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‘मराठा नौदल प्रमुख’ सागरके सम्राट कान्होजी आंग्रे



लगभग २५ वर्षों तक भारतके कोंकणका सागरी तट स्वराज्यमें सुरक्षित रखनेमें सफल

सारणी


 

१. आरंभिक जीवन

(जन्म: अगस्त १६६९, देहांत: ४ जुलाई १७२९)

        सागरके सम्राट कान्होजी आंग्रेको नौसेनाधिपति (सरखेल) आंग्रे भी कहा जाता है । १८ वीं शताब्दीमें वे मराठा साम्राज्यकी नौसेनाके सेनापति थे । उन्होंने हिंद महासागरमें अंग्रेज, पुर्तगाली और डच नौसैनिक गतिविधियोंके विरुद्ध भीषण युद्ध किया । उनके पिता तान्होजी आंग्रे भी छत्रपति शिवाजी महाराजके सैनामें नायक थे और कान्होजी आंग्रेका बचपनसे ही मराठा सैन्यके साथ संबंध रहा । उन्होंने मराठा नौसेनाको एक नए स्तर पर पहुंचाया और कई स्थानोंपर मराठा नौसैनिक तल स्थापित किए, जिनमें विजयदुर्ग (मुंबई से ४२५ कि.मी. दूर), आदि समाविष्ट थे । वे मृत्यु पर्यंत अपराजित रहे ।

 

        विदेशी शत्रुओंको तहस-नहस करके उनकी नींद उडानेवाले मराठा सेनानी, (सरदार) ‘सागराधिपति’ कान्होजी ! पुणे मंडलके (जिला) खेड उपमंडलमें कालोसे गांवके आंगरवाडी प्रभागमें १६६९ को उनका जन्म हुआ और उसीके कारण उनका कुलनाम आंग्रे हुआ ।

 २. युद्धकाल

        छत्रपति शिवाजी महाराजके कालमें कान्होजी सुवर्णदुर्गपर चाकरी करते थे । १६८८ को सुवर्णदुर्गका दुर्गपाल अचलोजी मोहिते धनके लोभमें आकर दुर्ग सिद्दीको सौंप देनेवाला है, यह गुप्तवार्ता मिलनेपर कान्होजीने सिद्दीसे युद्ध किया और अपने पराक्रमके बलपर सिद्दीको पराजित किया । सुवर्णदुर्गका युद्ध जीतकर उन्होंने अपनी विजययात्रा आरंभ की और मुगलोंके अधिकारसे दुर्ग छीनने लगे । वर्ष १६९८ को नौदलसेनापति सिधोजी गुजरजीके निधनपर राजाराम महाराजने उन्हें नौदलअधिपति बनाया । वे आजीवन उस पदकी प्रतिष्ठा बढाते रहे ।

मराठा – मुगल युद्धमें पूरा कोकणतट कान्होजीने संभाला । अंग्रेज, पुर्तगाली, डच और सिद्दीको नाकों चने चबवाए । संपूर्ण सागरपर अपना वर्चस्व प्रस्थापित किया; इसी कारण उन्हें आगे चलकर सागरस्वामी शिवाजी कहकर पहचाना जाने लगा ।

३. अनुभवी योद्धा

        कर्तृत्व, पराक्रम और स्वामीनिष्ठाकी परंपरा कान्होजीको अपने पूर्वजोंसे ही मिली थी । फिर भी स्वपराक्रमसे, अपनी एक स्वतंत्र छाप उन्होंने इतिहासमें छोडी है । छत्रपति राजाराम महाराजके कालमें मराठोंका अस्तित्व टिकानेका उत्तरदायित्त्व कान्होजीपर था । अपने अनुभव तथा कूटनीतिसे वे शत्रुका सामना कर रहे थे । उनकी योग्यता देखकर ही राजाराम महाराजने उन्हें ‘सागराधिपति’ यह सम्मानजनक पद दिया ।

        कान्होजीने श्रीबागका (अलिबाग) कुलाबा दुर्ग जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया । १७०० को महारानी ताराबाईने (राजाराम महाराजकी धर्मपत्नीने) भी इस महापराक्रमी वीरको सम्मानित करके सावंतवाडीसे लेकर मुंबई तकका सागरीतट सुरक्षाके लिए उनके अधिकारमें दिया । इस नए आव्हानके साथ कान्होजीको एक ही समयमें विदेशियों तथा स्वदेशियोंके साथ युद्ध करना पड रहा था । १७०७ को मराठाराज्यमें फूट पडनेसे उन्होंने अपना स्वतंत्र कार्यकाज चालू किया; परंतु आगे चलकर उनके बालमित्र बालाजी विश्वनाथ पेशवेजीने उन्हें सताराके (छत्रपति शाहू महाराज) साथ संधि करनेको सम्मत कर लिया ।

 ४. संपूर्ण सागरी सत्ताके रक्षक

        कोकणके साथ कच्छ, सौराष्ट्रसे त्रावणकोर, कोचीनतककी सागरी सत्ता कान्होजीके हाथमें थी । सागरपर स्वैर संचार करनेवाले विदेशियोंपर प्रतिबंध लगा था । वर्ष १६९८ से मराठा राज्यकी संपूर्ण सागरी सत्ता कान्होजींके हाथमें थी । उनकी अनुज्ञाके बिना कोई भी सागरीमार्गसे व्यापार नहीं कर सकता था । विदेशी सत्ताधीशोंने इसका प्रतिकार करनेकी ठान ली । सर्व विदेशी सत्ताधीश एक होकर, उन्होंने कान्होजीको समाप्त करनेका प्रयास किया; परंतु उन्होंने सभीको पराजित किया ।

 

        शत्रुके आक्रमणोंका सामना करनेके लिए उन्होंने दूरदृष्टिसे पहले ही अनेकोंसे मित्रताके संबंध बनाए थे । इन्हींकी सहायतासे उन्होंने अपना नौदल अधिक शस्त्रसज्ज किया । पुर्तगालियोंकी सहायतासे ही शस्त्रनिर्मितिका उद्योगालय (कारखाना) और कुलाबा, विजयदुर्ग, सुवर्णदुर्गपर सुधारित पद्धतिके जलयान (जहाज) बनानेके उद्योगालय खडे किए और बडी सुसज्जताके साथ कान्होजीने समुद्रतट अपने नियंत्रणमें लिया ।

५. धार्मिक स्थलोंके रक्षक

        कान्होजीका युद्ध धार्मिक आक्रमणके विरोधमें भी था । उन्होंने कोंकण तथा पंढरपुर, आलंदी, जेजुरी, तुलजापुरके देवस्थानोंको, मठ-मंदिरोंको अग्रहार तथा धन भी अर्पण किया । छत्रपति शिवाजी महाराजजी की मृत्युके पश्चात् भी औरंगजेब मराठी प्रदेश हस्तगत नहीं कर पाया; क्योंकि स्वराज्यकी सुरक्षामें अनेक शूर मराठा सेनानियोंका योगदान था । कोंकणतटपर राजसत्ताका जागृत पहरा देनेवाले कान्होजी उन्हींमेंसे एक थे ४ जुलाई १७२९ तथा आषाढ कृ. पंचमीको कान्होजीने संसारका त्याग किया । हम सभी मिलकर उनसे राष्ट्ररक्षाकी प्रेरणा लेते हुए, उस अपराजित, महापराक्रमी योद्धाको वंदना करते हैं ।

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