आज की यह कहानी दीपावली से संबधित है । भागवत पुराण में बताए अनुसार, भगवान श्रीविष्णु ने वराह अवतार धारण कर भूमि देवता को समुद्र से निकाला था । इसके बाद भूमि देवता ने एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम भौम था । पिता एक परमदेव और माता पुण्यात्मा होने पर भी पर भौम क्रूर था, इसलिए उसका नाम भौमासुर पड गया । वह पशुओं से भी अधिक क्रूर और अधर्मी था । जैसे जैसे उसकी आयु बढ रही थी वैसेही उसकी क्रूरता भी प्रतिदिन बढती गई । वह सबको नरक जैसी यातनाएं देता था । उसकी इन्हीं करतूतों के कारण ही उसका नाम नरकासुर पड गया ।
नरकासुर प्रागज्योतिषपुर का राजा था । उसने ब्रह्माजी की घोर तपस्या कर के वर प्राप्त कर लिया था कि उसे कोई देव-दानव-मनुष्य कोई नहीं मार सकेगा । कुछ दिनों तक तो नरकासुर अच्छे से राज्य करता रहा, किन्तु कुछ समय बाद उसके सारे असुरी अवगुण उभरकर बाहर आ गए । उसने इंद्रदेव को हराकर उन्हें नगरी से बाहर निकाल दिया । नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्रस्त हो गए । नरकासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीन ली और त्रिलोक विजयी हो गया । उसने पृथ्वी की सहस्रों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाया और उनका शोषण करने लगा ।
नरकासुर के अत्याचार से त्रस्त हुए देवराज इंद्रदेव द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्णजी के पास गए । उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की, ‘‘हे श्रीकृष्ण ! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं । क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीन ली है । वह त्रिलोक विजयी हो गया है । भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं की अतिसुन्दर कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने बंदीगृह में डाल दिया है । प्रभु, अब आप ही हमारी रक्षा करें ।
भगवान श्रीकृष्णजी ने इंद्रदेव की प्रार्थना स्वीकार की । वे अपनी पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरुड पर सवार हुए और प्रागज्योतिषपुर पहुंचे । वहां पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य और उसके छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान तथा अरुण का संहार किया ।
मुर दैत्य का वध हो जाने का समाचार सुनकर भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला । भौमासुर को देव-दानव-मनुष्य नहीं मार सकता था; परन्तु उसे स्त्री के हाथों मरने का शाप था । इसलिए भगवान श्रीकृष्णजी ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध में सत्यभामा की सहायता से उसका वध किया । उसे मारकर श्रीकृष्णजी ने अपने माथे पर रक्त का तिलक लगाया । अंत समय में नरकासुर ने भगवान श्रीकृष्णजी से कहा , ‘आज के दिन जो कोई ब्राह्ममुहुर्त पर मंगल स्नान करेगा, उसे कोई भी दुःख नहीं होगा, ऐसा वचन मुझे दीजिए ।’ भगवान श्रीकृष्णजी ने उसे वैसा वर उसे दिया ।
इस प्रकार भौमासुर को मारकर भगवान श्रीकृष्णजीने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान दिया और उसे प्रागज्योतिष का राजा बनाया ।
भौमासुर के द्वारा हरण कर लाई गई १६ सहस्र कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया । ये सभी अपहृत कन्याए दुःखी और अपमानित थी ।
उस समय में भौमासुर द्वारा बंदी बनाई गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब भगवान श्रीकृष्णजी ने सभी को आश्रय दिया । उन सभी को श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारकापुरी ले आए । सर्व स्त्रियों ने भगवान श्रीकृष्ण की आरती उतारी । द्वारकानगरी में वे सभी कन्याएं स्वतंत्रता से अपनी इच्छानुसार सम्मानपूर्वक रहने लगी ।
नरकासुर वध का दिन कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी का था । इस दिन भगवान श्रीकृष्णजी ने नरकासुर का नाश किया इसलिए इसे ‘नरकचतुर्दशी’ कहते हैं । नरकासुर ने मांगे वर के अनुसार इस दिन ब्राह्ममुहूर्त पर अभ्यंग (मंगल) स्नान करने का महत्त्व है । इस दिन साथ ही नरकासुर के वध के प्रतीक के रूप में लोग पैर से कारीट नाम का फल कुचलते हैं ।