बहुत वर्ष पूर्व ऋषि-मुनी भगवान को पाने के लिए कठोर तपस्या करते थे । यह तपस्या कैसी रहती थी ? एक पांव पर खडे होकर नमस्कार की मुद्रा में भगवान का नामजप करना, पानी में नमस्कार की मुद्रा में खडे रहकर अखंड भगवान का नामजप करना, हिमालय जैसे पर्वत पर जाकर अत्यंत ठंड में एक ही जगह अनेक वर्षाें तक बैठकर नामजप करना इस प्रकार तपस्या की जाती थी । तपस्या के समय न कुछ खाया जाता था, न ही पानी पीया जाता था । इसी प्रकार कठोर तपस्या करने के बाद भगवान भक्त पर प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देते थे ।
इसी प्रकार भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए माता पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी । तपस्या के समय वह भगवान के चिंतन में ध्यानमग्न बैठी थी । उनकी तपस्या पूर्ण ही होनेवाली थी कि उसी समय उन्हें एक बालक के डुबने की चीख सुनाई दी । माता तुरंत उठकर वहां पहुंची । उन्होंने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के अंदर खींच रहा है ।
वह बालक अपने प्राण बचाने के लिए प्रयास कर रहा था, तथा मगरमच्छ उसे खाने का प्रयास कर रहा था । अत्यंत करुणामयी माता पार्वती को बालक पर दया आई । माता ने मगरमच्छ से निवेदन करते हुआ कहा, ‘‘बालक को छोड दो, इसे आहार न बनाओ ।’’ उस पर मगरमच्छ बोला, ‘‘माता यह मेरा आहार है, मुझे हर छठे दिन भूख मिटाने के लिए जो पहले मिलता है, वह मेरा आहार होता है । मेरा आहार ब्रह्मा ने निश्चित किया है ।’’ माता पार्वती ने फिर कहा, ‘‘आप इसे छोड दे । इसके बदले मैं अपनी तपस्या का फल आपको दूंगी ।’’ पार्वती माता ने बालक के प्राणों की रक्षा के लिए अपने कठोर तपस्या का फल दांव पर लगाया । मगरमच्छ ने भी उसे स्वीकार किया । पार्वती माता ने उसी समय संकल्प किया और अपनी पूरी तपस्या का पुण्यफल उस मगरमच्छ को दे दिया ।
मगरमच्छ को माता के तपस्या का फल प्राप्त होने के कारण वह सूर्य के जैसे चमक उठा । उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो गई । उसने कहा, ‘‘माता आप अपना पुण्य वापस ले लें । मैं इस बालक को छोड दूंगा ।’’ माता ने तो वचन दिया था, इसलिए उन्होंने तपस्या का फल वापस लेने से मना कर दिया । और वह बालक को गोद में लेकर ममता से दुलारने लगी । बाद में माता ने उस बालक को उसके घर सुरक्षित लौटा दिया और वे अपने स्थान पर वापस आ गई । भगवान शिवजी को प्राप्त करने हेतु उन्होंने पुनः तप करना आरम्भ किया । उसी समय भगवान शिवजी माता पार्वती के सामने प्रकट हो गए । भगवान शिवजी उन्हें बोले, ‘‘पार्वती, अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नही है । हर प्राणी में मेरा ही वास है, तुमने उस मगरमच्छ को अपने तप का जो फल दिया वह मुझे ही प्राप्त हुआ । इसलिए तुम्हारे तप का फल अनंत गुना हो गया है । तुमने करुणा और ममता से द्रवित होकर बालक की रक्षा की । इसलिए मैं तुम पर प्रसन्न हूं और तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारता हूं ।’’
कथा का सारांश यही है कि जो अन्यों के हित की कामना करता है, उसपर भगवान की असीम कृपा होती है । जो जीव असहायों की सहायता करता है, जो दयालु और करुणाकारी होता है, भगवान उसे स्वीकार करते हैं । इससे हमें यह सीख मिलती है कि हम स्वार्थ का त्याग कर निस्वार्थ रूप से भक्ति करेंगे तो भगवान की प्राप्ति होती है । इस प्रसंग से शिक्षा लेकर हम सभी भगवान की निस्वार्थ भक्ति करेंगे ।