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स्वामी वरदानंद भारतीका विचारधन


        स्वामी वरदानंद भारतीका पूर्वाश्रमका नाम था, श्री. अनंत दामोदर आठवले । वर्ष १९९१ में उन्होंने संन्यासाश्रमका स्वीकार कर स्वामी वरदानंद भारती नाम धारण किया । स्वामीजीने राष्ट्र, धर्म, अध्यात्म एवं बुद्धिप्रामाण्यवाद आदि विषयोंपर भरपूर लेखन किया है ।

        ५ सितंबर २००२ को उन्होंने उत्तरकाशीमें गंगोत्रीके निकट कैलासाश्रममें स्वेच्छासे संकल्पपूर्वक देह त्याग दिया । आज उनके पुण्यस्मरणके उपलक्ष्यमें साप्ताहिक ‘पंढरी प्रहार’के स्वामी वरदानंद भारती विशेषांकमें मुद्रित (संपादक : श्री. वा. ना. उत्पात, अप्रैल १९९१) और ‘हिंदुधर्म समजून घ्या !’ नामक पूणेके स्वस्तिश्री प्रकाशनद्वारा प्रसिद्ध पुस्तकमें मुद्रित विचार जान लेते हैं ! प.पू. स्वामीजीके इन विचारोंसे  राष्ट्रभक्तोंको और अध्यात्ममार्गपर चलनेवाले साधकोंको तथाकथित बुद्धिजीवी और अंधश्रद्धा निर्मूलन समितिवालोंका (अंनिस) प्रतिवाद करनेके लिए एक अलग ही बल मिलेगा !

सारणी


१. यज्ञका मत्सर करनेवाली अंनिस धूमवर्तिकाके (सिगारेट) विषयमें कुछ करेगी क्या ?

        एक मंडलमें (जिला) धूमवर्तिकासे जितना धुआं निकलता है एवं धनका अपव्यय होता है, उतना सारे देशमें किए गए यज्ञोंमें भी नहीं होता, तो फिर इन स्वयंको पुरोगामी समझनेवालोंका यज्ञके संदर्भमें यह कुतर्क क्यों ? यज्ञसे वातावरणकी शुद्धि होती है; परंतु धूमवर्तिकासे तो वातावरण दूषित होता है, फिर भी यज्ञ  प्रतिगामी एवं धूमवर्तिका पुरोगामी यह कैसे ?

२. पहले विज्ञानके प्रमाण दो

        ईश्वर है अथवा नहीं इसका प्रमाण मांगते हो तो विज्ञानके भी प्रमाण दो, यदि गुरुत्वाकर्षण है, तो वृक्ष उपरकी ओर ही क्यों बढता है ? उष्णता विस्तारित होती है, शीत आकुंचित करती है, तो शून्य तापमानके नीचे पानी प्रसारित क्यों होता है ? गणितमें  ऋण x ऋण · अधिक कैसे ? बिंदूको यदि लंबाई, चौडाई, ऊंचाई, स्थूलता नहीं, तो वह कागजपर कैसे लिखा जाता है ? इन सब बातोंपर हम केवल इसलिए विश्वास करते हैं क्योंकि शास्त्रज्ञ बताते हैं, तो ईश्वरके विषयमें जो संत, गुरु तथा आचार्य कहते हैं, उसपर हम विश्वास क्यों नहीं करते ?

३. विज्ञानका आवाहन धर्मको नहीं अपितु विज्ञानको ही

        किसीने कहींपर कहा है, विज्ञानने धर्मको आवाहन निर्माण किया है । वास्तविक विज्ञान कभी धर्मको आवाहन नहीं दे सकता और हिंदु धर्मको तो कदापि नहीं । हम आजके विज्ञान युगमें जिस पद्धतिसे जीवन-यापन कर रहे हैं, उसीको विज्ञानका आवाहन है । धूमवर्तिका आरोग्यको घातक है, यह विज्ञान कहता है, तब भी उसकी बिक्रीमें कहीं भी न्यूनता नहीं आई है । विज्ञान कहता है कि टेरेलिन, टेरिकाटके कपडे त्वचाके लिए घातक हैं, तब भी इन कपडोंकी फैशन दिनोंदिन बढती जा रही है । बच्चोंको तो प्रबलतासे पहनाया जाता है । विज्ञान कहता है पैरोंमें जूते पहनकर  बाहरसे सीधे घरमें आना यह जंतूसंसर्ग बढानेवाला है । तब भी पहनने और निकालनेके आलस्यके कारण हम उस ओर दुर्लक्ष करते हैं । आज विविध प्रकारके प्रदूषणके कारण अनेकविध रोगोंका प्रादुर्भाव हुआ है, ऐसा विज्ञान कहता है; परंतु यह प्रदूषण बढाया किसने ? भगवान-भगवान करनेवाले लोगोंने ? तीर्थयात्रा करनेवालोंने ? पाटंबर, मुटका पहननेवालोंने ? स्नान-संध्या करनेवालोंने ? भागवत्, महाभारत रामचरित पूर्वक बिठानेका प्रयत्न करना एवं वह ठिकप्रकारसे बैठा नहीं, ऐसा कहकर परिवाद करना, यह मूर्खता नहीं तो और क्या है । चौकोर कुंदेका नाप भिन्न एवं गोलाकार ढांचेका नाप भिन्न । दोनोंमें भिन्नता है, इसका अर्थ दोनोंमें विरोध है, ऐसा तो नहीं होता ।

        कथा, उपन्यास मुद्रित करते हुए यंत्र चालू रहता है और रामायण, भागवत मुद्रित करते समय वह अपनेआप ही बंद पड जाता है, ऐसा कभी होता है क्या ? यदि ऐसा हुआ, तो विज्ञानका धर्मको विरोध है, यह मानना पडेगा । आज-कल बुद्धिजीवीयोंका धर्मग्रंथोंके प्रति विरोध रहता है, उसके कारण ही अलग है । धर्मग्रंथोंमें बताए गए मूलभूत तत्त्वोंका हमें अनुभव नहीं आता, तो उनको सत्य कैसे माने, ऐसा उनका आक्षेप रहता है ।

४. तथाकथित बुद्धिजावियों, ईश्वरके अस्तित्वके विषयमें बोलनेसे पूर्व इस ओर ध्यान दे

        एक साहित्यिक प्रतिवाद करते हैं कि खेतमें काम करता हुआ किसान मुझे दिखाई देता है, वैसे सृष्टिका व्यापार करनेवाला ईश्वर मुझे दिखाई देना चाहिए; तभी मैं वो है ऐसा मानूंगा । किसी एक साहित्यिकके मानने न माननेपर ईश्वरका अस्तित्व थोडे ही निर्भर करता है ? ईश्वर उसे मिले ऐसा उसका क्या महत्त्व ? पृथ्वीकी तुलनामें राई जितनी भी, ब्रह्मांडकी तुलनामें पृथ्वी नहीं है । अपना सूर्य ही पृथ्वीकी अपेक्षा तेरह लाख गुना बडा है और प्रकाशकी दृष्टिसे आठ मिनटके दूरीपर है । सूर्यसे अनंतगुना बडे तारे आकाशमें हैं और वो पृथ्वीसे लाखो प्रकाशवर्षोंकी दूरीपर हैं । हम सभीको ज्ञात ब्रह्मांड इस प्रकार है । परमेश्वरको ‘अनंतकोटी ब्रह्मांडनायक’ कहते हैं । वह मुझे क्यों मिलना चाहेगा ? मैं हूं ही कौन ? पहले समय लिए बिना किसी मुख्यमंत्रीको प्रधानमंत्री भी नहीं मिलते, चार-चार दिन बाट (राह) देखनी पडती है । मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री इनके अधिकारकी दृष्टिसे जो अंतर है, उस अंतरकी अपेक्षा योग्यताकी दृष्टिसे मुझमें और परमेश्वरमें कितना अंतर है, यह सोचना चाहिए । यदि अंतःकरणमें ईश्वरके दर्शनकी सच्ची अभिलाषा होगी, तो साधना करके गोस्वामी तुलसीदासजी-सुरदासजी जैसे संत बनना चाहिए अथवा रावण-कंस जैसे उपद्रवमूल्य (न्यूसेन्स व्हॅल्यू) प्राप्त कर लेना चाहिए । इनमेंसे किसको क्या बनना है, यह निर्णय उसने स्वयं लेना है ।

५. हिंदुओ, षंढत्व छोडो

        धार्मिक लोगोंकी उडायी जाती है, उससे अधिक खिल्ली बुद्धिजीवियोंकी उडा सकते हैं; परंतु धार्मिक लोगोंके संस्कार उनको वैसा करनेकी अनुमती नहीं देते । एक बात ध्यानमें लेनी चाहिए, धार्मिक लोगोंके पिछे परंपरागत तत्त्वज्ञानका अधिष्ठान है; परंतु बुद्धिजीवी ऐसे ही लटकते रहते हैं । उनकी कलाई पकडने जाओ तो उनका भंडा फूटेगा । मेरे मनमें नित्य एक बात चुभती  है, वो यह है कि, किसी पुत्रके सामने कोई उसके पिताको अपशब्द कहता है, तो पुत्र उसका प्रतिकार न करते हुए, अपने पितासे ही कहता है, ‘‘पिताजी, आप अच्छे हो यह आप सिद्ध करके दिखाईए ।’’ अपने पिताकी निंदा करनेवालेको वो कुछ प्रश्न  नहीं पूछता, यह षंढत्वका लक्षण है !

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