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दास्यभक्तिका एक अनूठा रूप संत जनाबाई

सारिणी


        भारतकी महाराष्ट्र भूमिने अनेक महान संतोंको जन्म दिया है । इसमें जैसे पुरुष संत हैं, वैसे अनेक महान स्त्री संत भी हैं । इसी परंपरामें संत जनाबाईका परिचय ‘नामयाकी दासी’ अर्थात् संतनामदेवजीकी दासीके रूपमें प्रसिद्ध है । संत जनाबाईको महाराष्ट्र एक कवयित्रीके रूपमें भी जानता है । उन्होंने अपने काव्यके माध्यमसे दास्यभक्ति, वात्सल्यभाव, योगमार्ग, इनके साथ-साथ धर्मरक्षाके लिए हुए अवतारोंका कार्य भी वर्णित किया है । विशेष बात ये है कि, ११ वे शतकमें एक स्त्री होकर और ६-७ वर्षकी आयुसे ही दूसरेके घरकी दासी होकर इन्होंने अपने काव्यसे जो सामान्यजनको मार्गदर्शन किया है, वैसे विचार आजकी स्वयंको स्वतंत्र माननेवाली सुशिक्षित स्त्री अपनी कल्पनामें भी नहीं कर सकती । संत जनाबाईने जो मार्गदर्शन किया है वह अपनी आत्मानुभूतिके बलपर किया है; इसलिए वह कालकी कसौटीपर आज भी खरा उतरता है । आइए, इनके चरणोंमें प्रणाम कर, इनके मार्गदर्शनानुसार हम भी साधना करें तथा भगवानके भक्त बनें ।

बालपन

        जनाबाईका जन्म महाराष्ट्रके मराठवाडा प्रदेशमें परभणी मंडलके गांव गंगाखेडमें ‘दमा’ और उनकी पत्नी ‘करुंड’ नामके शूद्र जातिके विठ्ठलभक्तके घरमें हुआ । उनके पिताने पत्नीके निधनके उपरांत  जनाबाईको पंढरपुरके विठ्ठलभक्त ‘दामाशेटी’के हाथोंमें सौंप दिया और स्वयं भी संसारसे विदा ली । इस प्रकार ६-७ वर्षकी आयुमें ही जनाबाई अनाथ होकर दामाशेटीके घरमें दासीके रूपमें रहने लगीं । उनके घरमें आनेके उपरांत दामाशेटीको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, वही प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज थे ! आजीवन जनाबाईने उन्हींकी सेवा की ।

गुरुप्राप्ति

        संत नामदेव महाराजके सत्संगसे ही जनाबाईको भी विठ्ठल भक्तिकी आस लगी । घरके कार्य-काज करते समय वह नामजप करने लगी । कुछ दिनोंमें उनका नामजप निरंतर होने लगा । संत नामदेव महाराजने उनको अपनी शिष्या स्विकार किया; परंतु जनाबाई स्वयंका उल्लेख कभी भी शिष्या न करते हुए, केवल उनकी दासी मात्र ही मानती हैं । श्री संत ज्ञानदेव-विसोबा खेचर-संत नामदेव-संत जनाबाई यह उनकी गुरुपरंपरा है । संत ज्ञानेश्वर महाराजके प्रति उनका भक्तिभाव अनन्यसाधारण था ।

काव्य रचना

        संत जनाबाईकी भावकविता भगवंतकी प्रीतिसे ओतप्रोत है । संत जनाबाईके नामपर लगभग ३५० अभंग (छोटी कविता) सकल संत गाथामें मुद्रित है । इसके अतिरिक्त कृष्णजन्म, बालक्रीडा, दशावतार, प्रल्हादचरित्र, हरिश्चंद्राख्यान, द्रौपदीवस्त्रहरण ऐसी आख्यान रचना, तथा काकड आरती (भोरके समयमें की जानेवाली भगवानकी स्तुति), भारूड (कथा), पद, पाळना (लोरी) आदि रचनाएं भी उन्होंने की हैं । संत जनाबाईके द्रौपदी स्वयंवर इन भावमधुर आख्यानोंसे ही महाकवि मुक्तेश्वरजीको (संत एकनाथ महाराजके पौत्र) स्फूर्ति मिली । तत्कालीन संत ज्ञानेश्वर महाराज, संत नामदेव महाराज, संत सोपानकाका, संत गोरोबाकाका, संत चोखोबा, संत सेना महाराज आदि संतोंके जीवनपर पद्यरचना करके संत जनाबाईने आनेवाली पीढियोंपर महान उपकार किए हैं । उनकी रचनाओंसे समाजको ज्ञात होता है कि साधकोंका रक्षण तथा दुर्जनोंका विनाश कर धर्मसंस्थापना करनेके हेतु भगवान अवतार धारण करते हैं । उनकी भाषा सर्वसामान्य लोगोंके हृदयको छू लेती है । महाराष्ट्रके गांव-गांवमें स्त्रियां चक्की पीसते हुए, ओखलीमें धान कूटते हुए उन्हींकी रचनाएं गाती हैं ।

साधना

       गुरुके प्रति उनका भक्ति-प्रेमभाव तथा कृतज्ञता-भाव उनके एक अभंगमें व्यक्त हुआ है । विवाहके लिए वर जब वधूके घर आता है तो, उसके साथ आनेवाले बारातियोंको अनायास ही मिष्टान्न तथा मानसम्मानका लाभ मिलता है । पारस पत्थरके स्पर्श होनेसे लोहेको सुवर्णरूप प्राप्त होता है, जिससे धनवान लोगोंको उससे आभूषण प्राप्त होते हैं । उसी प्रकार संत नामदेवजीने मुझे शिष्य अर्थात् दासीके रूपमें स्विकार करनेके कारण मुझे विठ्ठलप्राप्ति हुई है । वात्सल्य, कोमलता, ऋजुता, त्यागी वृत्ति, भावसघनता, सहनशीलता, समर्पण वृत्ति, इन स्त्री विषयक गुणोंको तथा सभी भावनाओंको उन्होंने अपने निरंतर प्रयासोंसे विठ्ठलके प्रति भावमें परावर्तित किया । पूर्ण निष्काम होकर लौकिक, ऐहिक भावनाओंसे मुक्त होकर, उन्होंने विठ्ठलके श्रीचरणोंमें शरण ली । सगुण-साकार उपासनासे धिरे-धिरे निर्गुणकी उपासनाकी ओर अग्रसर होते-होते एक दिन उन्हें आत्मज्ञानका साक्षात्कार भी हुआ ।

भावावस्था

        संत जनाबाई विठ्ठलको कभी अपनी माता, कभी पिता, कभी पुत्र तो कभी सखा मानती थीं अर्थात् मनकी स्थिति कैसी भी हो, प्रत्येक प्रसंगमें वह विठ्ठलके स्मरणमें रहती थीं । घरमें कुल सदस्य संख्या १५ थी । वे दासी होनेके कारण प्रायः घरके सभी काम उन्हींको करने पडते थे, उदा. कपडे धोना, पात्र (बरतन) स्वच्छता, नदीसे पानी लाना, चक्की पीसना, धान कूटना, झाडू लगाना, घर, आंगनकी लिपा-पोती करना, रंगोली सजाना, नगरसे बाहर जाकर कंडे, लकडियां ढूंढकर लाना ऐसे बहुत सारे काम उन्हें करने पडते थे; परंतु विठ्ठल प्रायः उनके सभी कामोंमें उनकी सहायता करते थे । इतना ही नहीं विठ्ठल जनाबाईजीके केशोंको माखन लगाकर उन्हें नहलाते, केश संवारकर कभी जूडा तो कभी चोटी बनाकर उनका शृंगार भी करते हैं ।

        साथ ही विठ्ठल प्रतिदिन रातमें उनसे बातें करने आते थे और दोनो वार्तालापमें तन्मय हो जाते; परंतु एक दिन बात करते करते विठ्ठलजीको निद्रा आगई; परंतु समयपर जागृत ना होनेसे जनाबाईने उन्हें जगाया । विलंब होनके कारण हडबडीमें विठ्ठल अपना उपरणा तथा आभूषण वहीं भूलकर जनाबाईकी चादर ओढकर दौडे-दौडे मंदिरमें जाकर खडे हो गए। इतनेमें पूजा करनेवाले ब्राह्मण आए और उन्होंने देखा कि भगवान विठ्ठलके अंगपर आभूषण तथा उपरणा न होकर एक फटी हुई चादर है । ब्राह्मणोंको लगा कि चोरी हुई है । राजाको वार्ता पहुंचायी गई । पूछ-ताछ करनेपर ज्ञात हुआ कि वह फटी हुई चादर जनाबाईकी है ।

        लोग उनको चोर सम्बोधितकर पीटने लगे । जनाबाई विठ्ठलकी दुहाई देने लगीं; परंतु विठ्ठलके न आनेपर जनाबाईको बडा क्रोध आया । राजाने जनाबाईको सूलीपर चढानेका आदेश दिया । राजाज्ञाके अनुसार चंद्रभागा नदीतटपर सूलीकी सब सिद्धता हो गयी । उन्हें अंतिम इच्छा पूछी तो, जनाबाईने विठ्ठलके दर्शनकी आस बतायी । उन्हें दर्शनके लिए मंदिर ले जाया गया । वहां विठ्ठल रुआंसा मुख लेकर खडे हैं यह देखकर उनका वात्सल्यभाव जागृत हुआ और उन्होंने बडी वत्सलतासे कहा ‘‘विठ्ठला !

        तुम्हें मेरे कारण बडे श्रम उठाने पडे, मुझसे बहुत अपराध हुए, मुझे क्षमा कर दो, कहते कहते उनके नेत्र भर आएं और विठ्ठलके गलेसे लिपटकर अपने पल्लूसे विठ्ठलका मुख पोछते हुए जनाबाई उसको ही सांत्वना देने लगी कि ‘मेरे जीवनाधार तुम दुःखी ना हो ।’ वहांसे सब लोग चंद्रभागा नदीतटपर आए । जनाबाईने नदीमें स्नान किया ।

        भक्त पुंडलीकके मंदिरमें जाकर दर्शन किए और वे सूलके सामने खडी होते ही, उस सूलका रूपांतर एकाएक चंपकके फूलोंसे हरे-भरे वृक्षमें हुआ, सब लोग आश्चर्यसे देखने लगे, तभी वृक्षका भी पानी हो गया । सभी लोगोंने जनाबाईका जयजयकार किया । उन्हें जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ तो सर्वत्र विठ्ठल ही दिखाई देने लगा । अपनी इसी अवस्थाका वह वर्णन इस प्रकार करती हैं कि अन्नरूप तथा जलरूप ब्रह्मका सेवन करती हूं, शय्यारूप ब्रह्मपर निद्रा लेती हूं । जीवनरूपी ब्रह्मसे व्यवहार करती हूं, इस व्यवहारमें मैं सबसे ब्रह्म लेती हूं और केवल ब्रह्म ही देती हूं । यहां-वहां चहुंओर ब्रह्म देखती हूं, पूरे संसारमें ब्रह्म नहीं ऐसा कुछ भी नहीं । अब तो मैं  सबाह्यअंतरी ब्रह्म ही हो गयी ।

        उन्होंने अपने उदाहरणसे समस्त संसारको दिखा दिया कि ईश्वरप्राप्तिके लिए कर्मकांड, धन-संपत्तिकी, घर-संसारका त्याग करनेकी अथवा किसी भी आडंबरकी आवश्यकता ना होकर केवल भगवानके प्रति शुद्ध भाव होना ही आवश्यक है । इस महान संत कवयित्री जनाबाईने श्रीक्षेत्र पंढरपुरके महाद्वारमें आषाढ कृष्ण त्रयोदशी संवत १२७२ को समाधि ली तथा विठ्ठल भगवानमें विलीन हो गर्इं ।

संदर्भ – संत कवयित्री जनाबाई, लेखक – डॉ. दा.बा. भिंगारकर, मॅजेस्टिक प्रकाशन

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