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सारणी
४. उत्तर भारतमे भगवन्नामका प्रसार
भारतके महाराष्ट्र राज्यको संतोंकी भूमि कहनेमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है । कई महान संतोका आविर्भाव इस पवित्र प्रदेशमें हुआ है । इन महान संतोंने अपनी भक्ति और ज्ञानकी धारासे इस क्षेत्रको सराबोर किया है । उन्होंने धर्मके महत्त्वको पुनर्स्थापित किया, और लोगोंके सुप्त आत्मसम्मानको जगाकर उन्हें एक धागेमें पिरोया जिससे वे अन्यायके विरुद्ध लड सकें । इन संतोंने समता, प्रेम, भाईचारेके साथ-साथ लोगोंको भक्तिका पाठ भी पढाया । वे अपनी व्यक्तिगत साधनाके साथ-साथ सामाजिक हितकी साधना कर ईश्वरके व्यापक रूपसे एकरूप हो गए । महाराष्ट्रके इन महान संतोंमेंसे एक हैं – संत नामदेव । आइए, उनके जीवनसे हम भी कुछ सीख लें और उनके पदचिन्होंपर चलकर स्वयंको तथा समाजको आध्यात्मिक दृष्टिसे सुदृढ बनाएं ।
जीवन
नामदेव महाराज महाराष्ट्रके प्रसिद्ध संत है । संत नामदेवका जन्म कार्तिक शु. एकादशी संवत ११९२ में महाराष्ट्रके सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल पंढरपुरमें एक सूचिक (दर्जी) परिवारमें हुआ था । उनके पिताका नाम दामाशेटी और माताका नाम गोणाई देवी था । उनका परिवार भगवान विठ्ठलका परम भक्त था । जब नामदेव ५ वर्षके थे तो, एक दिन दामाशेटी गांव गए थे; इसलिए उनकी मांने नामाको भगवानको भोगमें चढानेके लिए दूध दिया और कहा कि वे इसे विठोबाको चढा दें । नामदेव सीधे मंदिरमें गए और मूर्तिके आगे दूध रखकर कहा कि, ‘‘लो इसे पी लो ।’’ मंदिरमें उपस्थित लोगोंने कहा- यह मूर्ति है, पिएगी कैसे ? परंतु बालक नामदेव नहीं जानते थे कि, विठ्ठलकी मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है । बालहट समझकर सब अपने-अपने घर चले गए । मंदिरमें कोई नहीं था । नामदेव निरंतर रोए जा रहे थे और कह रहे थे- ‘विठोबा यह दूध पी लो नहीं तो मैं यहीं, इसी मंदिरमें रो-रो कर प्राण दे दूंगा ।’ बालकका भोला भाव देखकर विठोबा पिघल गए । वे जीवित व्यक्तिके रूपमें प्रकट हुए और स्वयं दूध पीकर नामदेवको भी पिलाया । तबसे नामदेवको विठ्ठल नामकी धुन लग गई । दिन-रात विठ्ठल, विठ्ठलकी रट लगाए रहते थे । धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि नामदेवकी प्रत्येक श्वास विठोबाके नामसे चलने लगी । आगे चलकर नामदेवका विवाह राजाबाईके साथ हुआ । उनको पांच संतानें हुर्इं । नामदेवजी विठ्ठल भगवानके बहुत प्रिय भक्त थे । उनका सारा दिन विठ्ठल भगवानके दर्शन, भजन कीर्तनमें ही व्यतित होता था । सांसारिक कार्योंमें उनका मन नहीं लगता था । परिवारकी ओर नामदेवजी लेशमात्र भी ध्यान नहीं दे पाते थे ।
गुरुप्राप्ति
एक समय महान संत ज्ञानेश्वरजी अपने भाइयों निवृति, सोपान तथा बहन मुक्ताबाईके साथ पंढरपुरमें आए , वहां चंद्रभागा नदीतटपर नामदेवजीको कीर्तन करते देख बहुत प्रभावित हुए । दोनों संत नियमित एकसाथ रहने लगे । अब तक नामदेवजी परमेश्वरके सगुण स्वरुप विठ्ठलके उपासक थे और विठ्ठल दर्शनके बिना नहीं जीते थे, उनके लिए परमेश्वर केवल विठ्ठल भगवानकी मूर्ति ही थी । ज्ञानेश्वरजी निर्गुणके उपासक थे । नामदेवजीके लिए पंढरपुरको छोडकर जाना मृत्युके सामान प्रतीत होता था; परंतु ज्ञानेश्वरजीके विशेष आग्रहपर वे संतोंकी मण्डलीमें चल पडे । अब तक नामदेवजीने कोई गुरु नहीं किया था । वे केवल विठ्ठलको ही अपना गुरु मानते थे । मार्गमें मण्डली एक जगह पर रुकी । सत्संगके पश्चात् संत गोरा कुम्हारजीको संत मंडलीने आग्रह किया कि वे सबको मटकेकी भांति परखकर पक्का अथवा कच्चा बताएं । संत गोरा कुम्हारजीने उनके नित्य कामकी एक लकडीसे (थपकनीसे) सबके सिर बजाकर देखे, (जैसे कुम्हार मटकोंको बजा कर देखता है) उस समय सब शांत रहे । जब नामदेवजीके सिरको बजा कर देखा तो नामदेवजी रोने लगे । यह देखकर सभी संत हंसने लगे । इससे नामदेवजी बडे आहत हुए और वहांसे सीधे विठ्ठलके पास आए तथा चरणोंमें गिरकर रोने लगे । भगवानने उनको गुरु करनेके लिए कहा, तो वह कहने लगे कि ‘जब मुझे आपके दर्शनही हो गए तो मुझे गुरुकी क्या आवश्यकता है?’ भगवानने कहा,‘‘नामदेव जब तक तू गुरु नहीं करता, तबतक तू मेरे वास्तविक स्वरुपको नहीं पहचान सकता ।’’ भगवानने उन्हें संत विसोबा खेचरके पास जानेको कहा । जो ज्ञानेश्वरजीके शिष्य थे । पढंरपुरसे ५० कोसकी दूरी पर औढियानागनाथ गांवमें जाकर उन्होंने संत विसोबाके घरकी पूछ-ताछ की । लोगोंने उन्हें शिव मंदिरमें ढूंढनेको कहा । वे जब शिव मंदिरमें गए तो, उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति शिव-पिंडीपर पांव रखकर सो रहा है । वे विस्मित होकर बोले, ‘‘अरे! भगवानपर पांव रखकर सो रहा है, तू अंधा है क्या ?’’ संत विसोबा बोले ‘‘तू ही जरा सोचकर मेरे पांव वहां रख दे, जहां भगवान नहीं है ।’’ नामदेवने इधर-उधर चहूं ओर देखा । उसे चहूं ओर भगवान दिखाई देने लगे और वे लज्जित हो कर विसोबाके चरणोंमें गिरकर क्षमा याचना करने लगे । संत विसोबाने उनको उठाकर गलेसे लगाया और शिष्यके रूपमें स्विकार किया तथा सर्वव्यापी परमेश्वरका ज्ञान करवाया । संत विसोबा खेचरके शिष्य बननसे पूर्व तक वे सगुणोपासक थे । शिष्य बननेके उपरांत उनकी विठ्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई ।
तीर्थयात्रा
संत ज्ञानदेव और मुक्ताबाईके सान्निध्यमें संत नामदेव सगुण भक्तिसे निर्गुण भक्तिमें प्रवृत्त हुए । अद्वैतवाद एवं योग मार्गके पथिक बन गए । ज्ञानदेवसे इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेव उन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी, अयोध्या, मारवाड (राजस्थान), तिरूपति, रामेश्वरम आदिके दर्शन-भ्रमण किए । सम्पूर्ण भारतके तीर्थोंकी यात्रा की । मार्गमें अनेक चमत्कार भी किए । भ्रमण करते-करते वे मारवाडके रेगिस्तानमें पहुंचे । उन्हें बहुत तृष्णा लगी थी । एक कूप (कुंआ) मिला परंतु उसका पानी बहुत गहरा था और पानी निकालनेका कोई साधन भी नहीं था । ज्ञानेश्वरजी अपनी ‘लघिमा सिद्धि’द्वारा पक्षी बने और पानी पीकर आ गए । नामदेवजीने वहां पर कीर्तन आरंभ किया और रुक्मिणीजीको पुकारने लगे । कूप पानीसे भर कर बहने लगा । यह कूप आज भी बीकानेरसे १० मील दूर कलादजीमें है । भारत भ्रमणके उपरांत नामदेवजीने भंडारा किया । जिसमें स्वयं विठ्ठल भगवान और माता रुक्मिणीजी पधारे । जबसे नामदेव और संत ज्ञानेश्वरजी मिले वे कभी भी अलग नहीं हुए । भारत भ्रमणके उपरांत ज्ञानदेवजीने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी संवत १२१५ में २० वर्षकी आयुमें संजीवन समाधि लेनेका निश्चय किया और पुणेके पास आलंदीमें संजीवन समाधि ली । नामदेवजी उस समय उनके साथ ही थे । ज्ञानेश्वरजीकी समाधिके एक वर्षके भीतर उनके जेष्ठ भाई तथा गुरु निवृति, छोटे भाई सोपान और बहन मुक्ताबाईजीने देहत्याग किया । नामदेवजीने इन चारों संतोंके अंतिम समयका सुंदर वर्णन अपनी रचनाओंमें किया है । उन्होंने शोक और वियोगमें समाधिके अभंग लिखे ।
उत्तर भारतमें भगवन्नामका प्रसार
ज्ञानेश्वरजीके चिरविरहसे व्याकुल होकर वे पुनः उत्तर भारतमें भगवन्नामके प्रसार हेतु गए । वे प्रथम द्वारका वहांसे मारवाड, मथुरा, हरिद्वार तत्पश्चात् पंजाबके अमृतसर मंडलके (जिला) भूतविंड गांवमें गए । यहां उन्हें बहोरदास नामका शिष्य मिला । वहांसे गुरुदासपुर मंडलके मरड गांवमें कुछ दिन रुके । आगे भट्टीवाल पहुंचे, यहांपर जल्लो और लद्धा नामके दो शिष्य मिले, यहांका तडग (तालाब) आज भी ‘नामियाना’ नामसे प्रसिद्ध है । अंतमें वे घुमान जिलेमें गए । वहां उन्हें केशो नामक शिष्य मिला । घुमानके सीमित क्षेत्रमें उनका ‘संप्रदाय’ अब भी चल रहा है । घुमान गांवमें उनकी स्मृतिमें समाधि मंदिर बनाया गया । उन्होंने १८ वर्षो तक पंजाबमें भगवन्नामका प्रचार किया । भक्त नामदेवजी की वाणीमें सरलता है । वह ह्रदयको बांधे रखती है । उनके प्रभु भक्ति भरे भावों एवं विचारोंका प्रभाव पंजाबके लोगों पर आज भी है । श्री गुरु ग्रंथ साहिबमें उनके ६१ पद, ३ श्लोक, १८ रागोंमें संकलित हैं । ‘मुखबानी’ नामक ग्रंथमें उनकी रचनाएं संग्रहित हैं । वास्तवमें श्रीगुरुग्रंथसाहिबमें नामदेवजीकी वाणी अमृतका वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवताको पवित्रता प्रदान करने का सामर्थ्य है । निर्गुण भक्तिके संतोंमें अग्रिम संत नामदेव उत्तर-भारतकी संत परंपराके प्रवर्तक माने जाते हैं । मराठी संत-परंपरामें वह सर्वाधिक पूज्य संतोंमें एक हैं । परमात्माकी प्राप्तिके लिए संत-सद्गुरुकी कृपाको अनिवार्य माना जाता है ।
संत संगति मिली दुस्तर तिरना
संत की छाया संत की माया,
संत संगति मिलिगोविंद पाया ।
उनकी सेविका जनाबाईने भी श्रेष्ठ अभंगोंकी रचना की । संत नामदेव अपनी उच्चकोटिकी आध्यात्मिक उपलब्धियोंके लिए विख्यात हुए । चमत्कारोंके सर्वथा विरुद्ध थे । वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मामें कोई अंतर नहीं है तथा परमात्माकी बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार)की सेवा करना ही सच्ची पूजा है । इसीसे साधक भक्तको दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है । सभी जीवोंका कर्ता-धर्ता एवं रक्षक, पालनकर्त्ता विठ्ठलराम ही है, जो इन सबमें मूर्त भी है और ब्रह्मांडमें व्याप्त अमूर्त्त भी है; इसलिए नामदेव कहते हैं –
बीठलियौराजा रांमदेवा ।
सृष्टिमें व्याप्त इस ब्रह्म-अनुभूतिके और इस सृष्टिके रूप आकारवाले जीवोंके अतिरिक्त उस विठ्ठलका कोई रूप, रंग, रेखा तथा पहचान नहीं है । वह ऐसा परम तत्व है कि उसे आत्माके नेत्रोंसे ही देखा और अनुभव किया जा सकता है । गोविंदका नाम स्मरण करना ही नामदेवकी सबसे बडी सीख है । महाराष्ट्रीय संत परंपराके अनुसार उनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुणका कोई भेदभाव नहीं था । उन्होंने मराठीमें कई सौ अभंग और हिंदीमें सौ के लगभग पद रचे हैं । उनके पदोंमें हठयोगकी कुंडलिनी- योग-साधना और प्रेमाभक्तिकी (अपने ‘राम’ से मिलने की) विह्वलभावना दोनों हैं । निर्गुणीय कबीरके समान नामदेवमें भी भगवन्नाम एवं सद्गुरुके प्रति आदर भाव विद्यमान है । कबीरके पदोंमें यत्रतत्र नामदेवकी भावछाया दृष्टिगोचर होती है । कबीरके पूर्व नामदेवने उत्तर भारतमें निर्गुण भक्तिका प्रचार किया, जो निर्विवाद है । भक्त नामदेवजीका महाराष्ट्रमें वही स्थान है, जो भक्त कबीरजी अथवा सूरदासजीका उत्तरी भारतमें है ।
भावावस्था
एक समय वे भोजन कर रहे थे । एक श्वान आकर रोटी उठाकर ले भागा । नामदेवजी उसके पीछे घीका कटोरा लिए भागे और कहने लगे ‘‘भगवान, रुखी मत खाओ साथमें घी लो’’
शिष्य तथा संप्रदाय
उनके समयमें नाथ और महानुभाव संप्रदायका महाराष्ट्रमें प्रचार था । इनके अतिरिक्त महाराष्ट्रमें पंढरपुरके ‘विठोबा’की उपासना भी प्रचलित थी । इसी उपासनाको दृढतासे चलानेके लिए संत ज्ञानेश्वरने सभी संतोको एकत्रित कर ‘वारकरी संप्रदाय’की नींव डाली । सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढी और कार्तिकी एकादशीको विठ्ठल दर्शनके लिए पंढरपुरकी ‘वारी’ (यात्रा) किया करती है । यह प्रथा आज भी प्रचलित है । इस प्रकारकी वारी (यात्रा) करनेवालोंको ‘वारकरी’ कहते हैं । विठ्ठलोपासनाका यह ‘संप्रदाय’ ‘वारकरी’ संप्रदाय कहलाता है । नामदेव इसी संप्रदायके एक प्रमुख संत माने जाते हैं । आज भी इनके रचित अभंग पूरे महाराष्ट्रमें भक्ति और प्रीतिके साथ गाए जाते हैं । महाराष्ट्रमें उनके प्रसिद्ध शिष्य हैं, संत जनाबाई, संत विष्णुस्वामी, संत परिसा भागवत, संत चोखामेला, त्रिलोचन आदि । उन्होंने इनको नाम-ज्ञानकी दीक्षा दी थी । इस धरती पर जीवोंके रूपमें विचरनेवाले विठ्ठलकी सेवा ही सच्ची परमात्मसेवा है।
समाधि
पंढरपूरके विठ्ठल मंदिरके महाद्वारपर उन्होंने समाधि ले ली । ८० वर्षकी आयु तक इस संसारमें विठ्ठलके नामका जप करते-कराते पढंरपुरमें विठ्ठलके चरणोंमें आषाढ कृष्ण त्रयोदशी संवत १२७२ में नामा स्वयं भी इस भवसागरसे पार चले गए ।
संदर्भ : संत नामदेव लेखक : डॉ. हेमंत विष्णु इनामदार तथा प्रकाशक : श्री. जयंत तिलक, केसरी मुद्रणालय, ५६८ नारायण पेठ, पुणे ३० और संकेतस्थल