सारिणी
- १. राणाको सरल(मवाळ) कार्यके प्रति रुचिका अभाव !
- २. राष्ट्राभिमानियोेंके लिए आर्थिक सहायता !
- ३. पेरिसमें किया गया कार्य
- ४. स्टटगार्टमें भी प्रतिनिधित्व
- ५. समाचारपत्रोंके संपादकोंको फटकारनेवाले राणा !
- ६. स्वतंत्रता समर उत्सव
- ७. संयोग
‘भारतकी स्वतंत्रता प्राप्तिके लिए परदेशमें रहकर कार्य करनेवाले अनेक देशभक्त हुए हैं । किंतु परदेशमें किए देशकार्यका फल उन्हें प्राप्त हुआ क्या ?, स्वतंत्रता प्राप्तिके पश्चात देशभक्त जीवित हैं क्या ? उनका परिवार कौनसा है अथवा अपने स्वदेशप्रेमकी निरंकुश भावनाओंको नियंत्रणमें रखते हुए उन्होंने पराई भूमिपर किस प्रकार आयु व्यतीत की ? इसकी पूछ-ताछ करना तो दूरकी बात; परंतु सत्तामें आए कांग्रेस शासनने उनके अस्तित्वकी ओर भी ध्यान नहीं दिया । अतएव स्वतंत्रता प्राप्तिके लिए प्रार्णापण करनेवाले, विपत्तियोेंका सामना करनेवाले अथवा अधिक समय कारावासमें व्यतीत करनेवाले सहस्रों ज्ञात-अज्ञात क्रांतिवीर पटके (पर्देके) पीछे ही रह गए । यही परिस्थिति परदेशमें रहनेवाले देशभक्तोेंकी भी हुई । पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा, डॉ. पांडुरंग सदाशिव खानखोजे, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय और लाला हरदयाल जैसे देशभक्तोंको दीर्घकालतक निर्वासित नामसे परदेशमें रहना पडा ! इन देशभक्तोंमेंसे एक देशभक्त थे बैरिस्टर सरदारसिंंह राणा !
बैरिस्टर सरदारसिंह रेवाभाई राणाका पूर्वायुष्य और अंतिम कालकी जानकारी उपलब्ध नहीं है । लंडन और पेरिसमें रहकर उन्होंने जो देशकार्य किया, उसके प्रति प्राप्त जानकारी अपूर्ण ही है । किंतु उस जानकारीके अनुसार उनकेद्वारा किए गए कार्यका महत्त्व अनमोल रहा है । स्वतंत्रताके युद्धमें बैरिस्टर. राणाद्वारा दिए गए योगदानका विस्मरण नहीं होना चाहिए, साथ ही नई पीढी क्रांतिकारियोंके आदर्शोंका भी जतन करे, अभ्यास करे और उसके अनुसार आचरण करे, उनका परिचय देनेकी पाश्र्वभूमिमें यही उद्देश्य है ।
१. राणाको सरल(मवाळ) कार्यके प्रति रुचिका अभाव !
सौराष्ट्रके कंठरिया नामक गांवमें १२.४.१८७० को एक छोटे; परंतु प्राचीन देशी नरेशके वंशमें सरदारसिंंह राणाका जन्म हुआ । सन १८९८ में ‘बैरिस्टर’की शिक्षाके लिए वे लंडन गए । लंडनमें चल रहे राजकीय कार्यमें भाग लेने हेतु वे पहले दादाभाई नौरोजीके ‘लंडन इंडियन सोसाइटी’के आजीवन सभासद हुए और ‘ब्रिटिश कांग्रेस कमिटी’में कार्य करने लगे । परंतु इस नरम/सरल कार्यमें उन्हें कोई भी रुचि नहीं थी; इसलिए कदाचित वे अधिक समयतक रस न ले सके; साथ ही लंडनमें पंडित श्यामजी कृष्ण वर्माके साथ उनका परिचय हुआ और श्यामजीके उग्र राष्ट्रीय विचारप्रणालीके साथ वे पूरीतरह सहमत एवं समरस हुए । १८.२.१९०५ को पं. श्यामजीने स्वयं अपनी अध्यक्षतामें ‘होमरूल सोसाइटी’की स्थापना की । उपाध्यक्षके स्थानपर बैरिस्टर राणा तथा कार्यवाहके स्थानपर जे.सी. मुखर्जी कार्यभार संभालने लगे । बैरिस्टर राणाने स्पष्ट रूपसे राजकीय कार्य आरंभ किया । पेरिसमें उनका हीरेमोतियोंका व्यवसाय था ।
२. राष्ट्राभिमानियोेंके लिए आर्थिक सहायता !
बैरिस्टर राणाने दिसंबर १९०५ में ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’की पत्रिकामें प. वर्माकी तरह भारतीय विद्यार्थियोेंके लिए एक पत्र लिखकर राणा प्रतापसिंह तथा छत्रपति शिवाजी महाराजके नामपर प्रति २ सहस्र रुपयोंकी शिष्यवृत्तियां घोषित कीं । साथ ही ‘यह शिष्यवृत्ति अंगीकार करनेवाला विदेशी शिक्षा लेनेवाला, भारतमें लौटनेके उपरांत ब्रिटिशांकित हुआ कोई भी पद, वतन, अधिकार एवं नौकरीको अंगीकार न करे, अपितु स्वयंका स्वतंत्रपद निर्माण करे’, ऐसा भी बंधन डाला । इस पत्रमें उन्होंने ईमानदारीसे यह लिखा, ‘पहले मेरी शिक्षाके लिए कुछ भारतीय मित्रोेंंने आर्थिक सहायतता दी थी । अब ऐसा करनेकी मेरी बारी है; इसलिए देशबंधुओंमेंसे न्यूनतम दो-तीन जन तो स्वतंत्र देशका प्रवास कर राजकीय स्वतंत्रताका लाभ उठा सकें, उनके लिए आर्थिक सहायता करना मेरा कर्तव्य ही है ।’
अर्थात लोकमान्य तिळक, कालकर्ता परांजपे तथा पं. वर्माके अनुग्रहके कारण विनायक दामोदर सावरकरको राणाजीद्वारा दी गई ‘शिवाजी शिष्यवृत्ति’ प्राप्त हुई । उसके अनुसार जुलाई १९०६ में बैरिस्टर होनेके लिए वे लंडनमें दाखिल हुए । वहां ‘भारत भवन’में रहकर सावरकरने लंडनमें स्थित भारतीय विद्यार्थियोंमें स्वतंत्रता प्राप्तिकी ज्योति जगाई । ‘अभिनव भारत’ नामक संस्थाकी स्थापना की और चार वर्षमें स्वतंत्रताके लिए लंडनमें जो कार्य किया, वह अविस्मरणीय रहा । बैरिस्टर सरदारसिंह राणाके कारण ही स्वतंत्रता प्राप्त करनेवाले वीरोंका यह कार्य हुआ ! राणाजीको इस बातका सार्थ अभिमान था ।
३. पेरिसमें किया गया कार्य
१४.४.१९०६ को बंगालके प्रसिद्ध नेता श्री. सुरेन्द्रनाथ बनर्जीद्वारा ‘वंदे मातरम्’ घोषणापर किया गया निषेध तोड दिया गया । इसके अतिरिक्त बारीसालमें बंदी बनानेका समाचार प्राप्त होते ही उसके निषेधार्थ ४.५.१९०६ को ‘होमरूल सोसाइटी’की ओरसे पं. वर्माने लंडनमें सामूहिक सभाका आयोजन किया । पेरिसमें हुई सभाद्वारा ब्रिटिश अत्याचारपूर्ण शासनके प्रकट निषेधका प्रारंभ फ्रान्समें हुआ और यह इतना विस्तृत हो गया कि आगे दस वर्षोंतक ‘पेरिस’ अभिनव भारतके सशस्त्र क्रांंतिकारी संगठनका प्रमुख केंद्र बना रहा । बैरिस्टर. राणा, मैडम कामा, पं. वर्मा, लाला हरदयाळ आदि अभिनव भारतके अग्रगण्य क्रांतिकारी नेताओंके लिए ‘पेरिस’ ही ‘काशी’ हो गई थी ।
४. स्टटगार्टमें भी प्रतिनिधित्व
अगस्त १९०७ में जर्मनीके स्टटगार्टमें हुए अंतरराीय समाजसत्ता समारोहमें मैडम कामा और बैरिस्टर राणा हिंदी प्रतिनिधिके रूपमें उपस्थित थे । वहीं मैडम कामाने सभामें भारतीय तिरंगा लहराया और इससे ब्रिटिश राजनेता डर हुए । अर्थात यह ध्वज तैयार करना और उसे गुप्तरीतिसे सभातक ले जाना, जैसे सभी योजनाओंमें प्रमुख रूपसे स्वतंत्रता वीर सावरकर, पं. वर्मा, मैडम कामा, बैरिस्टर. राणा, वी.वी.एस. अय्यरका सहभाग था ।
५. समाचारपत्रोंके संपादकोंको फटकारनेवाले राणा !
लंडन तथा पेरिसमें क्रांतिकारियोंके चलाए गए स्वतंत्रता युद्धसे ब्रिटिश भयभीत हो गए थे । इसकी प्रचीति अनेक बार आई । बैरिस्टर. राणा और उनकी जर्मन पत्नीके संदर्भमें हुई एक घटना इस प्रकार थी, ‘पेरिसमें हिंदी लोगोेंका एक राजद्रोही पक्ष है’, इस जानकारीमें रंग भरकर इंग्लैंडके ‘मॉर्निंग पोस्ट’के समाचारदाताने उसमें राणा और उनकी पत्नीके विषयमें निंदनीय लेख लिखा । इसे पढते ही बैरिस्टर राणाने ‘मॉर्निंग पोस्ट’के संपादकोंको चेतावनी देनेवाला एक प्रखर पत्र लिख कर दिया । पढते ही संपादक भयभीत हुआ और उसने राणा पति-पत्नीसे वास्तविक रूपमें क्षमायाचना की ।
६. स्वतंत्रता समर उत्सव
‘अभिनव भारत’ नामक क्रांतिकारी संगठनके प्रमुख वि.दा. सावरकरके मार्गदर्शनसे १०.५.१९०८ को १८५७ के स्वतंत्रता समरका उत्सव लंडनके ‘भारत भवन’में उत्साह और ठाटबाटसे मनाया गया । सभागृह खचाखच भरा हुआ था, साथ ही बाहरसे अधिकतर हिंदी श्रोता खडे थे । इस कार्यक्रमके अध्यक्षस्थानपर देशभक्त राणा थे ! वे विशेषकर पेरिससे आए थे । उन्होंने अध्यक्षीय समापन भी समयोचित वक्तव्यसे किया । इस कार्यक्रमसे सर्व श्रोता प्रभावित हुए । अनेक लोगोंने देशभक्तिकी प्रतिज्ञा की और देशवीरोंके लिए मददकोषकी रचना की । सरदारसिंह राणाने अपने स्वयंके मई माहकी पूरी आय इस निधिके लिए दे दी ।
७. संयोग
उल्लेखनीय संयोग अर्थात पंडित श्यामजी कृष्ण वर्माका जन्म १८५७ में हुआ । उनके तेरह वर्षके पश्चात १८७० में सरदारसिंह राणाका जन्म हुआ और उनके तेरह वर्षके उपरांत १८८३ में विनायक दामोदर सावरकरका जन्म हुआ । अंतमें राजकोटमें १२.४.१९५७ में आयुके ८७ वें वर्षमें बैरिस्टर राणाकी मृत्यु हो गई ।’
संकलनकर्ता : सौ. स्वामिनी विक्रम सावरकर, मुंबई (‘प्रज्वलंत’(जनवरी २००३))’ (समाचारपत्रिका सनातन प्रभात, श्रावण कृ. पंचमी, कलियुग वर्ष ५१११ (११.८.२००९))