आज हम त्रिपुरारी पूर्णिमा से जुडी त्रिपुरासुर के वध की कथा सुनते है । भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया था । उसके बाद तारकासुर के तीन पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का निश्चय कर लिया । तीनों असुरों के नाम थे – तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली । देवताओं को पराजित करने के उद्देश्य से तीनों तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए । उन्होंने हजारों वर्ष तक अत्यंत कठोर तप किया । उनके कठोर तप से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और उनके सामने प्रकट हो गए । तीनों ने ब्रह्माजी का वंदन किया और कहा, ‘‘ब्रह्माजी हमने आपको प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया है । आप हमें अमरता का वरदान दें ।’’ तब ब्रह्माजी बोले, ‘‘मैं आपको अमरता का वरदान नहीं दे सकता; परन्तु तुम कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो, जिसके पूर्ण होने पर ही आपकी मृत्यु होगी । उसका वरदान मैं तुम्हें दे सकता हूं ।’’
तीनों ने बहुत विचार किया और ब्रह्माजी से वरदान मांगा, ‘‘हे प्रभु ! आप हमारे लिए तीन तारों पर तीन नगरों का निर्माण करें । वे तीनों तारें अर्थात नगर जब अभिजित नक्षत्र में एक पंक्ति में आएंगे और उसी समय कोई व्यक्ति अत्यंत शांत अवस्था मे हमें मारेगा, तभी हमारी मृत्यु होगी और हमें मारने के लिए उस व्यक्ति को एक ऐसे रथ और बाण की आवश्यकता होगी जो बनाना असंभव हो । केवल उससे ही हमारी मृत्यु हो ।’’ उनकी इच्छा सुनकर ब्रह्माजी ने कहां, ‘‘तथास्तु ! आप तीनों के इच्छा के अनुसार ही होगा ।’’
तीनों असुरों को मिले वरदान के अनुसार ब्रह्माजी ने उन्हें तीन तारों पर तीन नगर निर्माण करने के लिए विश्वकर्माजी को आज्ञा दी । विश्वकर्माजी ने तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण कर दिया । ब्रह्माजीसे वरदान प्राप्त होने के बाद तीनों असुर उन्मत्त हो गए । उन्होंने सातों लोकों में आतंक मचाया । इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था । त्रिपुरासुर जहां भी जाते वहां सज्जनों को सताते रहते । उन्होंने देवताओं को भी देवलोक से बाहर निकाल दिया ।
त्रिपुरासुर के आतंक से त्रस्त होकर उन्हें हराने के लिए सभी देवता एकत्रित हुए । सभीने अपना सारा बल लगाया, परन्तु त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके । अंत में सभी भगवान शिवजी के शरण में गए । देवताओं ने कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी को पूरा वृत्तांत बताया । तब भगवान शंकर ने कहा, ‘‘आप सभी देवता मिलकर प्रयास करें ।’’ देवताओं ने कहा, ‘‘प्रभु, हम सभी ने मिलकर त्रिपुरासुर का वध करने का प्रयास किया, परंतु कुछ नही कर पाएं । हम आपकी शरण में आए है । आप ही हमारी रक्षा कर सकते है ।’’ तब शिवजीने कहा, ‘‘मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं । इस बल की सहायता से प्रयास करके देखो ।’’ शिवजीने अपना आधा बल देवताओं को दिया; परन्तु देवता उनका आधा बल सहन नही कर पाएं । तब शिवजी ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया ।
अब त्रिपुरासुर का वध करने के लिए रथ और धनुष बाण सिद्ध करना आवश्यक था । भगवान शिवजीने पृथ्वी को ही उनका रथ बनाया । सूर्य और चन्द्रमा को उस रथ के पहिए बनाए । सृष्टा सारथी बने, भगवान विष्णु बाण बनें, मेरू पर्वत धनुष और वासुकी बने उस धनुष की डोर । सभी देवताओं ने अपने बल से वह रथ संभाल लिया । इस प्रकार असंभव रथ सिद्ध हुआ ।
भगवान शिवजी उस रथ पर सवार हुए, उनकी शक्ति के कारण वह रथ भी डगमगाने लगा । तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जुडे । घोडों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगरों को देखा । अपने धनुष्य पर बाण रख उन्होंने पाशुपत अस्त्र का संधान किया और तीनों तारों को (नगरों) को एक पंक्ति में आने का आदेश दिया ।
अभिजित नक्षत्र में तीनों नगर एक पंक्ति में आते ही भगवान शिवजी ने अपने बाण से तीनों नगरों को जलाकर भस्म कर दिया । इसमें तीनों आसुरों का भी अन्त हो गया । तभी से भगवान शिवजी त्रिपुरांतक बन गए । त्रिपुरांतक का अर्थ है – तीन पुरों का अर्थात नगरों का अंत करनेवाले ।
भगवान शिवजी ने जिस दिन त्रिपुरासुर का वध किया वह दिन था कार्तिक पूर्णिमा । इस पूर्णिमा को ‘त्रिपुरारी पूर्णिमा’ भी कहते है । इस दिन घर में, घर के बाहर और मंदिरों में दीयों की आरास बनाकर उनकी पूजा की जाती है और आनंदोत्सव मनाया जाता है ।