आज हम भरत की प्रभु श्रीराम के प्रति भक्ति और बंधुप्रेम की यह कथा सुनेंगे ।
प्रभु श्रीरामजी ने अपने पिता राजा दशरथ की आज्ञा के अनुसार वनवास प्रस्थान किया । जब प्रभु श्रीराम वनवास जा रहे थे, तब उनके छोटे भाई भरत अयोध्या में नहीं थे । भरत अपने ननिहाल मामा के घर गए हुए थे । प्रभु श्रीराम के वन में जाते ही दुःख से राजा दशरथ की मृत्यु हो गई । तब भरत को अयोध्या में लाने के लिए दूत भेजा गया । जब भरत अयोध्या लौटे, तब उन्हें पता चला कि उनकी माता कैकयी ने उन्हें सिंहासन पर बिठाने हेतु बंधु श्रीराम को १४ वर्ष का वनवास दिया है, तब उन्हें बहुत दुख हुआ । अपने बडे भाई श्रीराम को वापस लाने हेतु वे वन में गए ।
उस समय प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता चित्रकूट पर्वत पर रह रहे थे । वहां पहुंचते ही भरत श्रीराम की कुटिया में पहुंचे। वहां उन्हें प्रभु राम वनवासी के वेश में बैठे हुए दिखाई दिए । भरत दौडते हुए श्रीरामजी के चरणों पर गिर पडे ।
भरत अपने बडे भ्राता से बोले, ‘‘मैं आपकी शरण मे आया हूं । आप मुझे क्षमा करें । आप अपना अयोध्या का राज्य संभालकर मेरा उद्धार करें । सारे मंत्रीगण, तीनों माताएं और गुरु वसिष्ठ ये सभी यही प्रार्थना लेकर आपके पास आए हैं । मैं आपका छोटा भाई आपके पुत्रसमान हूं । अयोध्या पर राज्य करने का सामर्थ्य केवल आप ही में है । आपका स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता । इसलिए आप अयोध्या लौट चलिए ।’’ यह कहने के बाद भरत प्रभु श्रीराम से गले मिलकर रोने लगे । वे श्रीरामजी को बार-बार अयोध्या आने के लिए प्रार्थना पूर्वक आग्रह करने लगे ।
तब प्रभु श्रीरामजीने उन्हें बताया, ‘‘भरत, मैंने पिताजी को १४ (चौदह) वर्ष का वनवास पूर्ण करने के बाद ही अयोध्या लौटने का वचन दिया है । मैं अभी नहीं आ सकता ।’’
वचन की बात सुनकर भरत ने सत्य को स्वीकार किया । उन्होंने श्रीरामजी से कहा, ‘‘बंधु, अयोध्या का राज्य चलाने का अधिकार केवल आपका है । आपके वनवास के १४ वर्ष की अवधि तक ही मैं कार्यभार चलाऊंगा, परंतु आपकी चरणपादुकाएं सिंहासन पर रखकर ! कृपया आप अपनी चरण पादुकाएं मुझे दीजिए । आप ही को राजा मानकर आपके प्रतिनिधि के रूप में १४ वर्ष राजकार्य चलाऊंगा । जब १४ वर्ष पूर्ण होंगे, तब आपको पुनः अयोध्या आना ही पडेगा, अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूंगा ।’’
इतना कहकर भरत ने प्रभु श्रीरामजी की चरणपादुकाएं अपने मस्तक पर धारण की और वे अयोध्या लौट आए । उसके पश्चात भरत सेवक के रूप मे राज्यकारभार देखने लगे ।
भरत को प्रभु श्रीरामजी के सामने राजवभैव, राजा का पद, राज्यकारभार चलाने का अवसर इन सभी में कोई रुचि नहीं थी । उन्होंने अपने बडे भाई श्रीरामजी के सामने स्वयं राजा बनना भी तुच्छ माना । १४ वर्ष के बाद जब प्रभु श्रीरामजी पुन: अयोध्या आए, तब भरत ने उन्हें राजपाट सौंप दिया । यह होता है आदर्श बंधुप्रेम !
आदर्श भाई कैसा होना चाहिए, इसका भी यह उत्कृष्ट उदाहरण है । साथ ही भगवान के चरणों के प्रति हमारा भाव कैसे होना चाहिए यह भी हमें इस कहानी से सीखने को मिलता है न ?