बच्चो, दिनभर में हमसे हुई चूकें स्वभावदोष-निर्मूलन सारणी में समय-समय पर लिखनी होती है । प्रथम हम समझ लेते हैं कि चूकों का क्या अर्थ है । कभी-कभी हम ऐसा कुछ कह देते हैं, जिससे किसीका अपमान हो जाता है अथवा हमसे निरर्थक हठ करने जैसी कोई अनुचित क्रिया होती है । इन्हीं चूकों के समान मन में अनुचित विचार, प्रतिक्रियाएं अथवा भावनाएं उत्पन्न होना भी चूक ही है, उदा. दूसरे के प्रति मन में द्वेष की भावना उत्पन्न होना । अब हम देखते हैं कि इन चूकों को कैसे ढूंढें ।
१. अपनी चूकें ढूंढने का अभ्यास करें !
दैनिक व्यवहार करते समय यदि हम ‘मुझे मेरी चूकें ढूंढनी ही हैं’ ऐसा दृढ निश्चय कर सतर्क रहेंगे, तो हमें अपनी अधिकतर चूकें ध्यान में आ जाती हैं ।
२. ‘चूक में मेरा कितना सहभाग था’, ऐसा संकीर्ण विचार न करें !
कभी-कभी हम चूक स्वीकारते हैं परन्तु उसे स्वीकारते समय कुछ बच्चे विचार करते हैं कि ‘चूक में मेरा सहभाग अत्यल्प था । बच्चो, हममें सुधार होनेकी दृष्टि से इस विचार भी हानिकारक है । किसी भी चूकमें स्वयंका अल्पसा सहभाग होने पर भी उसका पूर्ण दायित्व लेकर चूक स्वीकारनी चाहिए ।
३. अपनी चूकें ध्यान में आने के लिए अन्यों की सहायता लें !
बच्चो, कभी-कभी हमें अपनी चूकें ध्यानमें नहीं आती । इसलिए अपने माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-परिवार इत्यादि से अनुरोध करें कि वे चूकें ध्यान में लाकर दें ।
अ. अन्योंद्वारा ध्यानमें लाई गई चूक प्रथम स्वीकार करें
कभी-कभी कुछ बच्चे माता-पिता अथवा अन्योंद्वारा किसी चूक की ओर ध्यान में दिलाने पर उसे स्वीकार नहीं करते। उसी प्रकार ‘यह चूक मैंने नहीं, अपितु दीदी ने (अथवा भैयाने) की’, ऐसा कहकर अपनी चूक का दायित्व दूसरे पर लादते हैं । इससे उनमें बहिर्मुखता (दूसरों में अथवा परिस्थिति में दोष देखने की वृत्ति) उत्पन्न होकर उनकी ही हानि होती है । चूक स्वीकार न करने से जिस दोष के कारण चूक हुई है, वह दोष दूर करने के लिए कोई प्रयास नहीं होते । इसके विपरीत अन्योंद्वारा बताई गई चूक का अन्तर्मुख होकर (मुझमें क्या न्यूनता है इसकी ओर ध्यान देने की वृत्ति) स्वीकार करनेवाले बच्चे ‘वह चूक क्यों और कैसी हुई’, इसका अध्ययन करते हैं । इस कारण उनसे चूक सुधारने के लिए अच्छे प्रयास होते हैं एवं उनके स्वभावदोष शीघ्र दूर होते हैं ।
आ. दूसरे की चूक बताने की पद्धति पर ध्यान दिए बिना चूक को स्वीकार करें
बच्चो, कभी-कभी दीदी (अथवा भैया) आपकी चूक बताते हैं; परन्तु उनका स्वर ऊंचा (क्रोधभरा) होता है । उस समय
आपको मन ही मन यह स्वीकार होता है कि आपसे चूक हुई है, परन्तु दीदी की बताने की पद्धति आपको अच्छी नहीं लगती इसलिए आप उनके द्वारा बताई चूक नहीं स्वीकारते । परन्तु ऐसा करना उचित नहीं है । दीदीकी (अथवा भैया की) बात करने की पद्धति की ओर ध्यान न देकर उनके द्वारा बताई चूक स्वीकार करें ।
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘स्वभावदोष दूर कर आनन्दी बनें !’