‘भारतकन्या’ मैडम कामा


        २१ अगस्त १९०७ को जर्मनीके स्टुटगार्ट नगरमें (शहर)  अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी परिषद’ का आयोजन हुआ था । इस परिषदके लिए विश्वसे १ सहस्र प्रतिनिधि वहां एकत्रित हुए थे । हिंदुस्थानी प्रतिनिधिका समय आया तो किसी राजघरानेकी लगनेवाली और आत्मविश्वाससे भरपूर एक प्रौढ स्त्री व्यासपीठपर आर्इं । उन्होंने अपना प्रस्ताव रख दिया । ‘‘हिंदुस्थानमें जो ब्रिटिश राज्य है, वह वैसा ही आगे चलता रहे, यह हिंदुस्थानी जनताके सच्चे हितके लिए अत्यंत बाधक एवं नितांत घातक है । आदर्श सामाजिक व्यवस्थाकी दृष्टिसे किसीपर भी अधिनायकता (हुकूमशाही) अथवा अत्याचारी स्वरूपका शासन नहीं होना चाहिए । इसलिए विश्वभरके स्वतंत्रताके उपासकोंको उस पीडादायक देशमें रहनेवाले, सर्व मानवी लोकसंख्याके एक पंचमाश लोगोंको परतंत्रतासे मुक्त करनेके कार्यमें सहायता करनी चाहिए !”

        प्रस्ताव रख देनेपर उन्होंने चोरी-छिपे अपने साथ जो हिंदुस्थानका तिरंगा ध्वज लाया था, वो अभिमानसे वहां फहराया । अपनी खनकते स्वरमें वे बोलीं, ‘‘यह हिंदुस्थानकी स्वतंत्रताका ध्वज है । देखिए, देखिए ! अभी-अभी इसका जन्म हुआ है । हे सभ्य गृहस्थों, मैं आपको आवाहन करती हूं कि उठिए और इस ध्वजको प्रणाम कीजिए !” इस नाट्यपूर्ण घटनासे चकित हुए सर्व प्रतिनिधि खडे हो गए और उन्होंने हिंदुस्थानके पहले स्वतंत्र राष्ट्रध्वजको प्रणाम किया ! कौन थी यह वीरांगना ? इस वीरांगनाका नाम था, मैडम भिकाजी रुस्तम कामा !

सारणी


१. मुंबईसे लंदन

        मैडम कामाका जन्म २४ सितंबर १८६१ को मुंबईमें एक धनी पारसी परिवारमें हुआ था । उनकी माताजीका नाम जायजी और पिताजीका नाम सोराबजी फ्रामजी पटेल था । उनके पिताजी और भाई मुंबईके बडे व्यापारी थे । खंबाला हिलपर उनका विशाल निवासभवन था । माता-पिताने अपनी कन्याका नाम भिकाजी रखा । मुंबईमें ही उनकी शालेय शिक्षा पूर्ण हुई । वे अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी और मराठी भाषाएं जानती थीं  ।

        ३ अगस्त १८८५ को विवादक (सोलिसिटर) रुस्तम खुर्शीद कामाके साथ उनका विवाह हुआ; परंतु शीघ्र ही उन्हें अपने पत्नीपदका अपमान करनेवाले दुर्व्यवहारी पतिका परित्याग करना पडा । घर-गृहस्थीका सुख नष्ट हुआ, फिर भी वे घरमें नहीं बैठीं । उन्होंने समाजसेवामें अपने आपको व्यस्त कर लिया । वर्ष १८९६ को मुंबईमें ग्रंथीज्वरका (प्लेग) पहला बडा प्रादुर्भाव हुआ । तभी ‘पारसी फीवर हॉस्पिटल’में अन्य महिलाओंके साथ उन्होंने रोगियोंकी सेवा की । पुनः वर्ष १८९९ को फैले इस रोगसे वे स्वयं ग्रस्त हो गइं । उससे ठीक होनेपर वैद्यकीय समादेशके (सलाह) अनुसार स्वास्थ्यमें सुधार होनेके लिए वर्ष १९०२ को वे युरोप गइं । युरोपमें उन्होंने जर्मनी, फ्रास एवं स्कॉटलैंडमें एक-एक वर्ष वास्तव्य किया । इस कालावधिमें उनपर एक शस्त्रक्रिया (आपरेशन) भी किया गया । पूर्णत: स्वस्थ्य होनेके उपरांत वर्ष १९०५ को वे लंदन गइं । वहां वे दादाभाई नौरोजींके ‘लंदन इंडिया सोसायटी’के कार्यमें सहभाग लेने लगीं । साथ ही उनकी संलग्नता हिंदुस्थानी क्रांतिकारियोंके आश्रयस्थान ‘इंडिया हाऊस’ से भी बढती गई । वह लंदनके हाईड पार्क जैसे स्थानोंपर हिंदुस्थानकी स्वतंत्रतापर धधकती भाषाशैलीमें व्याख्यान देने लगीं । इसी अवधिमें अर्थात् २४ जून १९०६ को विनायक दामोदर सावरकर नामका युवक भी लंदन आया ।

२. ध्वज सीकर तथा बुनकर बनाया

        लंदनमें रहते हुए ही १८ अगस्त १९०७ को आरंभ होनेवाले अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी परिषदका निमंत्रण मैडम कामाको मिला । विगत १० वर्षोंसे इस परिषदका आयोजन होता था । इस वर्ष यह वार्षिक अधिवेशन जर्मनीके स्टुटगार्ट नगरमें आयोजित किया गया था । हिंदुस्थानकी स्वतंत्रताके प्रश्नको अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर बल मिलनेके लिए सावरकरजी सदा प्रयत्नरत रहते थे । सावरकरजीने ही सुझाया कि इस परिषदमें मैडम कामा और विधिवक्ता (बैरिस्टर) सरदारसिंह राणा, ये दोनों हिंदुस्थानका प्रतिनिधित्व करें । वहां प्रस्तुत किया जानेवाला प्रस्ताव भी सावरकरजीने लिखकर दिया ।

        प्रस्ताव परिषदमें रखना तो निश्चित हुआ; परंतु वहां फहरानेके लिए अपने राष्ट्रका स्वतंत्र ध्वज नहीं, यह बात सावरकरजीके ध्यानमें आई । हिंदुस्थानके राष्ट्रध्वजके रूपमें ब्रिटिशोंका युनियन जैक ही काँग्रेसकी ओरसे लहराया जाता था तथा उसीका जयजयकार भी होता था ! सावरकरजी कहां शांत बैठनेवाले थे ? अर्थात उनके प्रतिभासंपन्न व्यक्तिमत्वसे ही हिंदुस्थानके पहले तिरंगी राष्ट्रध्वजका जन्म हुआ । सावरकरजीकी प्रतिभा ऐसी अलौकिक थी की, हिंदुस्थानके स्वतंत्रतासंग्राममें और उसके पश्चात् भी जितने ध्वज लहराए गए, वे अधिकतर तीन रंगी ही थे !

        मैडम कामा और शामजी कृष्ण वर्माजींकी पत्नी भानुमती इन  दोनोंने उस उस रंगके ऊंची काशूक (सैटिन) और रेशमी कपडेसे वह ध्वज सीकर उसपर बुनाई की । आरक्षकोंकी (पुलिस) कार्यवाहीमें एकाध अधिग्रहित (जप्त) हुआ, तो  दूसरेका उपयोग हो, इस दूरदृष्टिसे ऐसे तीन ध्वज उन्होंने बनाए । इस कार्यमें कोई विघ्न न आए इसलिए उनमेंसे एक ध्वज मैडम कामा छिपाकर इंग्लैंडसे बाहर ले गइं । शेष दो ध्वज विधिवक्ता राणाजी अपने साथ पैरिस ले गए । इसी अवधिमें ब्रिटिश शासनने मैडम कामाको इंग्लैंड छोडकर जानेका आदेश दिया । मैडम कामाने फ्रांसकी राजधानी पैरिसमें स्थलांतर किया । पैरिससे ही वे स्टुटगार्ट गइं ।

३. ध्वजके रंगोंका एवं चिन्होंका अर्थ

        २१ अगस्त १९०७ को मैडम कामाने अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी परिषदमें ध्वज लहरानेपर उसके रंगोंका एवं चिन्होंका अर्थ भी समझा दिया । इस ध्वजके ऊपरका रंग हरा था । उस रंगपर हिंदुस्थानके तत्कालीन ८ प्रांत ८ कमलपुष्पोंसे सूचित किए थे । जिसके लिए सहस्रों युवाओंने आरक्षकों (पुलिस)की गोलियां खाइं, अपने सिर फुडवा लिए और फांसीपर चढते हुए जिस मंत्रकी गर्जना की वह राष्ट्रमंत्र ‘वन्दे-मातरम्’ इस बीचवाले केशरी रंगपर झलकता था । नीचेके लालरंगपर सूर्य-चंद्र ‘यावच्चंद्रदिवाकरौ हिंदुस्थान स्वतंत्र रहेगा’, दर्शाते थे !

        इसमेंसे हरा रंग धैर्य एवं उत्साहका प्रतीक, केशरी रंग विजयका निदर्शक और लाल रंग शक्तिका प्रतीक था । प्रस्ताव प्रस्तुत करनेपर मैडम कामाने उत्साही भाषण किया । भाषणके अंतमें वह ध्वज हाथसे पुनः लहराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मेरा वक्तव्य समाप्त करनेसे पूर्व मैं आपसे यह कहना चाहूंगी कि मुझे आशा है, मेरे जीवित रहते ही हिंदुस्थानमें स्थापित हुआ, प्रजातांत्रिक राज्य मैं देख सकूंगी ।  वन्दे-मातरम् !”

        आगे चलकर पैरिसमें क्रांतिकारियोंकी प्रत्येक बैठकमें मैडम कामाके सामने रखे पटल (टेबल) पर छोटे आकारका यह ध्वज सदा लहराता रहता । इसी ध्वजका एक वस्त्रपुष्प (बैज) उन्होंने बनवाके लिया था । यह वस्त्रपुष्प उनकी छातीपर सदा शोभायमान रहता था ।

        स्टुटगार्टकी परिषदके उपरांत मैडम कामाको अमरीकाके राष्ट्रवादियोंने हिंदुस्थानके स्वतंत्रतासंग्रामका प्रचार करनेके लिए निमंत्रित किया । १९ अक्टूबर १९०७ को वे अमरीका पहुंची । अमरीकामें भी उन्होंने अपने व्याख्यानोंसे हिंदुस्थानमें हो रहे ब्रिटिशोंके अत्याचारोंसे वहांके नागरिकोंको अवगत कराया ।

४. ‘मदन तलवार’ आरंभ किया

        इसी कालावधिमें सावरकरजीका ‘१८५७ का स्वतंत्रतासमर’ ग्रंथ प्रकाशित हुआ । उन्होंने घोषित किया कि ब्रिटिश शासनद्वारा प्रतिबंधित ग्रंथकी प्रतियां अपने पैरिसके अधिवास (पता) पर उपलब्ध होंगी । इस ग्रंथका अनुवाद भी उन्होंने एवं पी. टी. आचार्यजी ने  फ्रेंच भाषामें प्रकाशित किए । मदनलाल धिंग्राजीके कर्जन वायलीका वध करनेपर ५ अगस्त १९०९ को सावरकरजीसे मिलनेके लिए मैडम कामा लंदन आकर गइं । मदनलालजीकी स्मृतिमें उन्होंने ‘मदन तलवार’ नामक नियतकालिक भी सितंबर १९०९ को आरंभ किया ।

        जनवरी १९१० के प्रथम सप्ताहमें क्रांतिके कार्यकी भागदौडसे  सावरकरजीका स्वास्थ्य बिगड गया । विश्रामके लिए तथा स्थानपालट हेतु वे लंदनसे पैरिस मैडम कामाके यहां आए । अबतक मैडम कामा उनकी दूसरी मां ही बन गई थीं । इस असाधारण मां ने २ माहतक सावरकरजी की सेवा-शुश्रूषा की । तबतक महाराष्ट्रके नाशिकमें अनंत कान्हेरेजीने  जैक्सनका वध किया था । इस घटनाका संबंध सावरकरजीसे हो सकता है, यह जानकर पूछताछ चालू हो गई । सावरकरजीने ही संबंधित पिस्तौल हिंदुस्थानमें भेजी थी । हिंदुस्थान एवं लंदनमें अपने सहकारी संकटमें होते हुए स्वयं फ्रांसमें रहना उचित नहीं, यह जानकर सावरकरजी लंदन लौटने लगे । लंदन पहुंचते ही उन्हें बंदी बनाया जा सकता है, यह सोचकर मैडम कामा चिंतित हो उठीं । लंदन लौटनेके विचारोंसे सावरकरजीको परावृत्त करनेका उन्होंने प्रयत्न भी किया; परंतु सावरकरजी अपने  विचारोंपर अडीग रहे । १३ मार्च १९१० को मैडम कामा तथा लाला हरदयालजी सावरकरजीको छोडने आगगाडी (रेल) स्थानकपर आए । उस समय उन दोनोंका मन बडा चिंताग्रस्त हो गया । विक्टोरिया स्थानकपर उतरते ही सावरकरजीको बंदी बना लिया गया और न्यायालयके आदेश अनुसार उन्हें हिंदुस्थानमें भेजनेका निर्णय हुआ ।

५. सावरकरजीकी मुक्तता करनेके प्रयत्न

        सावरकरजीको ‘मोरिया’ जलयानसे (बोट) हिंदुस्थान ले जा रहे हैं, यह बात शासनद्वारा गुप्त रखनेपर भी मैडम कामा तथा उनके सहयोगियोंको मिल ही गई । यह जलयान मार्सेलिस नौकालयमें (बंदरगाह) आ पहुंची है, यह ज्ञात होते ही वी.वी.एस्. अय्यरजीको लेकर वह मोटरसे पैरीससे मार्सेलिस आर्इं; परंतु तबतक सावरकरजीको पुनः पकडकर जलयानपर ले जाया गया था । उन्हें पहुंचनेमें १०-१५ मिनटका विलंब हुआ था । उन्हें बहुत दुःख हुआ; परंतु वे चुप नहीं बैठीं । मार्सेलिसके महापौर जां जोरे को उन्होंने इस बातसे अवगत कराया । उन्होंने जोरेको यह भी बताया कि ब्रिटिश आरक्षकोंद्वारा (पुलिस) फ्रांसकी भूमिपर सावरकरजीको बंदी बनाना यह फ्रांसका अवमान है, यह भी बताया और स्वयं यह समाचार पैरिसके ‘ल तां’ इस वृत्तपत्रको भेज दिया । सावरकरजीको अवैध बंदी बनाया गया, इस समाचार फैलते ही पूरे विश्वमें खलबली मच गई और ब्रिटिश शासनको बडी लज्जासे मानहानि उठानी पडी । इस घटनाके पश्चात् अंग्रेज शासन बडी निर्दयतासे सावरकरजीपर अभियोग चलाएगी, यह जानकर मैडम कामाने मुंबईके विधिवक्ता जोसेफ बप्टिस्टाको तार भेजकर अभियोग चलानेके लिए सावरकरजीसे मिलनेके लिए कहा ।

        सावरकरजी मुक्त हों, मैडम कामाकी यह भावना इतनी तीव्र थी कि इस अवधिमें वे सीधे पैरिसके ब्रिटिश दूतावासमें गइं और उन्होंने वहांके राजदूतको एक लिखित निवेदन दिया । उसमें उन्होंने लिखा था, ‘‘पिस्तौल हिंदुस्थानमें भेजनेका दायित्व सावरकरजीका नहीं, अपितु मैं उत्तरदायी हूं । मैंने ही वह पिस्तौल चर्तुभुज अमीनके साथ हिंदुस्थान भेजी थी ।” इन बातोंसे स्पष्ट होता है कि मैडम कामामें धैर्य, साहस और देशभक्ति कूट-कूटकर भरी थी । इतना ही नहीं उन्होंने सावरकरजीके चरित्रसंबंधी जो भी उनके पास जानकारी थी वह सर्व उन्होंने प्रसिद्धीके लिए समाचारपत्रोंको भेज दी !

        ३० जनवरी १९११ को सावरकरजीको कालेपानीका दंड सुनाया । सावरकरजी अंदमानमें थे तब उनके छोटे भाई, नारायणराव सावरकरजीकी महाविद्यालयीन शिक्षाके लिए मैडम कामाने आर्थिक सहायता भी की । अंग्रेज शासनने मैडम कामाको हिंदुस्थानमें भेजनेकी विनती भी फ्रांसको की; परंतु फ्रेंच शासनने उसको कोई महत्त्व नहीं दिया ।

        पहले महायुद्धके समय मैडम कामा मार्सेलिसके सैनिक शिविरोंमें जाती थीं और वहांके हिंदुस्थानी सैनिकोंको पूछती थीं, ‘‘जिन्होंने आपकी हिंदमाताको दासी बनाया है, उनके लिए आप लडते हो ?” इस युद्धमें फ्रांस इंग्लैंडका मित्रराष्ट्र था इसलिए मैडम कामापर पैरिससे  बाहर जाने और सप्ताहमें एक बार आरक्षकोंके सामने उपस्थित रहनेका बंधन भी लगा दिया !

६. मातृभूमिकी आस

        युद्धसमाप्तिके पश्चात् मैडम कामा पैरिस लौट आर्इं एवं फिरसे राजनैतिक कार्यकाज आरंभ कर दिया; परंतु अब देह थक गया था ।  क्रांतिके कार्यमें व्यस्त रहनेसे शरीरस्वास्थ्यकी ओर ध्यान नहीं दे पार्इं थीं । अब मातृभूमि लौटनेकी उनकी आस तीव्र हो गई थी । बहुत विनती करनेके पश्चात् और स्वतंत्रतासंग्राममें सहभाग न लेनेके प्रतिबंध (शर्त) पर १९३५ को अर्थात् ३४ वर्षोंकी प्रदीर्घ कालावधिके उपरांत उन्हें हिंदुस्थानमें आनेकी अनुमति मिली । वे मुंबई लौटीं; परंतु अधिक समयतक जीवित न रह सकीं । १३ अगस्त १९३६ को उनकी जीवनज्योत शांत हो गई । मैडम कामाका कहीं भी स्मारक नहीं बना; परंतु हिंदुस्थान स्वतंत्र होनेके लिए उन्होंने जो सर्वस्वका त्याग किया, प्रदीर्घ कालतक परदेशमें जो कष्ट सहे वह हमसे विस्मृत न हों । राष्ट्रीय शासन एवं जनताको भी उनका उचित सम्मान करना चाहिए ।  राष्ट्रपति भवनपर महाराष्ट्रका ध्वज लहरानेवाली किसी महिलाको कोई ‘महाराष्ट्र कन्या’ कहते हैं, अवकाशमें छह मास वास्तव्य करनेवाली भारतीय वंशकी महिलाको कोई ‘भारतकन्या’ कहते हैं; परंतु परतंत्रतामें हिंदुस्थानका पहला स्वतंत्र राष्ट्रध्वज सातसमुद्रपार फहरानेवाली मैडम कामा ही सच्चे अर्थमें ‘महाराष्ट्र कन्या’ तथा ‘भारतकन्या’ हैं !

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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