ब्रह्माजी की मानसपुत्री थी जिसका नाम अहिल्या था । ब्रह्माजी ने अहिल्या को सबसे सुंदर स्त्री बनाया था । सभी देवता उनसे विवाह करना चाहते थे । अहिल्या से विवाह करने के लिए ब्रह्माजी ने एक शर्त रखी । जो सबसे पहले त्रिलोक का भ्रमण कर आएगा वही अहिल्या का वरण करेगा, ऐसे उन्होंने कहां ।
देवराज इंद्र अपनी सभी शक्ति के द्वारा सबसे पहले त्रिलोक का भ्रमण कर आए । परंतु तभी देवर्षि नारदने ब्रह्माजी को बताया की ऋषि गौतमने इंद्र से पहले त्रिलोक का भ्रमण किया है । नारदजीने ब्रह्माजी को बताया, ‘‘हे ब्रह्मदेव, ऋषि गौतमने अपने दैनिक पूजा क्रम में गौमाता की परिक्रमा की है । उस समय गौमाता बछडे को जन्म दे रही थी । वेदों के अनुसार इस अवस्था में गाय की परिक्रमा करना त्रिलोक परिक्रमा समान होता है ।’’ देवर्षि नारदजी की यह बात योग्य थी । इसलिए ब्रह्माजीने इंद्र को छोड देवी अहिल्या का विवाह अत्रि ऋषि के पुत्र ऋषि गौतम से कराया । परंतु इंद्र के मन मे देवी अहिल्या को पाने की इच्छा वैसीही थी ।
एक दिन गौतम ऋषि आश्रम के बाहर गए थे । उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम ऋषि के वेश धारण किया और उन्होंने अहिल्या से प्रणय याचना की । इस समय देवी अहिल्याने गौतम ऋषि के वेश में आए इन्द्र को पहचान लिया था । इसलिए अहिल्याने मना कर दिया । इन्द्र अपने लोक लौट रहे थे, तभी ऋषि गौतम भी अपने आश्रम वापस आ रहे थे । इस समय गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पडी जिसने उन्हीं का वेश धारण किया हुआ था । यह देख गौतम ऋषि क्रोधित हुए और उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया । इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी को भी शाप दिया । ऋषिने कहां, ‘‘तुम सहस्रों वर्षों तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहां राख में पडी रहोगी । जब प्रभु श्रीराम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तुम्हारा उद्धार होगा ।
उनके चरणों का स्पर्श होने पर ही तुम अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकोगी ।’’ यह कह कर गौतम ऋषि आश्रम को छोडकर हिमालय पर्वत पर तपस्या करने के लिए गए ।
गौतम ऋषि के शाप के कारण देवी अहिल्या पत्थर की शिला बन गई । सहस्रों वर्ष बीतने के बाद प्रभु श्रीरामजी का जन्म हुआ । युवा अवस्था में महर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से प्रभु श्रीरामजी और लक्ष्मणने ताडका राक्षसी का वध किया । ताडका वध के बाद वे यज्ञ के लिए आगे बढ रहे थे । तब प्रभु की दृष्टी उस विरान कुटिया पर पडी और वे वहां रुक गए । उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से पूछा, ‘‘हे गुरुवर ! यह कुटिया किसकी है ? ऐसा लगता है की कोई युगों से यहां पर आया नही है । कोई पशु पक्षी भी यहां दिखाई नहीं पडता । इस जगह का रहस्य क्या है । तब महर्षि विश्वामित्र कहते है, ‘‘हे राम, यह कुटिया तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही हैं । यहां बनी वह शिला तुम्हारे चरणों की धूल के लिए युगों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं ।’’ श्रीरामजी पूछते है, ‘‘कौन है यह शिला ? और मेरी प्रतीक्षा क्यों कर रही है । महर्षि विश्वामित्र श्रीरामजी और लक्ष्मण को देवी अहिल्या के जीवन की पूरी कथा सुनाते हैं ।
कथा सुनने के बाद प्रभु श्रीरामजी अपने चरणों से शिला को स्पर्श करते है । देखते ही देखते वह शिला एक सुंदर स्त्री में बदल जाती है और प्रभु श्रीरामजी को वंदन करती है । देवी अहिल्या श्रीरामजी से निवेदन करती है, ‘‘प्रभु आपके चरणस्पर्श से पावन होकर मेरा उद्धार हुआ है, इसके लिए आपके चरणों में वंदन करती हूं । प्रभु मै चाहती हूं की मेरे स्वामी ऋषि गौतम मुझे क्षमा करें और पुनः अपने जीवन में मुझे स्थान दे ।’’ प्रभु श्रीराम अहिल्या से कहते है, ‘‘देवी, जो हुआ उसमें आपकी लेशमात्र भी गलती नही थी और ऋषि गौतम भी अब आपसे क्रोधित नही है; अपितु वो भी आपसे विरह होने के कारण दुःखी है ।’’ देवी अहिल्या पुन: प्रभु श्रीरामजी को प्रणाम करती है । अहिल्या अपने स्वरूप में वापस आते ही कुटिया में बहार आ जाती हैं और पुनः पंछी चहचहाने लगते है ।