सारिणी
- १. इतिहास पुरुषः महाराजा छत्रसाल
- २. पिताके दोस्त राजा जयसिंह के सेना में भरती होना
- ३. छत्रपति शिवाजी महाराज से मिलके स्वराज का मंत्र लेना
- ४. औरंगजेब के विरूद्ध संघर्ष का शंखनाद
- ५. औरंगजेब के सेनापती को पराजित करना
- ६. बुंदेले राज्य की स्थापना
- ७. मुहम्मद बंगस का आक्रमण और बाजीराव पेशवा का सहाय्य लेना
- ८. राज्य संचालन के बारे में छत्रसाल का सूत्र
- ९. कलाका सम्मान करनेवाले महाराजा छत्रसाल
- १०. प्रतापी महाराजा छत्रसाल का निधन
सत्ता और संघर्ष की बढ़ी-चढ़ी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है, परंतु स्वतंत्रता और सृजन के लिए जीवन भर संघर्ष करने वाले विरले ही हुए हैं। मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने ८२ वर्ष के जीवन और ४४ वर्षीय राज्यकाल में ५२ युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है । वीरों और हीरोंवाली माटी के इस लाड़ले सपूत ने कलम और करवाल को एक-सी गरिमा प्रदान की थी।
उनके पिता चंपतरायने पूरे जीवनभर विदेशी मुगलों से संघर्ष करते हुए अपने ही विश्वासघातियों के कारण सन १६६१ में अपनी वीरांगना रानी लालकुंआरि के साथ आत्माहुति दी ।
१. इतिहास पुरुषः महाराजा छत्रसाल
चंपतराय जब समय भूमि मे जीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल ३ संवत १७०७ (सन १६४१) को वर्तमान टीकमगढ़ जिले के लिघोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म हुआ। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र १२ वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ।
पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया।
जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे १२-१३ वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं ? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-पिताका
अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला।
२. पिताके दोस्त राजा जयसिंहके सेनामें भरती होना
उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औरंगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला । सन १६६५ में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गया उनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते पर इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।
३. छत्रपति शिवाजी महाराजसे मिलके स्वराज का मंत्र लेना
इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन १६६८ में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियें का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे। दौर देस मुगलन को मारो दपटि दिली के दल संहारो। तुम हो महावीर मरदाने करि हो भूमि भोग हम जाने। जो इतही तुमको हम राखें तो सब सुयस हमारे भाषे। |
शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन १६७० में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल भिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने ५ घुड़सवार और २५ पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. १७२८ (सन १६७१) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।
४. औरंगजेबके विरूद्ध संघर्ष का शंखनाद
छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में राजे-रजवाड़े नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही शामिल हुए थे। चचेरे भाई बलदीवान अवश्य उनके साथ थे। छत्रसाल का पहला आक्रमण हुआ अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बांसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए।
ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता। सन १६७१ में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया।
५. औरंगजेब के सेनापती को पराजित करना
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनापती रणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा। इस विजय से छत्रसाल के हौसले काफी बुलंद हो गये।
सन १६७१-८० की अवधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
सन १६७५ में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-
छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।
६. बुंदेले राज्य की स्थापना
इसी अवधि में छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत १७४४ की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चैथ देने लगे।
बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते। परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस मे क्षेत्र में बुंदेला राज्य स्थापित हो गया। सन १७०७ में औरंगजेब का निधन हो गया। उसके पुत्र आजम ने बराबरी से व्यवहार कर सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसाल ने संप्रभु राज्य के आगे यह अस्वीकार कर दी।
७. मुहम्मद बंगस का आक्रमण एवं बाजीराव पेशवा का सहाय्य लेना
महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग ८० वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बुंदेल की राखौ बाजी लाज।
फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला।
यहीं कारण था छत्रसाल ने अपने अंतिम समय में जब राज्य का बंटवारा किया तो बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी। कतिपय इतिहासकार इसे एक संधि के अनुसार दिया हुआ बताते हैं पर जो भी हो अपनी ही माटी के दो वंशों, मराठों और बुंदेलों ने बाहरी शक्ति को पराजित करने में जो एकता दिखायी, वह अनुकरणीय है।
८. राज्य संचालनके बारेमें महाराजा छत्रसाल का सूत्र
छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया। राज्य संचालन के बारे में उनका सूत्र उनके ही शब्दों में –
राजी सब रैयत रहे, ताजी रहे सिपाहि
छत्रसाल ता राज को, बार न बांको जाहि।
यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से एक करोड़ आठ लाख रुपये की आय होती थी। उनके एक पत्र से स्वष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय १४ करोड़ रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोड़े थे।
९. कलाका सम्मान करनेवाले महाराजा छत्रसाल
छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी। वे स्वयं कवि तो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे। अद्वितीय उदाहरण है कि कवि भूषण के बुंदेलखंड में आने पर आगवानी में जब छत्रसाल ने उनकी पालकी में अपना कंधा लगा दिया तो भूषण कह उठेः
और राव राजा एक चित्र में न ल्याऊं-
अब, साटू कौं सराहौं, के सराहौं छत्रसाल को।।
१०. प्रतापी छत्रसाल महाराज का निधन
प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् १७८८ (दिसंबर १७३१) को छतरपुर (नौ गांव) के निकट मऊ सहानिया के छुवेला ताल पर अपना शरीर त्यागा और विंध्य की अपत्यिका में भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये। बुंदेलखंड ही नही संपूर्ण भारत देष ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति पीढ़ी दर पीढ़ी कृतज्ञ रहेगा।
संदर्भ : www.bundelkhand.in
काश ये इतिहास नो जवान पीढी को पढाया जाता