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‘वंदे मातरम्’ के रचनाकार बंकिमचंद्र चटोपाध्याय


       ‘वंदे मातरम्’ इस वंदनीय गीतकी रचना अक्षयनवमी अर्थात् कार्तिक शुक्ल नवमी (७.११.१८७५) के दिन बंकिमचंद्र चटोपाध्यायजीने की । भारतीयोंको प्रेरित करनेवाल, स्वतंत्रता संग्राममें प्रेरणादायी बने ‘वंदे मातरम्’ के संदर्भमें जानकारी प्रस्तुत है !

सारणी


‘वंदे मातरम्’की उत्प्रेरणा और मार्गक्रमण

        अनेक प्रमाणोंद्वारा अब सिद्ध हुआ है कि, ‘वंदे मातरम्’ यह गीत नवंबर १८७५ में रचा गया । ‘आमार दुर्गोत्सव’ तथा ‘एकटी गीत’, ये बंकिमचंद्रजीके दो लेख और ‘कमलाकान्तेर ऐसो ऐसो’ यह पूर्णचंद्र चटोपाध्यायजीका लेख, इन तीनों लेखोंके आधारपर वर्ष १८७५ की दुर्गापूजामें अष्टमीकी रात्रि बंकिमचंद्रजीको भारतमाताके दर्शन हुए होंगे । उन्हींके शब्दोंमें उसे पढना चाहिए – मैं अपनी नौकामें विहार कर रहा था । मैंने क्षितिजके छोरपर अत्यंत दूर लहरोंपर देखा, तो मातृदेवताकी स्वर्णमूर्ति थी । हां, वही मेरी माता, मेरी मातृभूमि थी । भूमिके रूपमें माता, पृथ्वीके रूपमें असंख्य रत्नोंसे अलंकृत । उसकी रत्नजडित दशभुजाएं दसों दिशाओंमें पैâली हुई थीं । उन दसों भुजाओंमें विविध शस्त्र और अस्त्र विभिन्न शक्तियोंके रूपमें चमक रहे थे । उसके पैरोंतले शत्रु छिन्न-भिन्न और हीन-दीन होकर कुचला गया था । उसका शक्तिशाली वाहन सिंह उसके चरणोंके समीप ही शत्रुको खींचकर नीचे गिराता हुआ दिखाई दे रहा था । अरिमर्दिनी, सिंहवाहिनी माते, तुम्हें मेरा प्रणाम ! वंदे मातरम् !!’

        मनकी ऐसी उन्नत भावावस्थामें बंकिमचंद्रजी ने यह गीत लिखकर पूरा तो किया, परंतु उस कालमें अधिकांश लोगोंको वह जंचा नहीं । बंकिमचंद्रजीके घर अनेक लेखकमित्र अपने- अपने नवीन लेखनके विषयमें चर्चा करने हेतु एकत्र आते थे । इस गीतपर भी भली चर्चा हुई । किसीने कहा कि, इसमें श्रुतिमाधुर्य नहीं, तो किसीने कहा, ‘‘इसका व्याकरण बिगड गया है । ‘सस्य शामलाम’, ‘भुजैधृत’, ‘द्वित्रिंशत्कोटी’ जैसे शब्द रसहानि कर रहे हैं । इतना अच्छा गीत है, परंतु आधा बंगाली और आधा संस्कृत भाषामें लिखकर पूरा बिगाड दिया है ।’’ बंकिमचंद्रजीने उनसे इतना ही कहा कि, आपको न भाया हो, तो मत पढिए । मुझे जो अच्छा लगा, वही मैंने लिखा है । लोगोंको क्या अच्छा लगता है, क्या भाता है, इसीका विचार कर क्या मैं लिखूं ? उसी कालावधिमें वे और उनके बडे बंधु संजीबचंद्र ‘बंगदर्शन’के संपादक थे । ‘बंगदर्शन’की नवीन पत्रिकाके मिलानका काम अंतिम स्तरपर था, तब उसमें कुछ स्थान शेष था । बंकिमचंद्रजीके पटलके खंडमें (दराजमें) रखी कविताकी व्यवस्थापकोंने परिशिष्टके रूपमें मांग की । कुछ रुष्ट होकर ही उन्होंने कविता देनेके लिए हां की । एक बार उनकी बेटीने भी बताया, ‘लोगोंको यह गीत कुछ भाया नहीं । मुझे भी अधिक नहीं भाया’ । उन्होंने कहा, ‘‘यह कविता अच्छी है अथवा नहीं, इसका पता अब नहीं चलेगा, कुछ समयोपरांत उसका महत्त्व लोगोंको समझमें आएगा । उस समय कदाचित मैं जीवित भी न रहूं; परंतु आप रहेंगे । एक दिन ऐसा आएगा कि पूरे देश और देशवासियोंके मुखमें यह गीत वेदमंत्रसमान होगा ।’’

        यथार्थमें वैसा ही होना था । केवल ५६ वर्षकी आयुमें १४-१५ उपन्यास, गद्य लेखनके कुछ ग्रंथ, कविता संग्रह और ‘वंदे मातरम्’ यह महामंत्र भारतवासियोंके लिए छोडकर बंकिमचंद्र स्वर्ग सिधार गए । उनकी पूरी आयुमें गीतकी धुन बनाने, स्वरलेखन करने जैसी बातें हुर्इं अवश्य; परंतु खरे अर्थमें वर्ष १८९६ में कलकत्ता (आजका कोलकाता) में हुए कांग्रेसके अधिवेशनमें उनका कार्य लोगोंके सामने आया । खुले अधिवेशनमें गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोरजीने उसे गाया; परंतु उसके ९ वर्ष उपरांत ही बंगालके विभाजनके समय वह जनमानसमें घर करने लगा । प्रशासकीय सुविधाओंके लिए किया गया विभाजन इतना महंगा पडेगा, ऐसा लॉर्ड कर्जनने सोचा भी न था । वर्ष १९०७ में अरविंद घोषने लिखा कि बंगालके लोग विभाजनके प्रति उदासीन थे । जब वे प्रेरणाके लिए यहां-वहां देख रहे थे, तब उसी मंगलक्षण किसीने ‘वंदे मातरम्’ कहा । लोगोंको मंत्र मिल गया और एक ही दिनमें पूरा राष्ट्र ‘देशभक्ति’ नामक धर्मका अनुयायी बन गया । ‘उत्तिष्ठ, जाग्रत’ (उठो, जागो) ऐसा संदेश ‘वंदे मातरम्’ने दिया । धार्मिक संकल्पनोंसे देशभक्ति, मांगल्य और मातृपूजनकी भावना जोडते हुए एक महान मंत्र बंकिमचंद्रजीने राष्ट्रको दिया ।

भारतीयोंको प्रेरित करनेवाले ‘वंदे मातरम्’पर बंदी लानेवाला ब्रिटिश शासन

       ‘वंदे मातरम्’ ये शब्द केवल बंगाली लोगोंके होंठोंपर ही नहीं, अपितु चूडियोंकी कलाकृतिमें (नक्काशीमें), कुर्ते और साडियोंके छोरोंपर (किनारोंपर) तथा दियासलाईके वेष्टनोंपर (कवरपर) भी दिखाई देने लगे । यह गीत राष्ट्रीय गीतके रूपमें सर्वत्र गाया जाने लगा । उसकी बढती लोकप्रियताके कारण वर्ष १९०८ के आसपास ब्रिटिशने इस गीतके गायनपर बंदी लगा दी । विशेष बात तो यह थी कि ब्रिटिश और फ्रांसीसी ग्रामोफोनके आस्थापनोंने (कंपनियोंने) ही एवं उनके दलालोंने इस गीतका महत्त्व तथा लोकप्रियताको पहचानकर ग्रामोफोन ध्वनिमुद्रिकाएं (रेकॉर्ड्स्) बनाना आरंभ किया । आरक्षकोंने (पुलिसने) धावा बोलकर इन प्रतिष्ठानोंकी अधिकांश सामग्री नष्ट की । दुर्भाग्यसे रविंद्रनाथजीकी ध्वनिमुद्रिकाओंको छोडकर इस आरंभिक कालमें किया गया अन्य सर्व ध्वनिमुद्रण नष्ट हुआ है ।

स्वतंत्रता संग्राममें प्रेरणादायी बने ‘वंदे मातरम्’पर लादी
गई बंदी देशवासियोंद्वारा नकारी जाना, यह उसके सामर्थ्यका परिणाम

       ‘केवल दो ही शब्दोंवाले इन मंत्रवत् अक्षरोंकी जादू और मोहिनी इतनी थी कि सर्व प्रकारकी बंदी एवं बंधनोंको नकारकर यह गीत बंगालसे बाहर निकलकर देशभरमें सर्वत्र जन-जनके होठोंपर आया । सार्वजनिक सभाएं, सम्मेलन, आंदोलन और संग्राम, चलचित्रके गीत एवं नाट्यपद, एकल और वृंद गान, शास्त्रीय संगीतके कार्यक्रम (महफिलें), वाद्यवृंदका गायन जैसे अनेकानेक माध्यमोंद्वारा निरंतर लोगोंके बीच यह गीत गाता-बजता रहा । स्वतंत्रतापूर्व कालमें अनेकोंने यह गीत मुद्रित कर रखा । स्वतंत्रता संग्राममें ‘वंदे मातरम्’ यह प्रेरक घोषणा बनी, तो क्रांतिकारियोंके मुखमें वह सांकेतिक शब्द बन गया । मादाम कामाद्वारा बनाए गए कांग्रेसके प्रथम ध्वजपर ‘वंदे मातरम्’ अक्षर लिखे गए ।

संदर्भ : हिंदी मासिक सनातन प्रभात

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