अनेक वर्ष पूर्व की कहानी है । एक राजा था, जिसका नाम रामधन था । उसके राज्य का कामकाज आराम से चल रहा था ।
राजा के नैतिक गुणों के कारण प्रजा भी प्रसन्न थी । जिस राज्य में प्रजा संतुष्ट होती है, वह राज्य प्रत्येक क्षेत्र में आगे होता है ।
राजा के जीवन में सभी सुख थे परन्तु सारे सुख होने के बाद भी राजा दुःखी था, क्योंकि राजा की कोई संतान नहीं थी । प्रजा को भी इस बात का दुःख था । कुछ वर्षों के बाद राजा को एक पुत्र हुआ । पुरे नगर में कई दिनों तक आनंद उत्सव मना । नागरिकों के लिए राजमहल में भव्य भोज का आयोजन हुआ । राजा के आनंद में प्रजा भी आनंदित थी ।
राजा ने राजकुमार का नाम नंदनसिंह रखा । उसे बडेे लाड प्यार से रखा जाता । अत्यधिक लाड-प्यार ने नंदनसिंह को बिगाड दिया था । वह अत्यंत जिद्दी हो गया था । उसके मन में अहंकार था । वह चाहता था कि प्रजा सदैव उसकी जयजयकार करे और उसकी प्रशंसा करें । यदि कोई उसकी बात नहीं सुनता तो वह कोलाहल मचा देता था । वह स्वयं को भगवान ही समझता था ।
नंदन के इस व्यवहार से सभी अत्यंत दुःखी थे । राजा के दरबार में प्रजाजन नंदन की शिकायत लेकर आते, जिसके कारण राजा का सिर लज्जा से झुक जाता था । एक दिन राजा ने विशेष मंत्रियों की सभा बुलाई । राजा ने कहा कि वह राजकुमार के व्यवहार से अत्यंत दुःखी है । राजकुमार इस राज्य का भविष्य है, यदि उनका व्यवहार ऐसा ही रहा तो राज्य की खुशहाली कुछ दिनों में ही चली जाएगी । मंत्रियों ने राजा को हिम्मत रखने के लिए कहा । एक मंत्री ने सुझाव दिया कि राजकुमार को योग्य मार्गदर्शन और सामान्य जीवन का अनुभव होना आवश्यक है । आप उन्हें गुरु राधागुप्त के आश्रम भेज दीजिए । गुरु राधागुप्त अत्यंत योग्य और आवश्यक शिक्षा देते है । राजा को यह सुझाव अच्छा लगा । अगले दिन राजा अपने पुत्र के साथ गुरु राधागुप्त जी के आश्रम पहुंचे । राजा ने उन्हें राजकुमार नंदन के विषय में सारी बातें बताई । गुरुदेव जी ने राजा को आश्वस्त किया कि जब वे शिक्षा पूरी होनेपर अपने पुत्र से मिलेंगे तब उन्हें अपने पुत्र पर अभिमान होगा । गुरुजी के ऐसे शब्द सुनकर राजा संतुष्ट हुए और अपने पुत्र को आश्रम में छोडकर राजमहल लौट गये ।
अगली सुबह गुरुदेव जी ने अपने एक शिष्य को एक संदेश देकर नंदन के पास भेजा । शिष्य ने नंदन को बताया कि स्वयं के भोजन के लिए भिक्षा मांगकर लानी है । यह सुनकर नंदन ने उसे मना कर दिया । शिष्य ने उससे कहा कि यदि पेट भरना है, तो भिक्षा मांगनी होगी और भिक्षा भी केवल शाम तक ही मांगनी है, अन्यथा भूखा रहना पडेगा । नंदन ने अपनी अकड में उसकी बात नहीं मानी । शाम होते होते नंदन को भूख लगने लगी; परन्तु भिक्षा न लाने के कारण वह भोजन नहीं कर पाया ।
भूख मिटाने की आवश्यकता जानकर दुसरे दिन से उसने भिक्षा मांगना आरंभ किया । पहले पहले उसके अयोग्य बोल के कारण उसे कोई भिक्षा नहीं देता था, परन्तु गुरुकुल में सभी के साथ बैठने पर उसे आधा पेट भोजन मिल जाता था । धीरे धीरे उसे सभी से अच्छे से बात करने का, मीठे बोल बोलने का महत्व समझ में आने लगा । एक माह के बाद नंदन को भरपेट भोजन मिला, जिसके बाद उसके व्यवहार में बहुत सारे परिवर्तन आए । इसी प्रकार गुरुकुल के एक-एक नियम के अनुसार आचरण करने के कारण राजकुमार नंदन में अच्छा परिवर्तन होने लगा । राजकुमार में हो रहे ये परिवर्तन गुरु राधागुप्त ध्यान से देख रहे थे ।
एक दिन सवेरे गुरु राधागुप्तजी ने नंदन को अपने साथ सैर पर चलने के लिए कहा । दोनों सैर पर निकल गए । मार्ग मे उन्होंने अनेक विषयों पर चर्चा की । गुरुजी ने नंदन से कहा, ‘‘नंदन तुम बुद्धिमान हो और तुममें अधिक उर्जा है, जिसका तुम्हें उचित दिशा मे उपयोग करना चाहिए । दोनों चलते-चलते एक सुंदर बाग में पहुंचे । बाग में अनेक सुंदर-सुंदर फूल खिले थे, जिनसे बाग महक रहा था । गुरुजी ने नंदन से कहा कि पूजा के लिए गुलाब के फुल तोडकर लाए । नंदन ने झट से सुंदर सुंदर गुलाब तोडकर लाए और अपने गुरुदेवजी के सामने रख दिए । अब गुरुदेवजी ने उसे नीम के पत्ते तोडकर लाने के लिए कहा । नंदन वह भी ले आया । उसके बाद गुरुदेवजी ने उसे एक गुलाब सुंघने को कहा और पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे लगा ?’’ नंदन ने गुलाब को सुंघकर उसकी प्रशंसा की । बाद में गुरुजी ने उसे नीम के पत्ते चखकर उसके बारे में पूछा । जैसे ही नंदन ने नीम के पत्ते खाए उसका मुंह कडवा हो गया और उसने नीम के पत्तों की निंदा की और पीने का पानी ढूंढने लगा ।
नंदन की ऐसी स्थिती देखकर गुरुदेवजी हसें । पानी पीने के बाद नंदन शांत हुआ । उसने गुरुदेवजी से हंसने का कारण पूछा ।
तब वे बोले, ‘‘बेटा नंदन, जब तुमने गुलाब का फुल सुंघा तो तुम्हें अच्छा लगा और तुमने उसकी प्रशंसा की, परन्तु जब नीम की पत्तियां खाईं, तो वह कडवी होने के कारण तुमने उसकी निंदा की । गुरुदेवजी ने नंदन को समझाया कि जिस प्रकार तुम्हें जो अच्छा लगता हैं, तुम उसकी प्रशंसा करते हो । उसी प्रकार प्रजा भी जिसमें गुण होते है, उसी की प्रशंसा करती है । यदि तुम उनके साथ अयोग्य व्यवहार करोगे और उनसे प्रशंसा की आशा करोगे, तो वे तुम्हारी प्रशंसा मन से नही कर पाएंगे । जहां गुण होते है, वहां प्रशंसा होती है ।’’
अब राजकुमार नंदन को पूरी बात विस्तार से समझ आई और वह शिक्षा लेकर अपने महल लौट गया । नंदन में अच्छा परिवर्तन होने के कारण उसमें गुण बढ गए और वह एक यशस्वी राजा बन गया । गुरुदेवजी की सीख के अनुसार आचरण करने के कारण नंदन का जीवन ही बदल दिया । वह एक क्रूर राजकुमार से एक न्यायप्रिय, दयालु राजा बन गया ।