सारणी
- १. प्रस्तावना
- २. लोकमान्यजीका शिक्षण
- ३. तिलकजीकी पत्रकारिताका उद्देश
- ४. तिलकजीकी पत्रकारिताके गुणधर्म
- ५. निर्भीक पत्रकारिताका उपहारमें मिलीं यातनाएं
- ६. मृत्युके पश्चात् आनेवाले मंगलवारको भी ‘केसरी’ डाकमें जाना चाहिए
- ७. आदर्श संपादक
- ८. निर्भयतासे प्रशासनके दोष दिखाना
- ९. तर्कपूर्ण विचारप्रणालीकी पत्रकारिता
- १०. शासनकी दमन नीतिका भांडाफोड करनेवाली पत्रकारिता
- ११. निर्भीक एवं आदर्श पत्रकारिताके अग्रदूत
- १२. तिलकजीकी पत्रकारिताका आधार – ईश्वरनिष्ठा
- १३. तिलकजीने केसरीमें व्यक्त किए विचारोंद्वारा जनमत सजग हुआ
- १४. सार्वजनिक शिवजयंती उत्सवके सुपरिणाम
- १५. धर्मनिष्ठ तिलक
- १६. तिलकजीका जीवनविषयक तत्त्वज्ञान
- १७. लोकमान्य तिलक इनके केसरीवाडा, पुणे के वंशजों ने संरक्षित किए उनके उपयोग के मूल्यवान वस्तु
१. प्रस्तावना
अंग्रेजोंकी सत्ता होते हुए भी भारतभूमिके उद्धारके लिए दिन-रात चिंता करनेवाले और अपने तन, मन, धन एवं प्राण राष्ट्रहितमें अर्पण करनेवाले कुछ नररत्न इस देशमें अमर हो गए । उन्हींमेंसे एक रत्न अर्थात् लोकमान्य तिलक । तत्त्वचिंतक, गणितज्ञ, धर्मप्रवर्तक, विधितज्ञ आदि विविध कारणोंसे उनका नाम संपूर्ण विश्वमें प्रसिद्ध हैं । स्वतंत्रतापूर्व कालमें लोकमान्यजीके निश्चयी तथा जाज्वल्य नेतृत्व गुणोंसे ओतप्रोत उनकी पत्रकारिता वैचारिक आंदोलनके लिए कारणीभूत हुई । स्वतंत्रताके पश्चात् इस देशकी दुरावस्था रोकने हेतु आज एक और ऐसे ही वैचारिक आंदोलनकी आवश्यकता है । आजके व्यावसायिक पत्रकारिताका भान जनताको कराने हेतु, इस नरसिंहके जयंतीके उपलक्षमें यह लेख प्रस्तुत है ।
२. लोकमान्यजीका शिक्षण
लोकमान्य तिलकजीका जन्म रत्नागिरीमें हुआ । वर्ष १८७३ को उन्होंने प्रवेशपरीक्षा (मैट्रिक) उत्तीर्ण कर डेक्कन महाविद्यालयमें प्रवेश लिया एवं वर्ष १८७६ को गणित विषयसे बी.ए. प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण हुए । विद्यार्थी अवस्थामें वह कुशाग्र बुद्धिके विद्यार्थीके रूपमें प्रसिद्ध थे । बी.ए. होनेके पश्चात् उन्होंने विधि(कानून)का अध्ययन किया एवं वर्ष १८७९ को वे एल्.एल्.बी.की परीक्षा उत्तीर्ण हुए ।
३. तिलकजीकी पत्रकारिताका उद्देश
अपनी मातृभूमीके उद्धारके लिए शैक्षणिक कार्यको ही प्रथम प्राधान्य देना अनिवार्य है, ऐसे विचार तिलक एवं आगरकर इन दोनों मित्रोंके मनमें उत्कटतासे आने लगे । विष्णुशास्त्री चिपलूणकजीके नेतृत्वमें इन प्रयासोंका आरंभ हुआ और १ जनवरी १८८० को पुणेमें ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’की स्थापना हुई । देशसेवाके जो अनेक कार्यक्रम उन्होंने अपने मनमें सोचे थे, उनमें पाठशालाएं खोलकर शैक्षणिक कार्यको प्रोत्साहन करनेकी उनकी धारणा व्यापक तथा उदात्त थी । समाजको जागृत करना, नए युगके प्रकाशकिरणोंसे जनताका जीवन तेजोमय करना और समाजमनमें नयी आकांक्षाएं निर्माण कर उन्हें कार्यान्वित करना जिससे एक स्वाभिमानी तथा बलशाली समाज बने, इसी उद्देश्यसे उनका विचारमंथन होने लगा । इसीके परिणामस्वरूप उन्होंने मराठी भाषामें ‘केसरी’ एवं अंग्रेजी भाषामें ‘मराठा’ यह दो समाचार पत्रिका निकालनेका निर्णय लिया ।
४. तिलकजीकी पत्रकारिताके गुणधर्म
केसरीका स्वरूप कैसे होगा, यह स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था – ‘‘केसरी निर्भयता एवं निःपक्षतासे सर्व प्रश्नोंकी चर्चा करेगा । ब्रिटिश शासनकी चापलूसी (खुशामत) करनेकी जो बढती प्रवृत्ती आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहितमें नहीं हैं । ‘केसरी’के लेख केसरी (सिंह) इस नामको सार्थ करनेवाले होंगे ।”
५. निर्भीक पत्रकारिताका उपहारमें मिलीं यातनाएं
कोल्हापुर संस्थानके राजप्रबंधक बर्वेके माध्यमसे ब्रिटिश शासन छत्रपति शाहू महाराजका छल कर रहा है । यह जानकारी उन्हें मिलते ही केसरीमें आरोप करनेवाला लेख प्रसिद्ध हुआ कि श्री. बर्वे कोल्हापुरके महाराजके विरुद्ध षडयंत्र रच रहे हैं । बर्वेने उस लेखके विरोधमें केसरीपर अभियोग चलाया । उसमें तिलक एवं आगरकरजीको चार मासका कारावास हुआ । इस प्रथम कारावाससे उन्हें राजकीय कार्यकी आवश्यकता तीव्रतासे लगने लगी । कारावाससे मुक्त होते हुए, उन्होंने एक अलग ही निर्धार किया और अपना राजनैतिक कार्यक्षेत्र निश्चित्त किया । ‘केसरी’ एवं ‘मराठा’ इन वृत्तपत्रोंके संपादकके नाते कार्यारंभ किया ।
६. मृत्युके पश्चात् आनेवाले मंगलवारको भी ‘केसरी’ डाकमें जाना चाहिए
वर्ष १९०२ के वर्षाऋतुमें पुणेमें पुनः ग्रंथिज्वरका (प्लेगका) रोग फैला था । अनेक लोग भयवश स्थानांतरित हो गए । ‘केसरी’ जहां छपता था, एक दिन उस आर्यभूषण मुद्रणालयके स्वामीने तिलकजीको अपनी अडचन बताई, ‘‘मुद्रणालयमें कीलें जोडनेवाले कर्मचारियोंकी अनुपस्थिति बढ रही है; जिससे यह फैलाव न्यून होने तक ‘केसरी’की प्रति समयपर निकलेगी कि नहीं, कह नहीं सकते ।”
तिलक कडे स्वरमें बोले, ‘‘आप आर्यभूषणके स्वामी और मैं केसरीका संपादक, यदि इस महामारीमें हम दोनोंको ही मृत्यु आ गई, तब भी अपनी मृत्युके पश्चात् पहले १३ दिनोंमें भी ‘केसरी’ मंगलवारकी डाकसे जाना चाहिए ।’’ उन दिनों उनके घुटनोंमें वेदना थी । उन्हें चलनेमें बहुत कष्ट होता था । फिर भी वे उसी स्थितिमें चलते हुए नगरमें गए तथा ४-५ मुद्रणालयके स्वामीसे मिलकर कर्मचारियोंका प्रबंध कर आए । आर्यभूषणके स्वामी व्याधिग्रस्त तिलकजी की ओर आश्चर्यसे देखते ही रहे !
७. आदर्श संपादक
इस महामारीमें उनके ज्येष्ठ सुपुत्र विश्वनाथपंतका निधन हो गया । उनके दामाद श्री. केतकरजी उन्हें सांत्वना देने लगे तो वे बोले, ‘‘जब गांवकी होली जलती है, तब प्रत्येक घरसे गोबरके कंडे जाने चाहिए । यह भी उसी प्रकार हुआ है ।”
रविवारके दिन विश्वनाथपंतका निधन हुआ । अगले दिन सोमवार अर्थात् ‘केसरी’का अग्रलेख लिखनेका दिन था । सभी सोच रहे थे कि तिलकजी आज किसी औरको अग्रलेख लिखनेके लिए कहेंगे । लेखक आया और तिलकजी ‘श्रीमंत होलकर महाराजका त्यागपत्र स्वीकार किया’ यह अग्रलेख बताने लगे । उनका बताना अभी पूर्ण ही हुआ था कि इतनेमें उनके दूसरे सुपुत्र रामभाऊने वहां आकर बताया कि, ‘‘पिताजी, बापू (छोटे सुपुत्र श्रीधरपंत)को ज्वर चढा है ।” पंरतु उन्होंने अनसुना कर दिया । तदुपरांत उन्होंने उस लेखका बारिकीसे निरीक्षण किया, जो भी चुक-भूल ध्यानमें आयी उसमें सुधार किया और लेख मुद्रणालयमें भेज दिया फिर वे अपने पुत्रके पास गए । वे कहते थे, ‘‘मैं केसरी सप्ताहमें एक बार लिखता हूं; परंतु उस एक दिन क्या लिखना है, इसके विचार पूरे सप्ताह मेरे मस्तिष्कमें चलते हैं ।”
८. निर्भयतासे प्रशासनके दोष दिखाना
वर्ष १८९६-९७ को महाराष्ट्रमें बडा अकाल पडा तथा लोगोंको अन्न मिलना कठिन हो गया । उस समय उन्होंने केसरीमें लेख लिखकर शासनको ‘फॅमिन रिलीफ कोड’ नामक कानूनसे उनके कर्तव्यका स्पष्ट बोध कराया । इस लेखमें उन्होंने यह आवाहन किया कि, जो अधिकारी जनताके अधिकारोंकी अवहेलना करते हैं, उनको संकेत देकर जनताने भी अधिकारियोंके विरुद्ध परिवाद करना चाहिए । तिलकजीने दिखाया कि कानूनके बंधनोंमें रहकर भी कितनी प्रभावशाली लोकसेवा कर सकते हैं ।
९. तर्कपूर्ण विचारप्रणालीकी पत्रकारिता
संसद सदस्य गोखलेजीने यह कहना आरंभ किया कि, कांग्रेसका आंदोलन वैधानिक मार्गसे होना चाहिए ; परंतु लोकमान्यजीने उसका विरोध किया । उन्होंने केसरीमें ‘वैधानिक अथवा अवैधानिक’ इस लेखमें उनके विचारोंका खंडन इस प्रकार किया – ‘‘ब्रिटनद्वारा हिंदुस्थानको अपने अधिकारोंका ‘राजपत्र’ (सनद) ना देनेके कारण हिंदुस्थानका आंदोलन वैधानिक होना चाहिए, ऐसा कहना ही हास्यास्पद है । ब्रिटिशोंने बनाए कानूनके अनुसार हिंदुस्थानमें उनका राज्यकार्य आरंभ है । प्रश्न केवल इतना ही है कि, यहांका आंदोलन वैधानिक है अथवा नहीं । कानून और नीति जब एक दूसरेके विरुद्ध होते हैं, तब कानून तोडकर भी नीतिका पालन करना चाहिए और कानून तोडनेसे होनेवाला दंड शांतिसे सहना चाहिए ।”
१०. शासनकी दमन नीतिका भांडाफोड करनेवाली पत्रकारिता
सशस्र आंदोलनका दमन करने हेतु शासन योग्य संधिकी प्रतीक्षा देख रहा था । अंतमें मुजफ्फरपुरकी घटनाके कारण शासनको वह संधि मिल ही गयी । युवा क्रांतिवीर खुदीराम बोसद्वारा मुजफ्फरपुरमें एक अंग्रेज अधिकारीपर फेंका हुआ बम भूलसे दूसरी घोडागाडीपर पडनेके कारण उस विस्फोटमें दो अंग्रेज स्त्रियोंकी मृत्यु हो गयी । इस बमविस्फोटने शासकीय वक्रदृष्टिमें ‘अग्निमें मिट्टीके तेलका काम’ किया । इस समय तिलकजीने केसरीके अग्रलेखोंमें आतंकवादी मार्गसंबंधी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए युक्तिवाद किया कि शासनके दमननीतिके कारण ही आतंकवादी प्रवृत्तिको बल मिलता है । इस विस्फोट प्रकरणके निमित्तमात्रसे केसरीमें अत्यंत उग्र ५ अग्रलेख प्रसिद्ध हुए और उन्हीं अग्रलेखोंके कारण २४ जून १९०८ को उनपर राजद्रोहका आरोप लगाकर शासनने तिलकको बंदी बनाया ।
११. निर्भीक एवं आदर्श पत्रकारिताके अग्रदूत
तिलकजीका मानना था कि पत्रकारिता अर्थात् जनमत बनानेका अधिकार है । उन्होंने राजद्रोहके अभियोगमें २१ घंटे १० मिनटतक प्रदीर्घ भाषण करके स्वयंकी न्यायभूमिका न्यायालयके समक्ष प्रस्तुत की । उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘वृत्तपत्रोंको जनमत बनानेका अधिकार है । राष्ट्रके राजकीय जीवनमें जो नए प्रवाह, शक्तियां निर्माण हुई हैं, उनका यथार्थ स्वरूप शासनको तथा जनताको बताना, दिखाना और उचित तथा उपायात्मक सूचनाएं देना, यह भी वृत्तपत्रोंका कर्तव्य है । अपनी यह न्यायभूमिका प्रस्तुत कर, मैंने कोई राजद्रोह नहीं किया ।’
१२. तिलकजीकी पत्रकारिताका आधार – ईश्वरनिष्ठा
इस अभियोगके समय उच्च न्यायालयमें किया गया भाषण केवल स्वयंको बचानेका बौद्धिक प्रयास नहीं था; अपितु उस भाषणमें तर्कशुद्ध भूमिका, कानूनी विद्याका व्यासंग, देशभक्तिकी लगन तथा प्रमाणिकता रखने हेतु जो मिले वह दंड भोगनेकी सिद्धता आदि ऐसे असामान्य गुण प्रकट हुए थे । यह भाषण जितने भी लोगोंने सुना, उतने लोगोंको तिलककी उदात्तताका एक अपूर्व साक्षात्कार हुआ । इस समय उनकी चित्तवृत्ति अत्युच्च स्तरपर स्थित थी । स्थितप्रज्ञ वृत्तिसे वे स्वयंके भविष्यकी ओर देख रहे थे । जिस समय ज्यूरीने उन्हें ‘दोषी’ ठहराया, उस समय न्यायाधीश दावरने उनको पूछा, ‘आपको कुछ कहना है ?’ तब वे खडे होकर बोले – ‘‘ज्यूरीने यदि मुझे दोषी माना है, तो कोई बात नहीं; परंतु मैं अपराधी नहीं हूं । इस नश्वर संसारका नियंत्रण करनेवाले न्यायालयसे वरिष्ठ भी एक शक्ति है । कदाचित यही ईश्वरकी इच्छा होगी कि, मुझे दंड मिले और मेरे दंड भुगतनेसे ही मेरे अंगिकृत कार्यको गति मिले ।”
१३. तिलकजीने केसरीमें व्यक्त किए विचारोंद्वारा जनमत सजग हुआ
जनमत जागृत करना, यह लोकनेताओंका कार्य है; परंतु जागृत हुए जनमत यदि शासन पैरोंतले कुचल दे, तो उस सजगताका क्या लाभ ?
सागरतटके पर्वतपर सागरकी लहरे थपेडे खाकर जैसे परावृत्त होती हैं, उसी प्रकार हमारे जनमतकी स्थिति हुई है । नाक दबाए बिना मुंह नहीं खुलता और शासनको धक्का देनेवाली कोई बात जब तक हमसे ना हो, तब तक शासनका अहंकार कभी भी नहीं उतरेगा । शासन जनमतको आज तिनके समझकर उपेक्षा कर रही है । इन्हीं तिनकोंको एकत्रित कर डोरी बननी चाहिए । सहस्त्रों, लक्षावधी लोगोंका समुदाय एक निश्चयसे बंध जाना चाहिए । जनमतका बल निश्चयमें है, केवल समुच्चयमें नहीं ।
(संदर्भ : ‘केसरी’, १५ अगस्त १९०५)
१४. सार्वजनिक शिवजयंती उत्सवके सुपरिणाम
उन्होंने १८९५ को छत्रपति शिवाजी महाराजकी जयंतीपर सार्वजनिक उत्सव आरंभ किया । यह उत्सव महाराष्ट्र और उर्वरित भारतमें ही नहीं, अपितु अमरिका एवं जापानमें भी मनाया जाने लगा । इससे ही शिवचरित्रका संशोधन आरंभ हुआ और उस संबंधमें साहित्य निर्मितीको भी स्फूर्ति मिली । हरि नारायण आपटे, द.ब. पारसनीस, वि. का. राजवाडे, वासुदेवशास्त्री खरे, रियासतकार गो.स. सरदेसाई आदि इतिहासकार एवं साहित्यिकोंने महाराजके पराक्रमका वर्णन किया । अनेक वक्ता अपने भाषण, व्याख्यान तथा प्रवचनोंद्वारा उनकी भाषामें अंग्रेज लेखकोंने महाराजपर किए निंदाजनक लेखनका उत्तर देने लगे, इतना ही नहीं अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी आदि भाषाओंमें महाराजपर इस कालावधिमें पुस्तकें भी प्रकाशित हुर्इं । इस उत्सवका और एक सुपरिणाम हुआ कि अनेक प्रदेशोंके स्थानीय वीर पुरुषोंके उत्सव भी आरंभ हुए । राजस्थानमें महाराणा प्रताप, तो बंगालमें प्रतापादित्यका उत्सव आरंभ हो गया ।
१५. धर्मनिष्ठ तिलक
हिंदुत्व, हिंदु धर्म अथवा हिंदुओंको जागृत करनेवाली संगठनोंपर विष उगलनेवाले आजके सत्तालोलुप संपादकोंको राजसत्ताका डर और किसी पदके लोभको कोई भी महत्त्व न देनेवाले तिलकजी जैसे श्रेष्ठ संपादकका आदर्श लेना चाहिए । उन्होंने अपनी पैतृक संपत्तिमेंसे कुछ अंश देकर अपने कुलदेवता ‘लक्ष्मी- केशव’ मंदिरके जीर्णोद्धारमें सहायता की थी और अंतमें अपने मृत्युपत्रद्वारा कोंकणकी पैतृक संपत्ति अपने कुलदेवताके श्रीचरणोंमें अर्पण की ।
अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्मप्रचारकोंके आक्रमक प्रचारसे मोहित होकर उस समय अनेक लोग हिंदु धर्मकी अवहेलना करते थे; परंतु लोकमान्यजी हिंदु धर्मका महत्त्व जानते थे । उन्होंने धर्मसंबंधी अपने अभिप्राय अनेकबार व्यक्त भी किए हैं । स्वामी विवेकानंदजीके संबंधमें ८ जुलाई १९०२ के ‘केसरी’के मृत्युलेखमें उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे पास यदि कुछ महत्त्वपूर्ण धरोहर है, तो वह है, हमारा धर्म ! हमारा वैभव, हमारी स्वतंत्रता, सर्व नष्ट हो चुका है; परंतु हमारा धर्म आज भी हमारे पास शेष है और वह भी ऐसा-वैसा नहीं, इन कथित सुधारित राष्ट्रोंकी कसौटीमें आज भी स्पष्टरूपसे खरा-खरा उतरता है । यह सूर्यप्रकाश जीतना सत्य है जिसका अनुभव सभीने लिया है । इस स्थितिमें यदि हम इसे छोड देते हैं, तो सर्व विश्वमें हमारी निंदा होगी !” इसी प्रकारसे अपने विचार प्रकट करके उन्होंने अपना धर्माभिमान व्यक्त किया है । शिक्षा व्यवस्थामें भी उन्होंने धर्मशिक्षाको प्रोत्साहन किया है ।
१६. तिलकजीका जीवनविषयक तत्त्वज्ञान
उनका जीवनविषयक तत्त्वज्ञान उनके राजकीय तत्त्वज्ञान जैसा ही था । निःशस्त्र आंदोलनके साथ ही सशस्त्र क्रांति भी उन्हें अभिप्रेत थी । आइए, अपनी प्रत्येक कृत्यसे जीवनके अंतिम श्वासतक देशकी रक्षा हेतु लडनेवाले इस ध्येयवादी नेताको, विनम्र अभिवादन करते हुए हम भी संगठित होकर यह शपथ उठाएं कि, स्वराज्य अर्थात् हिंदवी स्वराज्य ही हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और वह हम प्राप्त कर ही रहेंगे !
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात