महाराष्ट्र राज्य के पूना मंडल के (जिला) भोर उपमंडल में (तहसिल) हिरडस मावळ नाम का एक प्रदेश है । वहां के रुद्रपराक्रमी नरवीर अर्थात बाजी प्रभू देशपांडे ! वह प्रदेश के वंशपरंपरागत देशकुलकर्णी (प्रदेश का लेखा-जोखा संभालनेवाले अधिकारीयों का प्रमुख) थे । बाजी छत्रपती शिवाजी महाराज के विरोधक बांदलों के प्रधान (दिवाण) थे । बाजीप्रभू देशपांडे महापराक्रमी तो थे ही साथ-साथ वह त्यागी, स्वामिनिष्ठ, दृढप्रतिज्ञ, तथा निःस्वार्थी थे । ५० वर्ष की आयु में दिन के २०-२२ घंटे काम करके भी न थकनेवाले बाजी का संपूर्ण मावळ प्रदेश में बडा प्रभाव था । उनकी प्रशासकीय कार्यकुशलता, शौर्य और गुण पहचानकर छत्रपती शिवाजी महाराज ने यह अष्टावधानी व्यक्तिमत्व स्वराज्य के लिए उपयुक्त जानकर उन्हें स्वराज्य के लिए अपना योगदान देने का संदेसा भेजा । जिसे बाजी ने भी अपना और अपने स्वामी बांदलों का बहुमान समझकर अपने स्वामीसहीत अपनी जीवननिष्ठा छत्रपती के श्रीचरणों में अर्पित की ।
महाराज की अपेक्षा आयु में बडे होने से वे उन्हें पितृतुल्य थे । इस कारण बाजीप्रभूजी के मन में महाराज के संबंध में आत्यंतिक प्रेम के साथ भक्तिभाव भी था और पितृतुल्यस्नेह के कारण चिंता भी रहती थी । पन्हालगढ को सिद्दी जौहरने घेरा डाला था । उस भयानक घेरे से छत्रपती को सुरक्षित निकालकर विशाल गड तक पहुंचाने की व्यवस्था करते समय बाजीप्रभूजी ने केवल शौर्य, पराक्रम ही नहीं अपितु अपने प्राणों की भी बाजी लगाकर अपना नाम सार्थ किया । यह प्रसंग हमें प्रेरणा देनेवाला, स्वराज्य का अभिमान आज भी अपने रोमरोम में जागृत करनेवाला है । बाजीप्रभूजी ने ‘स्वराज्य का निर्माता’ सुरक्षित रहने के लिए अपने प्राण अर्पण किए । उनके अतुलनिय पराक्रम को हिंदुओं की आनेवाली असंख्य पिढीयां निश्चय ही स्मरणवंदना करेगी ।
पावनघाटी का युद्ध
वर्षाऋतु का आषाढ मास चल रहा था । पन्हालगढ को आदिलशाही सेनानी सिद्दी जौहर का घेरा पडे चार मास होने को आए थे और उसमें सह्याद्री का पुरुषसिंह अर्थात छत्रपती शिवाजी महाराज फसे थे । सारे स्वराज्य पर चिंता की काली घनी छाया पडी थी; परंतु यह पुरुषसिंह मां भवानी का भक्त भी तो था । अतः माने इस संकट से निकलने का मार्ग अपने भक्त को दिखा ही दिया । कुछ गुप्तचरों ने घेरे से निकलने का एक दुर्गम मार्ग ढूंढ निकाला और गढपर उत्साह छा गया ।
महाराज ने अपने कुछ गिने-चुने लोगों से मंत्रणा की और सिद्दी जौहर को पत्र लिखा कि, आप मुझे पितृतुल्य हैं, यदि मेरे अपराधों को क्षमा करके, मेरी सुरक्षा वचन देते हैं, तो हम स्वयं आपसे मिलने आएंगे और जैसा आप कहेंगे, वैसा हम करेंगे । यह पत्र अपने राजदूत गंगाधरपंत द्वारा भेजकर शत्रु को आमिष दिखा दिया और आषाढ पुर्णिमा की अर्थात गुरुपुर्णिमा की रात्रि को प्रत्यक्ष गढ छोडकर गुप्तचरों ने बताए मार्ग से विशालगढ जाने का निर्णय लिया । इस अभियान का संपूर्ण उत्तरदायित्व रुद्रपराक्रमी बाजी प्रभू देशपांडेजी ने ले लिया । पुर्णिमा होकर भी चंद्रप्रकाश का कहीं अस्तित्व ही नहीं था । वर्षाऋतु के कारण प्रचंड मेघगर्जना, तीव्र बवंडर, कडकती सौदामिनी और मुसलाधार वर्षा के कारण ऐसा लग रहा था मानो निसर्गदेवता रुद्रतांडव कर रही है । वह भी राजा को अनुकूल हो गयी ।
महाराज शरण आने की वार्ता से शत्रु के घेरे में कुछ शिथिलता आयी थी । महाराज पालकी में बैठे । बाजी हाथ में तलवार लेकर पालकी के साथ चल पडे । साथ में एक और पालकी तथा १००० सैनिक गढ से निकल पडे । गुप्तचर आगे चल रहे थे । धिरे-धिरे घेरा पार कर दिया । इतने में शत्रु के सैनिकों को कुछ आशंका हुई । वह चिल्लाए – ठहरो; परंतु बाजी के सैनिकों ने वेग बढाया । यदि ऐसा संकट आए तो क्या करना है, यह पहले ही निश्चित हुआ था ।
वह दुसरी पालकी और उसके साथ ४०० सैनिक उसी मार्गपर दौडने लगे और महाराज की पालकी, बाजी तथा ६०० सैनिक दुसरे अति दुर्गम मार्ग से आगे बढे । इधर शत्रु सैनिकों ने भागकर सिद्दी जौहर को वार्ता दे दी कि, शिवाजी महाराज भाग गए । जौहरपर मानो पहाड टुट पडा । कुछ क्षण वह हतप्रभसा हुवा । अगले ही पल उसने चिल्लाकर महाराज का पीछा करने के लिए अपने दामाद सिद्दी मसूद को कहा । सैनिकों ने बताए मार्ग अनुसार सिद्दी मसूद अपने अश्वदल को लेकर दौडा । अंत में पालकी पकड ली, पालकी में बैठे ‘महाराज’ देखे और उसने बडे आनंद तथा अभिमान से पालकी अपने घेरे की ओर मोडने को कहा । पालकी सिद्दी जौहर के पटमंडप के (शामियाना) सामने आयी । पालकीमें से ‘महाराज’ उतरकर अंदर चले आए । सिद्दी जौहर सामने आया ।
कुछ बात-चित हुई और ‘शिवाजी अपने वश में आया है’ इससे हर्षित जौहर का भ्रम तब टूट गया, जब वह महाराज ना होकर ‘शिवा काशिद’ नाम का एक नाभीक निकला । सिद्दी जौहर अपमान से काला-निला हो गया । उसने क्रोध में आकर अपनी तलवार शिवा काशिद के छाती में गाड दी । इस अंतिम बिदा के समय उस प्रतिशिवाजी ने कहा,‘‘महाराज, आपके नामको कलंक ना लगे, इसलिए तलवार का प्रहार मैने पिठपर नहीं, अपनी छातीपर लिया है, मेरी अंतिम सेवा स्विकार करे स्वामी !’’ उसने पुनः सिद्दी मसूद, फाझलखान (अफझुलखान का बेटा) और सर्जाखान को शिवराय के पीछे दौडाया । पीछा शुरू हुआ शिवराय पालकी में बैठे थे । बीच-बीच में बाजी की ध्वनी उनके कानोंपर आ रही थी । ‘शिघ्र चलो गनीम (मुस्लीम शत्रु) पीछा कर रहा है ।’ ना वर्षा-आंधी की क्षिती, ना कटीले झाड-झंकाड की, ना पत्थर-कीचड की, उद्दिष्ट केवल एक ही था, विशालगढ पहुंचना । वह पूरा करने के लिए वे ६०० वीर वायुवेग से दौड रहे थे ।
सिद्दी मसूद का अश्वदल महाराजा का पीछा कर रहा था । उनके पीछे पदाती सैन्य चल रहा था । पन्हालगढ से विशालगढ ४० मिल की दूरीपर है । रात लगभग ९ बजे पन्हाला छोडने के उपरांत किसी ने एक क्षण भी विश्राम नहीं लिया था । एक ध्येय से प्रेरीत वे ६०० वीर विशालगढ की ओर भाग रहे थे । पन्हाला से ३२ मिल की दूरीपर घोडघाटी तक १२-१३ घंटे अथक दौडकर महाराज सुरक्षित पहुंचे; परंतु पीछा करता हुआ शत्रु प्रति क्षण पास आ रहा था । एक एक क्षण अति महत्त्वपूर्ण था । बाजी ने अपने पितृतुल्य वात्सल्य से राजा को ३०० सैनिक लेकर विशालगढ जाने को कहा । राजाने कहा ‘‘नहीं बाजी ! जान की बाजी लगाकर आप हमें यहां तक लाए हैं, आगे जो होगा वह मिलकर करेंगे;’’ परंतु बाजीने उन्हें अपने आयु के अधिकार से थोडी कठोरता से कहा ‘‘महाराज कृपा करके आप एक क्षण भी विलंब ना करे, अन्यथा इतना सारा किया-कराया व्यर्थ जाएगा । आप सुरक्षित पहुंचने पर शतध्नीके (तोप) ५ विस्फोट (बार) किजीए और यह भी कहा कि ‘‘जब तक आपकेद्वारा किए गए विस्फोटोंकी ध्वनी मैं नहीं सुनता तब तक ना ही शत्रुका एक भी सैनिक घाटीपार होगा और ना ही मैं मरूंगा ।’’
कितना आत्मबल ! महाराज ने आगे बढकर बाजी को बाहों में भरकर कहा ‘‘बाजी आपको विजयी होकर आना है, हम विशालगढपर आपकी राह देखेंगे ।’’ बाजी ने स्वयं महाराज को पालकी में बिठाया और हर हर महादेव की गर्जना करके अभिवादन किया । महाराज निकल पडे । बाजी ने एक बार अपनी दृष्टि चारो ओर घुमाई, घने वन में छिपी ६ (फर्लांग) लंबी घोडघाटी को देखा, अपनी ओर देख रहे सैनिकों को देखा और बोले ‘‘जब तक महाराज विशालगढ नहीं पहुंचते तब तक एक भी गनिम घाटीपार जाने ना पाए । ’’ महाराज की सुरक्षा का उत्तरदायित्त्व अब हमपर है । ३०० कंठसे एकसाथ जयघोष निकला हर हर महादेव ! बाजीने शत्रुको रोकने के लिए शिघ्र व्युहरचना की ।
उंचाईपर और आसपास की झाडी में सैनिक नियुक्त किए । उपर से ढकेलने के लिए शिलाखंड एकत्रीत किए । शत्रु अपने आक्रमण के परिधि में आनेपर आक्रमण करना था । निर्णायक युद्ध के लिए सब सुसज्ज हो गए । पूरी रात पैदल दौडकर थके हुए, भूके प्यासे सैनिक अब शत्रु के उत्साही और संख्याबल में भी अधीक सैनिकों से लढेंगे । पूर्व दिशा से अश्वों के टापों की ध्वनी सुनायी देने लगी । शत्रु दिखने लगा । उस दुष्कर मार्गपर सिद्दी मसूद का अश्वदल आगे बढने लगा । परिधि में शत्रू आनेपर बाजी ने हर हर महादेव का जयघोष किया और शत्रुपर पत्थरों की वर्षा होने लगी । एकाएक हुए इस आक्रमण से भगदड मच गयी । गनिमों के एक भी अश्वारोही को आगे बढना कठिन कर दिया । दिन ढलने लगा । तबतक मसूद के पदाती सैनिक भी आ गए । शत्रु का बल बढा । फिर भी शत्रु को उपर चढने में बहुत समय लगा ।
अब आसपास की झाडी में से बाजीप्रभू अपने सैनिकों के साथ बाहर निकले और प्रत्यक्ष रणांगण में शस्त्रों से लढाई आरंभ हुई । महाराज का एक-एक सैनिक शत्रु के दस- दस सैनिकों को भारी पड रहा था । बाजी ने तो मानो अपने देह की तटबंदी करा रखी थी । बाजी के बडे बंधू फुलाजीप्रभू भी उतने ही आवेश से लढ रहें थे । इतने में शत्रु के एक तीखे प्रहार से फुलाजी के हाथ से तलवार गिरने लगी । बाजी ने अपने हाथ की ढाल फेंक दी और लपककर फुलाजी की तलवार ले ली । फुलाजी से बोले ‘‘भैय्या आप बडे होने के नाते यह वीरोचीत सम्मान आपने पहले लिया, यह उचीत भी है, प्रणाम भैय्या ।’’ अब बाजी दोनो हाथोमें दो तलवारे लेकर लढने लगे । उनका आवेश देखकर शत्रू भी दिङ्मूढ रह गया । शाम होने को आयी । अब तक एक भी शत्रुसैनिक घाटीपार न हो सका था । बाजी के भी केवल ५०-६० सैनिक बचे थे और शत्रु के उत्साही (ताजादम) सैनिक आगे बढ रहे थे; फिर भी महाराज के सैनिक उसी उत्साह और साहस से लढ रहे थे ।
अब बाजी का देह पूरा लाल दिख रहा था । नए घाव को शरीरपर स्थान ही नहीं था । ऐसा लग रहा था मानो मृत्यू भी विस्मितसी देख रही थी; परंतु बाजी के कान विशालगढ से आनेवाले शतध्नी के विस्फोट के ध्वनी की ओर लगे थे । जब तक महाराज विशालगढ नहीं पहुंचते तब तक मृत्यू भी उनको हाथ नहीं लगा सकती थी । उसी क्षण विशालगढ से आनेवाले शतध्नी के विस्फोट की ध्वनी उनके कानोंपर पडी । ध्वनी सुनकर अत्यानंद से बाजी के साथ सभी सैनिक एक साथ गर्ज उठे हर हर महादेव ! महाराज सुरक्षित पहुंच गए; परंतु हाय !
शत्रु का एक प्रहार इस प्रकार बाजी को आहत कर गया कि, वह अचेत होने लगे, उन्होंने अपने हाथ से शस्त्र फेंक दिया और अपने स्वामी को अंतिम प्रणाम किया तथा अत्यंत कृतार्थ होकर शांती से अपना देह त्याग दिया । बाजी एवं फुलाजी यह बंधू द्वय घोडघाटी में सिद्दी के सैन्य के लिए महाकाल बनकर खडे हुए । अखंड २१ घंटे दौडे हुए, थके, भूखी-प्यासी अवस्था में होते हुए भी केवल ३०० मराठा सैनिकों ने जिस धैर्य से लगभग ७ घंटे सहस्त्रावधी सैनिकों से युद्ध किया, यह इतिहास में एकमेवाद्वितीय है । सिद्दी मसूद के सैन्य को रोकते हुए, मारे जानेवाले मराठा वीर, धारातीर्थी पडे बंधू फुलाजी, घायल हुवा स्वयं का देह इनमें से किसी भी बात का बाजी को भान ही नहीं था । उन्हें तो केवल महाराज की सुरक्षा की चिंता थी । घोडघाटी का यह युद्ध मराठों के इतिहास में पराक्रम की परिसीमा मानी जाती है ।
‘घोडघाटी – बाजीप्रभू के रक्ताभिषेक से पावन होने से यह ‘पावनघाटी’ बन गयी । यह वह स्थान है जहां मृत्यू भी उनसे लज्जित हुई ।’
बाजी – फुलाजी बंधूओं का विशालगढपर, महाराज की उपस्थिती में अंत्यसंस्कार किया गया । आज भी उन दो नरवीरों की समाधी विशालगढपर है तथा पन्हालगढपर बाजी प्रभू की पूर्णाकृती प्रतीमा खडी है । पराक्रम की परिसीमा का अर्थ समझना हो, तो पावनघाटी के इस युद्ध को स्मरण करना चाहिए । यह घाटी कोल्हापूर मंडल में है । धन्य है वे नररत्न तथा धन्य है वह राष्ट्र जो ऐसे नररत्नों की खाण है । एक ढुंढने जाओ, तो अगणित मिल जाते हैं ।
‘रणचंडी के पुजारी मानो, पावनघाटी के आजि । विशालकाय दिखते दोनो, बाजी एवं फुलाजी ।।’ |
अर्थ : विशाल देह धारण करनेवाले बाजी एवं फुलाजी यह दो भाई पावनघाटी के युद्ध में जैसे रणचंडी के पुजारी बने । युद्ध, संग्राम, लढाई आईए हम भी ईश्वर से प्रार्थना करें, कि वह हमें भी ईश्वरी (हिंदु) राष्ट्र निर्मिती हेतू आवश्यक आध्यात्मिक बल प्रदान करें, हमसे समष्टी साधना करवा लें ।
संदर्भ :
मराठ्यांची धारातीर्थे – प्रवीण भोसले, नरसिंह पब्लिकेशन्स
राजाशिवछत्रपती – पुरंदरे प्रकाशन
महारुद्र बाजीप्रभू – अक्षय विद्या प्रकाशन
शककर्ते शिवराय – विजयराव देशमुख, छत्रपती सेवा प्रतिष्ठान प्रकाशन, नागपूर.