भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश !

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश !

यह महाभारत काल की बात है । धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे । वे कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए । पहले भगवान श्रीकृष्ण अत्यंत क्रोधी दुर्योधन के पास दूत बनकर गये थे । उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी दुर्योधन से कहा, ‘दुर्याेधन तुमने पांडवों के साथ द्यूत क्रीडा में उनसे उनका इंद्रप्रस्थ छीन लिया था । अब उनका १२ वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास समाप्त हो चुका है, इसलिए तुम्हें उनका इंद्रप्रस्थ उन्हें लौटा देना चाहिए । परंतु दुर्याेधन इंद्रप्रस्थ लौटाने को तैयार नहीं था, तब भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को पांच गांव देने की मांग की; परंतु श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने क्रोध से कहा, ‘मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूंगा; हां, मैं उनसे युद्ध अवश्य करूंगा।’

ऐसा कहकर आवेग से दुर्याेधन भगवान श्रीकृष्णजी को बंदी बनाने के लिये आगे आया । उस समय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने विश्वरूप का दर्शन कराकर दुर्योधन को भयभीत कर दिया । उसके बाद वहां उपस्थित विदुर ने अपने घर ले जाकर भगवान श्रीकृष्णजी का पूजन और सत्कार किया ।

उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के पास लौट गए और बोले, ‘धर्मराज ! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिए ।’

अब युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं । अपने विरुद्ध पक्ष में पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध करने को तैयार नहीं थे । तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने विश्वरूप का दर्शन कराया और उनसे कहा, ‘पार्थ ! जब धर्म को ग्लानी आती है, तब धर्म की संस्थापना के लिए मैं अवतार धारण करता हूं । कौरवों का साथ देनेवाले भीष्म आदि गुरुजन शोक करने के योग्य नहीं हैं । उन्होंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए कौरवों का पक्ष लिया है परंतु वह है तो असत्य का पक्ष ! उनके साथ युद्ध करना ही उचित क्षत्रिय धर्म है । तुम अपने कर्म के फल की चिंता ना करते हुए अपने क्षात्रधर्म का पालन करो । मैंने सूक्ष्मरूप से यह युद्ध जीत ही लिया है । तुम केवल आज्ञापालन कर अपनी साधना करो । हे पार्थ, यदि तुम जीतते हो तो पृथ्वी पर राज करोगे, यदि इस युद्ध में मृत्यु भी पाते हो तो तुम्हे स्वर्ग की प्राप्ती होगी । इसलिए युद्ध का निश्चय कर सिद्ध हो जाओ ।’

श्रीकृष्णजी का यह वचन सुनकर अर्जुन रथ पर आरूढ होकर युद्ध के लिए सिद्ध हो गए । उन्होंने शंखध्वनि की और महायुद्ध आरंभ हुआ । तो, भगवान श्रीकृष्णजी ने बताए अनुसार, किसी भी कर्म के फल की अपेक्षा न करते हुए उचित कर्म करना चाहिए ।

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