रावण के भाई विभीषण के रोकने के बाद भी रावण ने हनुमानजी की पूंछ पर रुई लगाकर उसे जला दिया था । जिससे रावण की पूरी लंका भस्मसात हो गई थी । उस भयंकर आग से केवल रावण के भाई विभीषण का भवन ही बच गया था । क्योंकी विभीषण धर्मनिष्ठ और नीतिवान थे । भलेही वे राक्षस कुल में जन्में थे; परन्तु वे सदाचारी और धर्म के नियमों का पालन करते थे ।
रावण के साथ युद्ध करने प्रभु श्रीरामजी वानर सेना के साथ लंका पहुंचे । तब विभीषण ने रावण को धर्म के अनुसार आचरण कर माता सीता को मुक्त करने के लिए कहा । परंतु अधर्मी रावणने विभीषण का कहना न मानकर उसका अपमानही किया ।
रावण से अपमानित होकर विभीषण दु:खी हुए । वह शिघ्रता से अपने चार अतिपराक्रमी साथियों के साथ आकाशमार्ग से उस स्थान पर पहुंचे जहां लक्ष्मण सहित प्रभु श्रीरामजी थे ।
बुद्धिमान महापुरुष विभीषण ने आकाश में ही स्थित रहकर सुग्रीव तथा अन्य वानरों की ओर देखते हुए नम्रतापूर्वक कहां, ‘‘हे वानरराज ! मैं लंका के राजा रावण का छोटा भाई विभीषण हूं । मैं रावण के उस कुकृत्य से सहमत नहीं हूं, जो उसने सीताजी का हरण करके किया है । मैंने उसे सीताजी को लौटाने के लिए अनेक प्रकार से समझाया परन्तु उसने मेरी बात न मान कर मुझे अपमानित किया और मुझे लंका से निष्कासित कर दिया । इसलिए मैं यहां श्रीरामचन्द्र जी की शरण में आया हूं । कृपया आप उन्हें मेरे आगमन की सूचना दें ।’’
विभीषण की बात सुनकर सुग्रीव ने प्रभु श्रीरामजी के पास जाकर कहा, ‘‘हे राघव ! रावण का छोटा भाई विभीषण अपने चार मन्त्रियों सहित आपके दर्शन करना चाहता है । यदि आपकी अनुमति हो तो उन्हें यहां उपस्थित करूं । किन्तु मेरा विचार है कि हमें शत्रु पर सोच-समझ कर ही विश्वास करना चाहिए । एक तो राक्षस वैसे ही क्रूर, कपटी और मायावी होते हैं, और यह तो रावण का सगा भाई है । ऐसी स्थिति में तो वह बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं है । किन्तु आपकी जैसी आपकी आज्ञा हो, वैसा करूं ।’’
सुग्रीव के तर्क सुनकर प्रभु रामचन्द्र जी बोले, ‘‘हे वानरराज ! आपकी बात सर्वथा युक्तिसंगत और हमारे हित में है, परन्तु राजाओं के दो शत्रु होते है । एक तो उनके कुल के व्यक्ति और दूसरे उनके राज्य के सीमा के निकट शासन करने वाले अर्थात पडोसी शासक । ये दोनों उस समय किसी राज्य पर आक्रमण करते हैं, जब राजा किसी व्यसन अथवा विपत्ति में फंसा हुआ होता है । विभीषण अपने भाई को विपत्ति में पडा देखकर हमारे पास आया है । वह हमारे कुल का नहीं है । हमारे विनाश से उसे कोई लाभ नहीं होगा । यदि हमारे हाथों से रावण मारा जाएगा तो वह लंका का राजा बन सकता है । इसलिए यदि वह हमारी शरण में आता है तो हमें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए । शरणागत की रक्षा न करने से बडा पाप लगता है । इसलिए शरण आए विभीषण को अभय प्रदान करना ही उचित है । इसलिए आप उसे मेरे पास ले आओ ।’’
जब सुग्रीव विभीषण को लेकर प्रभु श्रीरामजी के पास आया, तो विभीषणने दोनों हाथ जोडकर कहां, ‘‘हे धर्मात्मा, मैं लंकापति रावण का छोटा भाई विभीषण हूं । आप शरणागतवत्सल है । इसलिए आप मेरा उद्धार कीजिए ।’’ विभीषण के वचन सुनकर प्रभु श्रीरामजी ने उसे गले से लगाते हुए कहां, ‘‘हे विभीषण ! मैंने तुम्हें स्वीकार किया । अब तुम मुझे राक्षसों का बलाबल बताओ ।’’ श्रीरामजी का प्रश्न सुनकर विभीषण बोला, ‘‘हे दशरथनन्दन ! दस मुखोंवाले रावण को ब्रह्माजी से वर मिला है । इस कारण देव, दानव, नाग, किन्नर आदि कोई भी उसे नहीं मार सकते । उसका छोटा भाई कुम्भकर्ण, पराक्रमी, शूरवीर तथा तेजस्वी है । उसके सेनापति प्रहस्त ने कैलाश पर्वत पर दुर्दमनीय मणिभद्र को पराजित किया था । रावण के पुत्र मेघनाद ने तो इन्द्र को परास्त किया था । मेघनाद का भाई पराक्रमी राक्षस है । सभी युद्ध कौशल में निपुण है ।
यह सुनकर श्रीरामजी बोले, ‘‘हे विभीषण ! यह सब मैं जानता हूं । मै प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं रावण का उसके पुत्रों, मन्त्रियों और योद्धाओं सहित वध करके तुम्हें लंका का राजा बनाऊंगा । अब रावण की मृत्यु निश्चित है । यह मेरी अटल प्रतिज्ञा है । श्री रामचन्द्र जी की प्रतिज्ञा सुनकर विभीषण ने उनके चरण स्पर्श किया और कहां, ‘‘हे राघव ! मैं भी आपके चरणों की शपथ लेकर प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं रावण को उसके वीर योद्धाओं सहित मारने में आपकी सहायता करूंगा ।’’
विभीषण की प्रतिज्ञा सुनकर प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने भ्राता लक्ष्मण से समुद्र का जल मंगवाया । उस जलसे विभीषण का अभिषेक किया और सम्पूर्ण सेना में घोषणा करा दी कि आज से महात्मा विभीषण लंका के राजा हुए ।