श्री स्वामी समर्थ ही नृसिंह सरस्वती हैं अर्थात दत्तावतार हैं ।
स्वामी समर्थ ने अपने भक्तों को सुरक्षा का वचन दिया है । वह कहते थे, ‘डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं ।’ उनका यह वचन प्रसिद्ध है । आप सभी ने यह सुना ही होगा ।
उनके इस वचन की अनुभूती उनके भक्त आज भी लेते है ।
नृसिंह सरस्वती जो भगवान श्री दत्त के दूसरे अवतार हैं, वे श्री शैल्य यात्रा के कारण कर्दली वन में अदृश्य हो गए थे । इसी कर्दली वन में वे तीनसौ वर्ष प्रगाढ समाधि अवस्था में थे । उसके पश्चात अपनी शक्ती से वे प्रथम काशी मे, फिर कोलकाता मे, फिर गंगा नदी का तट, गोदावरी नदी का तट आदी स्थानों पर प्रकट हुए थे ।
इ.स. १८५६ (अठ्ठारहसौ छिहपन्न) में वे अक्कलकोट में खंडोबा के मंदिर में प्रकट हुए ।
‘जो मेरा अनन्य भाव से चिंतन, मनन करेगा, अनन्य भाव के चिंतन की उपासना और सेवा मुझे अर्पण करेगा वह नित्य उपासना करनेवाला मेरा प्रिय भक्त है । उसका मैं सब प्रकार से योगक्षेम चलाऊंगा,’ ऐसा आश्वासन उन्होंने भक्तों को दिया ।
एक बार एक प्रसंग घटित हुआ । उस वक्त अक्कलकोट यह एक संस्थान था । तात्या भोसले नामक गृहस्थ उस संस्थान के मानकरी थे । वे आध्यात्मिक वृत्ती के थे ।
एक पल ऐसी स्थिती आ गई की उनका मन संस्थान से, संसार अर्थात व्यवहार से ऊब गया । तब वे स्वामी समर्थ के चरणों में शरण आए और स्वामी के पास रहकर भक्तिभाव से उनकी सेवा करने लगे ।
एक दिन स्वामी समर्थजी ने तात्या भोसलेजी से कहा, ‘तुम्हारे नामकी चिट्ठी आई है ।’ तात्या भोसले का मन व्यवहार में नही लगता था और उन्हे केवल स्वामीजी की सेवा ही करनी थी, इसलिए उन्होंने स्वामी समर्थ से प्रार्थना की, ‘मुझे आपकी और सेवा करनी है ! मुझे आपके पास ही रहना है ।’
स्वामीजी ने चिट्ठी लानेवाले दूत की ओर देखा । साथ ही तात्या भोसले ने भी देखा । वह यमदूत था । ‘यमदूत मुझे लेने आया है, यह सोचकर तात्या भोसले डर गए ।’ परंतु स्वामी समर्थ अपने भक्त की सेवा की तडप जानते थे । इसलिए उन्होंने यमदूत से कहा, ‘यह मेरा भक्त है । इसे स्पर्श मत करना । उस ओर बैठे बैल को ले जाओ !’ और देखते ही देखते उस बैल के प्राण चले गए तथा वह भूमि पर गिर गया । यमदूत उसे लेकर चला गया ।
स्वामी समर्थ अपने भक्तों के कल्याण हेतु सदैव जागृत रहकर भयंकर संकटों से उन्हें मुक्त कराते हैं ।
स्वामी समर्थ ने नेत्रहीन कृष्णभक्त सूरदास को श्रीकृष्णजी का दर्शन भी कराया था ।
द्वारकापुरी में रहनेवाले महान कृष्णभक्त सूरदास जन्म से अंधे थे । सगुण साकार श्रीकृष्ण का दर्शन करने की उनकी बडी इच्छा थी ।
एक बार स्वामी समर्थ सूरदास के आश्रम में अचानक जाकर खडे हो गए । दरवाजे से ही उन्होंने सूरदास को आवाज दी और कहा, ‘तुम जिसके नाम से आवाज दे रहे हो, देखो वह मैं तुम्हारे दरवाजे पर खडा हूं । सूरदास, जरा देखो ।’
श्रीकृष्णजी आये है, ऐसे सोचकर नेत्रहीन सूरदास दौडकर दरवाजे पर पहुंचे । वहां स्वामी समर्थ ने उनके दोनों नेत्रों को अपने हाथों से स्पर्श किया । तभी सूरदास को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई । उन्हें शंख, चक्र, गदा धारण किए हुए भगवान श्रीकृष्ण का सगुण रूप दिखने लगा । श्रीकृष्ण के इस रूप को देखकर सूरदास गदगद हो गए ।
थोडी देर के पश्चात चेतना वापस आने पर अर्थात ध्यान अवस्था से बाहर आनेपर स्वामी समर्थजी ने सूरदास को अपने वास्तविक रूप का दर्शन कराया । सूरदास भावविभोर हो गए । उन्होंने स्वामी समर्थ से कहा, आपने मुझे दिव्यदृष्टि दी है । अब इस जन्ममृत्यु के चक्र से मुझे मुक्त कीजिए !’
सूरदास की प्रार्थना सुनकर स्वामी समर्थ ने उन्हे, ‘तुम ब्रह्मज्ञानी बनोगे !’ ऐसा आशीर्वाद दिया और वे वहांसे चले गए ।
संत ईश्वर का सगुण रूप होते हैं, यह आपके ध्यान में आया न ?