प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञ में राक्षस बाधा उत्पन्न करते थे । उस समय ऋषि विश्वामित्र बडा यज्ञ कर रहे थे तथा राक्षस उनके यज्ञ की अग्नि में मांस, रक्त आदि डालकर उसे अपवित्र कर देते थे । इसलिए महर्षि विश्वामित्र ने अयोध्या में राजा दशरथ से सहायता मांगी तथा यज्ञ की रक्षा के लिए उनके पुत्र प्रभु श्रीराम को साथ भेजने के लिए कहा । महाराज दशरथ की आज्ञा से प्रभु श्रीराम बंधु लक्ष्मण के साथ ऋषि विश्वामित्रजी के गुरुकुल पहुंचे । उन दोनों को महर्षि विश्वामित्र ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए ।
एक दिन ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर, अपने नित्यकर्म तथा सन्ध्या-उपासना पूरी करने के बाद राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के पास गए और उनसे बोले, गुरुदेव ! कृपा करके हमें यह बताइये कि दुष्ट राक्षस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये किस समय आते हैं । यह हम इसलिये जानना चाहते हैं कि यज्ञ की रक्षा में हम पूर्णतः सिद्ध हो जाएं । कहीं ऐसा न हो कि हमारे अनजाने में ही वे आकर उपद्रव मचाने लगें । राक्षस कब आते है यह जानकर हम सतर्क हो जाएंगे ।
राजा दशरथ के वीर पुत्रों की यह उत्साह से भरी बातों को सुनकर वहां पर उपस्थित सारे ऋषि-मुनि अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले, हे रघुकुल के भूषण राजकुमारों ! यज्ञ की रक्षा करने के लिए तुमको आज से छः दिन तथा रात्रि तक पूर्ण रूप से सावधान मुद्रा में और सजग रहना होगा । इन छः दिनों मे गुरु विश्वामित्र जी मौन रहकर यज्ञ करेंगे । इस समय में आपके किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे क्योंकि वे यज्ञ का संकल्प कर चुके हैं ।
छ: दिन और छ: रात्रि तक यज्ञ की रक्षा करने की यह सूचना मिलते ही राम और लक्ष्मण दोनों भाई अपने समस्त शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हो गए । पांच दिन और पांच रात्रि तक श्रीराम और लक्ष्मण निरन्तर बिना किसी विश्राम के सतर्कता के साथ यज्ञ की रक्षा करते रहे । इन पांच दिन तथा रात्रि में यज्ञ में किसी भी प्रकार की विघ्न अर्थात बाधा नहीं आई ।
छठवें दिन राम ने लक्ष्मण से कहा, भाई सौमित्र ! यज्ञ का आज अन्तिम दिन है और उपद्रव करने के लिए राक्षसों की आने की पूर्ण सम्भावना है । आज हमें विशेष रूप से सावधान रहने की आवश्यकता है । तनिक भी असावधान हो गए तो गुरुदेवजी का यज्ञ और हमारा सारा परिश्रम निष्फल और निरर्थक हो सकते हैं ।
राम ने लक्ष्मण को अभी सतर्क किया ही था कि उसी समय यज्ञ के लिए जो सामग्री, चमस, समिधा आदि आश्रम में रखे थे, वह अपने आप भभक उठे । अचानक आकाश से मेघों के गरजने की आवाज आने लगी । सैकडों बिजलियां तडकने की आवाज आने लगी । उसके बाद मारीच और सुबाहु की राक्षसी सेना यज्ञ के स्थान पर रक्त, मांस, मज्जा, अस्थियों आदि की वर्षा करने लगी । यज्ञ में बाधा आ रही है यह देखकर श्रीराम ने उपद्रवकारियों की ओर देखा । तब आकाश में मायावी राक्षसों की सेना को देख कर राम ने लक्ष्मण से कहा, ‘लक्ष्मण ! तुम धनुष पर शर-संधान करके सावधान हो जाओ । मैं मानव अस्त्र चलाकर इन महापापियों की सेना का अभी नाश कर देता हूं ।
यह कह कर राम ने अत्यंत फुर्ती और कुशलता का प्रदर्शन करते हुए उन पर मानवास्त्र छोडा । श्रीराम ने छोडा हुआ वह मानवास्त्र आंधी की गती से जाकर मारीच की छाती में लगा । अस्त्र के वेग के कारण मारीच उडकर चार सौ कोस दूर समुद्र के पार लंका में जा गिरा । इसके पश्चात् राम ने आकाश में आग्नेयास्त्र फेंका जिससे अग्नि की एक भयंकर ज्वाला निकली और उसने सुबाहु को चारों ओर से घेर लिया । इस अग्नि की ज्वाला ने क्षण भर में उस महापापी सुबाहु को जला कर भस्म कर दिया । जब उसका जला हुआ शरीर पृथ्वी पर गिरा तो एक बडे जोर का धमाका हुआ । उसके आघात से अनेक वृक्ष टूट कर भूमि पर गिर पडे । मारीच और सुबाहु पर आक्रमण समाप्त कर के राम ने बचे हुए राक्षसों का नाश करने के लिये वायव्य नामक अस्त्र छोड दिया । उस अस्त्र के प्रहार से राक्षसों की विशाल सेना के वीरों की मृत्यु होकर वे ओलों की भांति भूमि पर गिरने लगे ।
इस प्रकार थोडे ही समय में सम्पूर्ण राक्षसी सेना का नाश हो गया । चारों ओर राम की जय जयकार होने लगी तथा पुष्पों की वर्षा होने लगी ।
निर्विघ्न यज्ञ समाप्त करके मुनि विश्वामित्र यज्ञ वेदी से उठे और राम को हृदय से लगा कर बोले, ‘हे रघुकुल नंदन ! तुम्हारे बाहुबल के प्रताप और युद्ध कुशलता से आज मेरा यज्ञ सफल हो गया है । उपद्रवी राक्षसों का विनाश करके तुमने वास्तव में आज सिद्धाश्रम को कृतार्थ कर दिया ।’