सारणी
- १. अंग्रेजोंको सबक सिखानवाले शिवाजी महाराज !
- २. महाराजकी ओरसे देवीदेवता एवं देवालयोंकी रक्षाका कार्य संपन्न होना !
- ३. शिवरायकी युद्धनीति
- ४. व्यवस्थापनके तत्त्व एवं छत्रपति शिवाजी महाराज
- ५. छत्रपति शिवाजी महाराजके जीवनमें ब्राह्मणोंका स्थान !
- ६. राष्ट्ररक्षाकी दुर्दम्य इच्छाशक्तिके बलपर अजिंक्य एवं अभेद्य जलदुर्गकी स्थापना करनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज !
- ७. शिवचरित्रका विस्मरण करनेकी कृतघ्नता करनेसे हुए दुष्परिणाम !
१. अंग्रेजोंको सबक सिखानवाले शिवाजी महाराज !
आंतरराष्ट्रीय मंडीमें दी गई वस्तुओंकी सूचि देखनेपर ‘खोपडे’(सूखा नारियल)के प्रकारोंकी सूचिमें ‘राजापुरी खोपडे’ ऐसा विशेष नाम उसमें दर्शाया जाता है । ब्रिटीश व्यापारियोंका राजापुरमें गोदाम था । उन्होंने वहांके व्यापारियोंको अपने वशमें कर उन्हें धनकी लालच दिखाकररिश्वत दी और हमारे किसान बंधुओंसे अत्यंत अल्प दाममें वह खोपडा खरीद लिया । तब परिवहनके साधनं उपलब्ध नहीं थे । अपने उत्पादोंका अच्छा मोल मिले, इसलिए उत्पाद अन्य मंडीमें भेजनेकी किसानोंकी आर्थिक क्षमता नहीं थी । इसलिए वे असहाय थे । उन्हें प्रचंड हानि सहनी पडी । उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराजको पत्र लिखकर इस विषयमें सूचित किया ।
अंग्रेजोंकी वस्तुओंका मूल्य बढकर उसकी बिक्री न हो; इसलिए छत्रपति शिवाजी महाराजने तुरंत अंग्रेजोंकी ओरसे जो वस्तुएं महाराजके प्रदेशमें आ रही थी, उनपर २०० प्रतिशत दंडात्मक आयात शुल्क लगाया । इस घटनासे अंग्रेज हडबडाएं । उनके वस्तुओंकी बिक्री घट गई । अतः अंग्रेजोंने छत्रपति शिवाजी महाराजको पत्र लिखा कि, ‘हमपर दया करें, सीमाशुल्क अल्प करें ।’ छत्रपति शिवाजी महाराजने तत्काल आज्ञापत्र भेजा , ‘‘मैं शुल्क उठानेके लिए एक ही शर्तपर तैयार हूं । आपने हमारे राजापुरके किसानोंकी जो कुछ भी हानि की हैं, उसका भुगतान योग्य प्रकारसे करें । तथा उस पूर्तिकी प्राप्तिसूचना किसानोंकी ओरसे प्राप्त होनेके पश्चात ही मैं दंडात्मक शुल्क निरस्त करूंगा, अन्यथा नहीं ।’’ अंतमें ब्रिटिशोंको पीछे हटना पडा । दूसरे दिनसे उन्होंने व्यापारियोंसे मिलकर उनके द्वारा सभी किसानोंको उनकी वस्तुओंका उचित मूल्य तथा उसके साथ हानिपूर्तिकी राशि अदा करना आरंभ किया । तदुपरांत किसानोंने छत्रपति शिवाजी महाराजको उनके हानिकी पूर्ति होकर अपनी संतुष्टताके विषयमें सूचित किया । तब जाकर महाराजने सीमाशुल्क निरस्त किया ।
२. महाराजकी ओरसे देवीदेवता एवं देवालयोंकी रक्षाका कार्य संपन्न होना !
‘छत्रपति शिवाजी महाराजने पवित्र वेदोंकी रक्षा की । पुराणोंकी रक्षा की । जिव्हाद्वारा लिए जानेवाले सुंदर रामनामको बचाया । हिंदुओंके चोटीकी रक्षा की । सिपाहियोंकी रोटी बचाई । हिंदुओेंके यज्ञोपवीतकी रक्षा की तथा उनके गलेकी मालाको बचाया । मुघलोंको मसल दिया, पातशहाओंको नष्ट किया एवं शत्रुओंको रगड दिया । उनके हाथमें वरदान था । शिवरायने अपनी तलवारके बलपर राजमर्यादाकी रक्षा की । उन्होंने देवीदेवता एवं देवालयोंकी रक्षा की । स्वराज्यमें स्वधर्मकी रक्षा की । उन्मत्त रावणके लिए जैसे प्रभु रामचंद्र, क्रूर कंसके लिए जैसे भगवान श्रीकृष्ण, वैसे यवनोंके लिए छत्रपति शिवराय हैं’ – कवि भूषण
३. शिवरायकी युद्धनीति
३ अ १. महान सेनानी ! – औरंगजेब : ‘‘वे एक महान सेनानी थे । अपनी अविष्कारकुशलता एवं वीरताद्वारा उन्होंने एक नए राज्यका निर्माण किया । हिंदुस्थानके प्राचीन राज्योंका शेष अस्तित्व मैंने मेरी प्रचंड सेनादलोंकी सहायतासे पिछले १९ वर्षोंसे नष्ट करनेका प्रयास किया, किंतु उनकी शक्ति दिन प्रतिदिन वृद्धिंगत ही हो रही थी ।’’ ये उद्गार हैं, प्रत्यक्ष बादशाह औरंगजेबके, जो कि उसने छत्रपति शिवाजी महाराजके विषयमें उनकी मृत्युके पश्चात निकाले थे ।
३ अ २. चतुर एवं सैनिकी राजनीतिमें निपुण ! – गोवाके गव्हर्नर : गोवाके गव्हर्नर एवं कॅप्टन जनरल अंतोनियो पाइश द सांदने शिवाजी महाराज एवं मुघलोंमें हुए युद्धका एक ब्योरा पुर्तगालके सागरोत्तर समितिको भेजा है । उसमें वह कहता है, शिवाजीराजाने गोवासे दमणतक हमारी सीमाके समीपका प्रदेश अपने अधिकारमें लिया है एवं इस समय वे मुघलोंसे युद्ध करनेमें व्यस्त हैं । यह हिंदुस्थानका नया ‘अॅटिला’ इतना चतुर एवं सैनिकी राजनीतिमें इतना निपुण है कि, वह बचावका एवं चढाईका युद्ध उतनी ही कुशलतासे करता है । मुघल प्रदेशमें अश्वदल भेजकर वह प्रदेश जलाकर तहसनहस कर रहा है ।
३ अ ३. शिवाजी महाराजकी तुलना सर्टोरिअस, हानिबॉल, अलेक्झांडर, ज्युलियस सीझरके साथ हो सकती है ! – पुर्तगीज तथा समकालीन अंग्रेज (ये सभी ख्यातनाम सेनानी थे ।)
३ अ. युद्धप्रदेशकी पूर्ण जानकारी रखना
ऐसी कौनसी असाधारण बात थी इस शिवाजीराजामें ? सबसे पहली बात है कि, शिवाजीराजाने जिस प्रदेशमें युद्ध किए, उस प्रदेशकी वे पूर्ण जानकारी रखते थे । दख्खनके पहाड, नदियां, नालीयां कैसे हैं, दुर्ग, घाटियोंके मार्ग वैâसे हैं, इसका अभ्यास उन्होंने किया ही था । इतना ही नहीं, तो मानचित्र भी बनाए थे ।
३ आ. सक्षम गुप्तचर विभाग
जानकारी रखने एवं सूचना प्राप्त करने हेतु अत्यंत सक्षम गुप्तचर विभाग महाराजके पास था । विश्वासराव नानाजी दिगे, बहिर्जी नाईक, सुंदरजी प्रभुजी ऐसे उन गुप्तचरोंके नाम प्राप्त हुए हैं । शिवाजीराजाके गुप्तचर बिहारमें मिलनेकी प्रविष्टी समकालीन अंग्रेज यात्रीयोंद्वारा की गई है । इ.स. १६६४ में पहली बार जब शिवाजीराजाने सुरतको लुटा , तब उस नगरकी पूरी जानकारी बहिर्जी नाईकद्वारा प्राप्त हुई थी । ‘सुरत लूटनेसे अनगिनत धनकी प्राप्ति होगी’, ऐसा परामर्श भी उसने महाराजको दिया था । सुरतमें कितना धन छुपा हुआ है, इसकी जानकारी बहिर्जीने पहलेसे ही निकाल रखी थी; इसलिए सुरतके आक्रमणमें अधिक समय व्यर्थ नहीं हुआ ।
३ इ. बलवान ‘अर्थ’कारण एवं कोष
तीसरी बात अर्थात कोष ! सेनाका प्रतिपालन करना है, तो धन आवश्यक है । प्रदेश संपादन करना एवं उसका संवर्धन करना, तो सेनाका होना आवश्यक है । उसका प्रतिपालन करना है, तो धनका होना आवश्यक है । इसलिए सुरत जैसे नगरके अनगिनत धनकी लुट की । चौथाई एवं गावखंडी जैसे कर भी शिवाजीराजाने आरंभ किए थे । गोवाके समीप बारदेशपर गावखंडी कर लगानेकी प्रविष्टी दस्तावेजोंमें पाई गई है । शिवाजीराजाका यह ‘अर्थ’कारण अत्यधिक बलवान था ।
३ ई. चपल सेना
शिवाजीराजाकी सेना चपल थी । हाथी जैसे मंदगति जानवरोंको उसमें स्थान नहीं था । महिला तथा बेकार लोगोंको भी सेनामें प्रतिबंध था । लुटमार करने हेतु मात्र दुघोडी, तिघोडी स्वार होते थे । सेनाकी गतिविधियां चपलता एवं वेगपर निर्धारित थी ।
३ उ. अकस्मात आक्रमण
अकस्मात आक्रमण करना शिवाजीराजाके कूटनीतियोंका मुख्य सूत्र था । शाहिस्ताखानपर अचानक डाला गया छापा इस कूटनीतिकी चरमसीमा ही थी । शिवाजीराजाके इस आक्रमणके पश्चात ३ वर्ष पुणेमें अपना डेरा डालनेवाला खान अपनी १ लक्ष सेनाके साथ केवल ३ दिनमें ही बोरिया बिस्तर ऊठाकर औरंगाबाद भाग गया ।
३ ऊ. कूट नीति
शिवाजीराजाने इस प्रदेशमें लडने हेतु अपनी एक विशेष प्रकारकी अभिव्यक्ति ढूंढ निकाली थी । इसे ही ‘कूट नीति’ कहते हैं। शिवरायद्वारा स्वराज्यको प्राप्त हुई यह एक महान देन है । यह कूटयुद्ध अथवा वृकयुद्ध पद्धतिपर आधारित थी । ‘गनिम’ इस अरबी शब्दका अर्र्थ ‘लुटनेवाला’ ऐसा है । लुटारू जैसे अकस्मात आते हैं एवं लुटमार कर पलमें ही भाग जाते हैं, वैसा ही शिवाजीराजा भी करते थे; इसलिए ही डेनिस किन्केडने ‘द ग्रँड रिबेल’ कहा है ।
३ ऊ १. कूटनीतिके तत्त्व : अचानक आक्रमण, वह भी अपने सुविधाजनक स्थानपर, अपनी न्यूनतम हानि एवं हाथमें अधिकांश लुट अथवा प्रतिपक्षकी जितनी हो सकें उतनी अधिक हानि, ये इस कूटनीतिके तत्त्व थे । इस पद्धतिको शिवाजीराजाने संजोया एवं अत्यधिक मात्रामें उसका उपयोग किया , किंतु इसके प्रवर्तक शहाजीराजा थे ।
३ ए. मराठी बुद्धिमानताका एक वास्तव आदर्श !
३ ए १. बहादुरखानकी वंचना ! : मराठी बुद्धिमानताके इस वास्तवके दर्शन महाराजने आलमगीरके दख्खनके सुभेदारको करवाएं । पुणेसे २४ कोसोंपर भीमाके तटपर, बादशाहका भाई बहादुरखान कोकलताश जफरजंग किला बनाकर रहता था । उसके पास बादशाहको भेट देने हेतु लाए गए २०० अरबी अश्व एवं १ करोड रुपयोंका धन होनेकी सूचना महाराजको प्राप्त हुई । गुप्तचरोंने अपना कार्य पूर्ण किया । अब कूटनीति, लडाई एवं लुटमार करनेका कार्यभाग शेष रह गया था । महाराजने आक्रमणकी सिद्धता की । नऊ सहस्त्रोंकी सेना लेकर महाराजका सेनाधुरंधर पेडगावकी दिशामें निकल पडा । उसका नाम अज्ञात है; किंतु संभवतः वह हंबीरराव मोहिते ही होगा । उसने शत्रुका तमाशा बनाया । उसने अपनी सेनाका २ टुकडीमें बंटवारा किया । २ सहस्त्रोंकी एक टुकडी बहादुरगडपर आक्रमण करने गई । क्या करना है, यह पहले ही निश्चित हुआ था । मराठी सेना आक्रमण कर रही है, यह सूचना प्राप्त होते ही बहादुरखानने अपनी
सेनाको सिद्ध रहनेकी आज्ञा दी । पूर्णतः सिद्ध हुई मुघल सेना किलेके बाहर आकर मराठोंकी ओर निकली । मुघल सेना आ रही है, यह देखते ही मराठी टुकडी भागने लगी । चकमा देकर मराठी सेना मुघल सेनाको दूरतक ले गई । बहादुरखान क्रोधित होकर मराठी सेनाका पिछा करता रहा । खान दूरतक गया है, यह सूचना गुप्तचरोंद्वारा प्राप्त होते ही ७ सहस्त्रोंकी दूसरी मराठी टुकडी बहादुरगडपर आक्रमण करने गई । वहांपर उपस्थित मुट्ठीभर मुघलोंको यह चढाई सहना असंभव हुआ । सूखी पत्तियां कहांसे कहां ऊड गई इसका नामोनिशान भी नहीं रहा । मराठोंने मुघल छावनीकी अधिक मात्रामें लुटमार की । एक करोड रुपयोंका धन एवं २०० अरबी अश्व अपनेआप ही हाथमें आए । इतनी प्राप्ति होनेपर मराठोंने मुघल छावनीको आग लगा दी । पेडगावकी छावनी कर्पूर जैसी जलकर भस्म हो गई । सब लुट लेकर मराठे नौ दो ग्यारह हो गए । शिवाजीराजाके राज्याभिषेकके कारण हुए पूरे व्ययकी क्षतिपूर्ति हुई ।
३ ए २. अंग्रेजी नाविकोंको आश्चर्यजनक पद्धतिसे चकमा देनेवाले छोटे एवं चपल मराठी जलयान ! : इ.स. १६८९ के अगस्त मासके अंतमें शिवाजीराजाने मायनाक भंडारीको अलिबागके निकट खांदेरी नामक द्वीपपर भेजा । सागरकी भरतीके समय ही मायनाकने खांदेरीपर किलेका निर्माणकार्य आरंभ किया । खांदेरी एवं उंदेरी नामक द्वीप अष्टगरके थलके सामने सागरमें स्थित हैं । मुंबईके अंग्रेजोंने कॅप्टन विल्यम मिनचिनको हंटर तथा रिव्हेंज नामक दो बडे जलयान एवं गुराबा देकर मायनाकको भगानेके लिए भेजा । थलके बंदरसे होते हुए मराठी छोटे जलयान राशन तथा सामग्री लेकर द्वीपपर जाते थे । इस सहायताको रोकनेका कार्य कॅप्टन मिनचिनको सौंपा गया था । कॅ. अडर्टन, रिचर्ड केग्विन, प्रीन्सिस थॉर्प, वेल्श, ब्रॅडबरी जैसे ख्यातनाम नाविक कॅ. मिनचिनके साथ थे; परंतु सागरतटकी ओरसे सागरकी ओर बहनेवाली हवा, भरती-सुकतीका समय, थलसे खांदेरीतकका उथला सागर इन सभीकी पूरी जानकारी अंग्रेजोंकी तुलनामें मराठोंको अधिक थी । बडे शिडोंवाले अंग्रेजी जलयान हवाके कारण चट्टानोंपर टकरानेकी संभावना थी, जिससे बडे जलयानोंकी उपयुक्तता न्यून हुई थी । परंतु रात्रिके अंधेरेका लाभ ऊठाकर छोटे चपल जलयान मात्र राशन लेकर द्वीपपर जाते थे । वे केवल सवेरे ही कॅ. मिनचिनको दिखाई पडते थे । उसने मुंबईमें भेजे एक पत्रमें लिखा है कि, ‘यह छोटे
३ ए ३. आग्राके कारागृहमें बंदी बनाए गए शिवाजीराजासे भयभीत होनेवाला औरंगजेब ! : शिवाजीराजाको जब आग्राके कारागृहमें बंदी बनाया गया था, तब भयके कारण औरंगजेब आग्राके किलेके सामने ही स्थित जामा मसजिदमें नमाजके लिए जाते समय भव्य सुरक्षाव्यवस्थामें जाता था, इस बातसे सभीको आश्चर्य लगता था; परंतु यह सब वह शिवाजीराजाके भयके कारण ही करता था, इसका उल्लेख राजस्थानी पत्रमें हैं ।
३ ए ४. अजेय लडैता, सुष्टोंका मित्र एवं धर्मका समर्थक : ‘शिवाजी महाराज अद्वितीय सेनानी थे । सिंधु नदीसे बंगालके उपसागरतकका सर्व प्रदेश अधिकारमें लेनेकी उनकी कामना थी, ऐसा तत्कालीन फ्रेंच यात्री अॅबे कॅरेने लिखा है । शिवाजी अजेय लडैता थे, प्रशासनकी कला उन्हें पूर्णतः अवगत थी । वे सुष्टोंके मित्र एवं धर्मके समर्थक थे’, ऐसा बर्नियर कहता है ।
३ ए ५. शिवाजी महाराजके युद्धनेतृत्वमें ही उनकी सेनाका चैतन्य समाविष्ट रहना : रॉबर्ट आर्मने कहा है, ‘उत्तम सेनापतिके लिए आवश्यक सभी गुण शिवाजी राजामें थे । शत्रुके विषयमें समाचार प्राप्त करनेमें उन्होंने कोई भी ढिलाई नहीं की । इसके लिए वे भारी मात्रामें व्यय करते थे । किसी भी बडे संकटका सामना उन्होंने धैर्य एवं युक्तिसे किया । समकालिन सेनानियोंमें वे सर्वश्रेष्ठ थे । हाथमें तलवार लेकर आक्रमण करनेवाले शिवाजीराजा, उनके सेनाकी प्रेरणा थी । उनके युद्धनेतृत्वमें ही उनकी सेनाका चैतन्य समाविष्ट था ।
३ ऐ. शिवाजी महाराजद्वारा मुघलोंको भेजा गया पत्र !
३ ऐ १. हमारे इस प्रदेशमें यदि कल्पनारूपी अश्वको भी दौडाना स्वप्नवत है, तो क्या प्रदेश अपने अधिकारमें करनेकी बात एक मूर्खता नहीं है ? मनगढंत बाते बादशाहको लिखकर भेजनेमें आपको जरा भी संकोच वैâसे नहीं होता, ऐसा पत्र मुघलोंको भेजनवाले छ. शिवाजी महाराज ! :
स्वयं शिवाजीराजाद्वारा मुघलोंको भेजा गया एक पत्र उपलब्ध है । उसमें शिवाजी महाराज कहते हैं, ‘३ वर्षोंसे बादशाहके महान परामर्शदाता एवं योद्धा हमारा प्रदेश अधिकारमें करने हेतु चढाई कर रहे हैं । बादशहा आज्ञा देता है कि, शिवाजीके किले तुम अधिकारमें लो । तुम उत्तर भेजते हैं कि, हम शीघ्र ही अधिकारमें ले रहे हैं । हमारे इस प्रदेशमें यदि कोई कल्पनारूपी अश्व भी दौडाना स्वप्नवत है, तो क्या प्रदेश अधिकारमें करनेकी बात मूर्खता नहीं है ? मनगढंत बाते बादशाहको लिखकर भेजनेमें आपको जरा भी संकोच नहीं होता ? कल्याणी बेदरके किले खुले मैदानमें थे, इसलिए आप उन्हें अपने अधिकारमें कर सकें । हमारा प्रदेश दुर्गम एवं पहाडी है । नदियां-नाले पार करनेके लिए मार्ग नहीं है । मेरे ६० अत्यंत शक्तिशाली किले सिद्ध हैं । उसमेंसे कुछ सागरतटपर हैं । मूर्ख अफजलखान जावलीपर सेना लेकर आया एवं अकारण ही अपने प्राण खो बैङ्गा । इन सब बातोंकी सूचना आप बादशाहको क्यों नहीं देते ? अमीर उल उमरा शाहिस्ताखान आकाशको छुनेवाले पहाडीयोंमें एवं पातालमें पहुंचानेवाली खाईयों में ३ वर्षतक लगातार परिश्रम कर रहा था । ‘शिवाजीको पराभूत कर शीघ्र ही उसका प्रदेश अधिकारमें करता हूं’, ऐसा समाचार बादशाहको लिखते लिखते श्रांत हो गया । इस विद्वेषपूर्ण व्यवहारका परिणाम उसे भुगतना पडा । उसका परिणाम सूर्यप्रकाशके समान स्पष्टरूपसे सभीके समक्ष है । अपनी धरतीकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है एवं उसे न निभानेकी भूल मैं कभी भी नहीं करूंगा ।’ कितना सुंदर यह पत्र !’
– निनाद बेडेकर (पुढारी, १७.४.१९९९, १९२१, शिवशक ३२५)
४. व्यवस्थापनके तत्त्व एवं छत्रपति शिवाजी महाराज
‘श्रावण शु. चतुर्थी, कलियुग वर्ष ५११२ (१३.८.२०१०) को ‘T. Y. B.C.A.’ की कक्षामें व्यवस्थापनके तत्त्व (Principles of Management) यह विषय पढाते समय छत्रपति शिवरायके विषयमें दिएं कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं ।
अ. ‘Forecasting’ (पूर्व अनुमान) पढाते समय शिवरायके स्वराज्यके ‘कान- नाक-आंख’के रूपसे परिचित ‘बहिर्जी नाईक’ का उदाहरण दिया ।
आ. ‘Planning’ (नियोजन) पढाते समय हिंदवी स्वराज्यका दीर्घकालीन नियोजन करते हुए महाराष्ट्रमें ३५० गढोंकी निर्मिति करनेवाले शिवरायका उदाहरण दिया ।
इ. ‘Decision Making’ (नर्णयक्षमता) यह तत्त्व पढाते समय छत्रपति शिवरायद्वारा किया गया अफजलखानका वध, प्रसंगानुरूप मिर्झाराजे जयसिंगके साथ सुलह करनेका निर्णय, साथ ही नेताजी सुभाषचंद्र बोसका अंग्रेजोंकी कडी देखरेखसे छुटनेका निर्णय, इत्यादि उदाहरण दिएं ।
ई. ‘Leading’ (नेतृत्व) पढाते समय यह सूत्र अधिक स्पष्ट करनेके लिए निम्नानुसार पंक्तिका उपयोग किया – ‘‘Ch. Shivaji Maharaj was the great Leader in the Indian History; औरंगजेब इस प्रकारका नेता नहीं हो सका । नेताके समस्त गुण छत्रपति शिवाजी महाराजमें अंगभूत थे; परंतु हमारे महाराष्ट्रका दुर्भाग्य यह है कि, औरंगजेबके नामसे बडा जनपद हमारे यहां है; किंतु छत्रपति शिवरायके नामसे एक भी महानगर भी इस महाराष्ट्रमें नहीं है ।’’
– प्रा. ज्ञानेश्वर हरिभाऊ भगुरे, निफाड, नाशिक
५. छत्रपति शिवाजी महाराजके जीवनमें ब्राह्मणोंका स्थान !
‘कुछ वर्ष पूर्व जेम्स लेन नामक विदेशी लेखकद्वारा छत्रपति शिवाजी महाराजकी जीवनीपर एक आपत्तिजनक पुस्तक लिखा गया । इस पुस्तकके कारण कलह निर्माण हुआ एवं ब्राह्मण समाजको आलोचनाका लक्ष्य बनाया गया । कुछ समय पूर्व ही पुणेमें जात्यंध मराठा संगठनोंने ब्राह्मणद्वेषकी सीमाओंको लांघकर लाल महलके दादोजी कोंडदेवकी प्रतिमा मध्यरात्रिमें हटानेका दुष्कृत्य किया ।
‘छत्रपति शिवाजी महाराजके जीवनमें ब्राह्मणोंका स्थान क्या था’, इस बातको यदि ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधारपर देखा जाए, तो ‘छत्रपति शिवाजी महाराजके नामका उपयोग कर ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर विवादमें वृद्धि करना’, यह बात ‘शिवाजी महाराजका क्रूर परिहास है’, यह ध्यानमें आएगा ! इस सूत्रके समर्थनार्थ ‘अखिल भारतीय मराठा विकास परिषद’की ओरसे प्रकाशित ‘समाज जागृति पुस्तिका’से चुना हुआ लेखन आगे प्रस्तुत किया है । भूतकालमें नहीं थी, इतनी हिंदु एकात्मताकी आवश्यकता वर्तमानमें निर्माण हुई है; अतः ऐसे समयमें हिंदुओंको विभिन्न जनजातियोंमें विभाजित करना उचित नहीं होगा, इसलिए यह लेख प्रसिद्ध कर रहे हैं ।
५ अ. छत्रपतिके जीवनकालमें उनके गुणोंका वर्णन करनेवाले पहले तीन कवि ब्राह्मण ही थे !
अ. ‘छत्रपति शिवाजी महाराजके जीवनकालमें उनके गुणोंका मुक्तकंठसे गान करनेवाले पहले कवि अर्थात समर्थ रामदासस्वामी ब्राह्मण थे । उस समय उनकेद्वारा किया वर्णन देखें –
पुण्यवंत आणि जयवंत । जाणता राजा ।।
आचारशील, विचारशील । दानशील, धर्मशील ।
सर्वज्ञपणे सुशील । सकळाठायी ।।
या भूमंडलाचे ठायी । धर्मरक्षी ऐसा नाही ।
महाराष्ट्रधर्म राहिला काही । तुम्हाकारणे ।।
पूरे भारतमें भ्रमण करनेवाले समर्थ रामदासस्वामीको छत्रपति शिवाजी महाराज जैसा महान व्यक्ति नहीं मिला, यह बात महत्त्वपूर्ण है । छत्रपतिके मृत्युके पश्चात संभाजी महाराजको लिखे गए एक पत्रमें समर्थ रामदास स्वामीने ‘शिवरायाचे आठवावे रूप । शिवरायाचा आठवावा प्रताप’, यही उपदेश किया ।
आ. छत्रपतिके जीवनकालमें उनके गुणोंका वर्णन करनेवाले कवि भूषण भी ब्राह्मण थे ।
इ. छत्रपतिकी सूचनानुसार संस्कृत भाषामें ‘शिवभारत’ नामक शिवचरित्र लिखनेवाले कवि परमानंद नेवासकर भी ब्राह्मण थे । इससे स्पष्ट होता है कि, महाराजके जीवनकालमें उनकी जीवनगाथा लिखनेवाले एवं महानता गानेवाले तीनों भी महत्त्वपूर्ण कवि ब्राह्मण थे ।
५ अ १. छत्रपति शिवाजी महाराजके साथ प्रखर एकनिष्ठा रखनेवाले ब्राह्मण!
१. छत्रपति शिवाजी महाराजका आग्रासे छुटकारा होते ही डबीर एवं कोरडे नामक महाराजके दो निष्ठावंत सेवकोंको औरंगजेबकी सेनाने बंदी बनाया । वास्तविक इन दोनोंने ही संभाजी महाराजको मथुरामें छिपाकर रखा था; परंतु उन्होंने यह बात अंततक औरंगजेबको नहीं बताई । अपितु लगभग दो माहतक औरंगजेबके कारागृहमें वे प्रतिदिन कोडेका प्रहार सहते रहे ।
२. ब्राह्मण व्यक्ति विश्वासू एवं एकनिष्ठ होते हैं, इस बातसे छत्रपति शिवाजी महाराज भलीभांति ज्ञात थे । सिंधुदुर्ग किलेमें छत्रपति शिवाजी महाराजद्वारा रखे गए जानंभट अभ्यंकर तथा दादंभट अभ्यंकरने मरते दमतक सिंधुदुर्ग किला नहीं छोडा था । छत्रपति शिवाजी महाराजके मृत्युके पश्चात औरंगजेबने सिंधुदुर्ग किला सर किया , उस समय ये दोनो भाई किलेमें मारे गए । ‘हम सिंधुदुर्ग छोडकर कहीं भी नहीं जाएंगे’, छत्रपति शिवाजी महाराजको दिए इस वचनका उन्होंने अंततक पालन किया ।
५ अ २. छत्रपति शिवाजी महाराजके जीवनकालकी संवेदनशील एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटनाओंके साक्षीदार भी ब्राह्मण ही !
१. छत्रपति शिवाजी महाराजको कोंडाणा किला जीतकर देनेवाले बापूजी देशपांडे ब्राह्मण थे ।
२. पुरंदर किलेपर फत्तेखानके साथ लडते हुए छत्रपति शिवाजी महाराजकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण सहायता करनेवाले किलेदार निलकंठ सरनाईक भी ब्राह्मण थे ।
३. महाराजके गुप्तचर विभागके पहले प्रमुख गुप्तचर नानाजी देशपांडे ब्राह्मण थे । आगे इस स्थानपर बहिर्जी नाईक आएं ।
४. त्र्यंबकेश्वरके वेदमुर्ति ढेरगेशास्त्री महाराजके क्षेम हेतु भगवान शिवजीके पास अनुष्ठान करते थे ।
५. लालमहलपर छत्रपति शिवाजी महाराजद्वारा मारे गए छापेके समय जिस साहसिक चढाईकी रचना की गई थी, उसके प्रमुख चिमाजी देशपांडे ब्राह्मण थे ।
६. चिमाजीके पिता लाल महलमें जिजाबाईके यहां अनेक वर्ष सेवामें थे; इसलिए उन्हें लाल महलकी रचनाका सब ज्ञान था; जिस कारण इस चढाईका नेतृत्व उनके हाथमें था ।
७. अफझलखानको मिलने हेतु जाते समय छत्रपति शिवाजी महाराजने गाय एवं ब्राह्मणका पूजन करनेकी ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध है । यह विधी कथन करनेवाले प्रभाकर भट्ट महाराजके राजोपाध्ये थे ।’
छत्रपति शिवाजी महाराजका ब्राह्मणोंके प्रति उत्कट आदरभाव एवं स्पष्टक्तता !
१. ‘छत्रपति शिवाजी महाराजने मसजिदोंको अग्रहार (इनाम) प्रदान करनेके ४-५ पत्र उपलब्ध हैं । केवल इन पत्रोंके आधारपर महाराज सर्वधर्मसमभावी हैं, यह बात निश्चित करनेकी उतावली की जाती है; परंतु ब्राह्मणोंको अग्रहार प्रदान करनेके ८२ पत्र उपलब्ध हैं, तो उसके आधारपर ऐसा ही निष्कर्ष क्यों नहीं निकाला जाता ?
२. ८.९.१६७१ को तुकाराम सुभेदारको लिखे पत्रमें छत्रपति शिवाजी महाराजने लिखते हैं , ‘बापूजी नलावडेने कलह कर तलवार निकाली एवं अंतमें अपने ही पेटमें छुरा घुसेडकर जान दी । यह घटना हो चुकी । मराठा होकर ब्राह्मणपर तलवार ऊठाई । उसका परिणाम उसे प्राप्त हुआ ।’ इस पत्रमें छत्रपतिका ब्राह्मणोंके प्रति विद्यमान आदर तो सामने आता ही है, साथ ही समस्त सरदारोंको महाराजके इस स्वभावका ज्ञान होनेके कारण महाराजका कितना आदरयुक्त भय था, यह नलवडे प्रकरणसे ज्ञात होता है । अनेक सरदारोंमेंसे बापूजी नलवडे नामक मराठा सरदारने एक ब्राह्मणपर तलवारसे वार किया, किंतु उसके उपरांत उसे यह भय लगा कि, ‘महाराजको यह बात ज्ञात होनेपर महाराज हमें कठोर शासन करेंगे ।’ इस भयके कारण उसने अपने पेटमें छुरा घुसेडकर आत्महत्या की । राजनेताओंका इस प्रकारका धाक प्रजाजनोंपर होना चाहिए ।
३. लगभग ८-१० पत्रोंमें, ‘किसी विशिष्ट नियमका पालन हों’, इसलिए महाराजद्वारा गौ एवं ब्राह्मणोंकी शपथ लेनेके लिए बाध्य किए जानेके उदाहरण हैं ।
४. अनेक पत्रोंमें ब्राह्मण-भोजके प्रबंधका उल्लेख है तथा ‘यह सर्व व्यय धार्मिक खातेमें दिखाएं एवं उसके विषयमें किसी भी प्रकारकी काटछांट न करें’, ऐसी कठोर सूचना महाराज देते हैं (सन १६४८) । इससे उनकी ब्राह्मणोंके प्रति भूमिका स्पष्ट होती है ।
५. अधिकतर ब्राह्मणोंको भूमि पुरस्कारके रुपमें प्रदान करते समय महाराजद्वारा उनके योगदानका कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख किया गया है, उदा. ३ अगस्त १६७४ को मुरारी त्रिमल विभुतेको पत्रमें छत्रपति शिवाजी महाराज लिखते हैं , ‘स्वामीके सिंहासनाधिष्ठित होते समय आपने स्वामीके साथ रहकर अत्यधिक सेवा की । महान पराक्रम कर स्वामीका अनुग्रह प्राप्त किया । आपके स्वामीकार्यका मोल जानकर आपसे संतुष्ट होकर आपके योगदानके लिए यह पुरस्कार ।’
६. ‘छत्रपति शिवाजी महाराजको हिंदवी स्वराज्यमें यश प्राप्त हो’, इसलिए जिजाबाई अनेक ब्राह्मणोंसे अनुष्ठान करवाती थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख १८ फरवरी सन १६५३ को वेदमुर्ति गोपाळ भटको लिखे पत्रमें हैं । महाराज लिखते हैं, ‘वेदमुर्ति प्रभाकर भटकी ओरसे स्वामीने मंत्र उपदेश संपादित किया । स्वामीको आपने अपने आभ्योदयार्थ सूर्यप्रित्यर्थ अनुष्ठान बताया ।’
५ आ. छत्रपति ब्राह्मणोंके अधीन नहीं थे !
ब्राह्मण व्यवस्थापकके हाथों हुई चूकके विषयमें १९ जनवरी १६७५ को लिखे पत्रमें महाराजने ब्राह्मण व्यवस्थापकको भी फटकारा है । महाराज लिखते हैं, ‘ऐसे चाकरको ठीक करना ही चाहिए । ब्राह्मण है, इसलिए उसे छूट कौन देगा ? इसके अतिरिक्त भी आपके विषयमें कोई अपराध प्रविष्ट होगा , तो आपको छूट नहीं मिलेगी ।’ इससे स्पष्ट होता है कि, छत्रपति शिवाजी महाराजके मनमें ब्राह्मण जातिके प्रति आदर भाव था, तब भी वे ब्राह्मणोंके अधीन नहीं थे; अपितु साथ ही ऐसे १-२ पत्रोंकी पूंजी कर छत्रपति शिवाजी महाराजके पीछे छिपकर ब्राह्मणद्वेष बढानेकी भी आवश्यकता नहीं है । ‘ब्राह्मणोंको नष्ट करना, यह ही जिनका जीवनव्रत है’, वे अवश्य ब्राह्मणद्वेष करें; परंतु ऐसा करते समय छत्रपति शिवाजी महाराजके नामका उपयोग कर उस महान विभूतिको कंलकित न करें ।
५ इ. छत्रपति शिवाजी महाराजको स्वयं ‘गोब्राह्मणप्रतिपालक’ कहलवाते हुए संकोच नहीं होता, वहां उनके अनुयायी ‘गोब्राह्मण’ शब्दसे बातका बतंगड क्यों बनाते हैं ?
छत्रपतिके लगभग २०० पत्र उपलब्ध हैं । २०० मेंसे लगभग १०० पत्र उनकेद्वारा विभिन्न ब्राह्मणोंको कुछ ना कुछ दान दिए जानेके विषयमें अथवा अग्रहार दिए जानेके विषयमें हैं । मनुष्यका अंतःकरण जाननेके लिए पत्र एक अत्यंत मौलिक साधन है । विविध ऐतिहासिक घटनाओंमें छत्रपति शिवाजी महाराजने ब्राह्मणोंको अपने निकट किया । उनकी यह आस्था हमें उनके पत्रोंमें भी दिखाई देतीr है । महाराजको ‘गोब्राह्मणप्रतिपालक’ कहनेसे कुछ लोगोंका सिर चकरा जाता है । परंतु इ.स. १६४७ में मोरेश्वर गोसावीको लिखे पत्रमें छत्रपति शिवाजी महाराज लिखते हैं, ‘ब्राह्मणका आतिथ्य अभ्यागतको पावन करता है । महाराज गोब्राह्मणके प्रतिपालक हैं । गौका प्रतिपालन करनेसे अधिक पुण्यकी प्राप्ति होती है ।’ जहां स्वयं छत्रपति शिवाजी महाराजको अपने आपको‘गोब्राह्मणप्रतिपालक’ कहलवाते हुए संकोचकी भावना नहीं होती, वहां उनके अनुयायी गोब्राह्मण शब्दसे बातका बतंगड क्यों बनाते हैं, यह बात ध्यानमें नहीं आती ।
प्राचार्य शिवाजीराव भोसले कहते हैं, ‘‘महाराजका उल्लेख कोई ‘गोब्राह्मणप्रतिपालक’ नामसे करते हैं । मुझे इस उपाधिका आकर्षण लगता है । धरतीको समृद्धीका वरदान देनेवाला गोधन, साथ ही अपने तपोबलसे एवं अध्ययनसे समाजका स्तर ऊंचा करनेवाला ब्रह्मवेत्ता महाराजको रक्षणीय प्रतीत हुआ, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है, परंतु शब्दोंकी खींचातानी की जाती है । अर्थका विपर्यास किया जाता है । क्या वर्तमानमें मान्यताप्राप्त ‘दुधका महापूर’ अर्थात ‘धवलक्रांति’की संकल्पना तथा कठीनतम परीक्षाद्वारा अधिकारियोंका चयन, ये प्रक्रियाएं न्यूनाधिक मात्रामें गोब्राह्मणप्रतिपालनका स्मरण करवानेवाली ही नहीं है ? ईक्कीसवी शताब्दीमें ब्राह्मण शब्द विद्वत्ता, बुद्धिमानता, विज्ञाननिष्ठा एवं स्वतंत्रप्रज्ञाका वाचक हो जाए, तो कितना अच्छा होगा !’’
५ ई. छत्रपति शिवाजी महाराजकी सहायता करनेवाले ब्राह्मण एवं विद्रोही मराठा !
अ. शिवचरित्रमें शिवछत्रपतिके आसपास जो भी महत्त्वपूर्ण मंडली थी, उसमें अधिकांश ब्राह्मण थे ।
आ. बंगळुरूसे छत्रपति शिवाजी महाराजकी सहायताके लिए शहाजी महाराजकी ओरसे भेजे गए दादोजी कोंडदेव एक अत्यंत विश्वासू ब्राह्मण व्यवस्थापक थे ।
इ. छत्रपति शिवाजी महाराजके मंत्रिमंडलमें आठमेंसे सात मंत्री ब्राह्मण थे ।
ई. डबीर, कोरडे, अत्रे एवं बोकीलकाका ये महाराजके सभी अधिवक्ता ब्राह्मण थे ।
उ. अफजलखानका अधिवक्ता कृष्णाजी भास्कर कुलकर्णी ब्राह्मण था, इसलिए आपत्ति उठाई जाती है; परंतु अफजलखानका अधिवक्ता ब्राह्मण था, उसीप्रकार छत्रपति शिवाजी महाराजका अधिवक्ता गोपिनाथपंत बोकील भी ब्राह्मण था ।
ऊ. ‘औरंगजेबकी सेनामें सहस्त्रों मराठा सरदार थे’, इस विषयमें मौन रखा जाता है ।
ए. प्रत्यक्षमें छत्रपति शिवाजी महाराजके अडतीस आप्तजन अफजलखानकी सेनामें खानकी सहायता कर रहे थे । छत्रपति शिवाजी महाराजको मिलनेके लिए अफजलखान आया, उस समय उसके गिने-चुने दस अंगरक्षकोंमें मंबाजी भोसले नामक छत्रपति शिवाजी महाराजके चाचाजी, तो पिलाजी मोहिते एवं शंकरजी मोहिते ये महाराजके दो चचेरे श्वशुर थे ।’
– श्री. सुनील चिंचोळकर (संदर्भ : अखिल भारतीय मराठा विकास परिषदकी ओरसे प्रकाशित , ‘समाज जागृति पुस्तिका’)
६. राष्ट्ररक्षाकी दुर्दम्य इच्छाशक्तिके बलपर अजिंक्य एवं अभेद्य जलदुर्गकी
स्थापना करनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज !
भारतको सहस्रों मीलका समुद्रकिनारा प्राप्त हुआ है । १ सहस्र वर्ष पूर्व दक्षिण भारतके चोल राजाने अपनी बलशाली नौसेनाकी सहायतासे पूर्व एशियाके मलेशिया, इंडोनेशिया, कंबोडिया आदि देशोंपर अपना अधिकार स्थापित कर अपनी संस्कृतिका प्रभाव उत्पन्न किया था । कंबोडियाके अकोरवाटके विश्वमें सबसे भव्य हिंदु मंदिर आज भी उसका साक्ष दे रहा है; किंतु तदनंतरकी कालावधिमें उत्पन्न समुद्रबंदीके समान अत्यंत हानिकारक परंपराके कारण सागरसे संबंध खो देनेवाले भारतीयोंने समुद्रपर होनेवाले अधिकार गंवा दिए । उसके ही परिणामस्वरूप तदनंतर इसी समुद्रसे आई पराई समुद्री सत्ताने इस देशको ही अपना गुलाम बना लिया ।
उत्तरकी खैबरखिंड तथा बोलण खिंडसे हिंदुस्थानके साथ होनेवाले व्यापारपर प्रतिबंध लगानेके पश्चात पोर्तुगीज आक्रामक वास्को-द-गामाने अफ्रिकासे हिंदुस्थानके समुद्रकिनारेपर आनेका नया मार्ग खोजकर वर्ष १४९८ में कालिकत बंदरगाहपर प्रथम कदम रखे । तदुपरांत पोर्तुगीज, अंग्रेज, डच, फ्रेंच इन यूरोपीय सत्ताने व्यापारके निमित्त हिंदुस्थानमें आकर स्थान-स्थानपर अपना डेरा लगाया (उपनिवेश स्थापित किया) । पश्चात उनके निवासकी रक्षा हेतु अट्टालिकाओं(किले)एवं जलदुर्गकी निर्मिति की । स्वतंत्र नौदलकी स्थापना की तथा हिंदुस्थानमें उनकी सत्ता भी स्थापित की । सत्ताके माध्यमसे उन्होेंने धर्मप्रसार एवं धर्मपरिवर्तनका षडयंत्र रचा । उसके लिए समय आनेपर स्थानीय हिंदु प्रजापर अनन्वित अत्याचार किए । जिस प्रकार उपर्युक्त सत्ताने यह दुष्कार्य किया, उसी प्रकार अफ्रिकासे दासके(गुलामके) रूपमें आए हबशी तथा सिद्दी लोगोंने कोकण किनारेपर जलदुर्गके (जंजिराके) परिसरमें अपनी सत्ता स्थापित कर ली । इन सभी पराई समुद्री सत्ताके पास बलशाली जलदुर्ग तथा बलशाली नौसेना थी । इसके विपरीत एक भी स्थानीय सत्ताधीशद्वारा इस शत्रुका धोखा पहचानकर अपनी नौसेना अथवा जलदुर्गकी निर्मितिका प्रयास नहीं किया गया । पूरे हिंदुस्थानमें बादशाह कहलानेवाले मुगल सत्ताधीशोंको भी समुद्रपर संचार करनेके लिए इस यूरोपीय सत्ताकी अनुज्ञप्तिकी शक्ति चुपचाप स्वीकार करनी पडती थी । इस पाश्र्वभूमिपर साढे तीन सौ वर्ष पूर्व शिवछत्रपतिने स्वयंकी नौसेना स्थापित कर कोकण किनारेपर अनेक अभेद्य जलदुर्गोंकी निर्मिति की । जलदुर्गोंकी निर्मिति कर(जंजिरेकर) सिद्दीके साथ ही पोर्तुगीज, अंग्रेज, डचके समान आधुनिक यूरोपीय सत्तापर समय-समयपर प्रतिबंध लगाकर उनपर नियंत्रण प्राप्त किया तथा पराई सत्तासे देशकी रक्षा करनेके महत्प्रयास किए ।
लेखक – श्री. पांडुरंग बलकवडे, ज्येष्ठ इतिहाससंशोधक ।
६ अ. सिंधुदुर्ग निर्मितिकी सिद्धता !
वर्ष १६५७ में शिवरायने कोकणपर आक्रमण कर कल्याण तथा भिवंडीपर विजय प्राप्त किया । कल्याण बंदरगाहपर रहनेवाली शत्रुकी नौका अधिकारमें लेकर हिंदवी स्वराज्यकी नौसेनाकी स्थापनाका शुभारंभ किया तथा वहीं नई युद्धनौका निर्माण करनेका कार्य हाथमें लिया । युद्धनौका निर्मितिका आधुनिक तंत्रज्ञान अवगत करनेके लिए अनेक पोर्तुगीज तथा अन्य यूरोपीय कारीगरोंको नौकरी हेतु रखा । उनके ज्ञानका उपयोग कर आधुनिक यूरोपीय पद्धतिके जहाजोंकी निर्मिति आरंभ की ।
सभासद बखरकार लिखता है कि राजियाने स्थान स्थानपर पर्वत देखकर गढोंकी निर्मिति की, जिससे समुद्र(दर्या) हैरान हो जाएगा एवं पानीद्वारा आनेवाले राजे हैरान हो जाएंगे, यह ध्यानमें रखकर पानीमें अनेक पर्वत निर्माण कर समुद्रमें(दर्यामें) गढोंकी निर्मिति की । गढ तथा जहाजोंकी सहायतासे राजाओंने समुद्रमें(दर्यामें) झूला बनाया । जबतक पानीमें गढ रहेंगे, तबतक अपनी नौका चलेगी, ऐसा सोचकर भूमिपर तथा पानीमें अगणित गढ एवं जलदुर्ग (जंजिरा) निर्माण किए । देशपर अपनी सत्ता स्थापित की । गुराबा, तरांडी, तारव, गलबटे, शिबाडे इस प्रकार विभिन्न प्रकारके जहाज निर्माण कर दो सौ जहाजोंका एक सुभा बनाया । समुद्र(दर्या) सारंग मुसलमान सूबेदार तथा मायनाईकके रूपमें भंडारी, इस प्रकार दो सूबेदारोंकी नियुक्ति की । उन्होंने शिदीके (सिद्दीके) जहाज पराभूत किए । मुगलाई, फिरंगी, वळंदेज (डच), अंग्रेजके समान सत्ताईस बादशाह पानीमें हैं, उनके नगर पराभूत कर स्थान- स्थानपर युद्ध करते हुए समुद्रमें एक सेनाकी स्थापना की ।
६ आ. छत्रपति शिवाजी महाराजद्वारा विषद किया गया जलदुर्गका महत्त्व
जलदुर्ग सिद्दीका अभेद्य जलदुर्ग मेहरुबा शिवरायकी महत्त्वाकांक्षाको बडा आह्वान दे रहा था । यदि उसपर विजय प्राप्त करना है, राजपुरीके स्थानपर दूसरी राजपुरी निर्माण करनी पडेगीा, यह विचार कर महाराजने मालवणके निकट कुरटे बेटपर एक बेलाग समुद्री दुर्ग निर्माण करनेका निर्णय लिया । महाराजके मनमें विचार आया, चौर्याऐंशी बंदरगाह, ऐसा क्षेत्र अन्यत्र नहीं । शिवरायकी अद्भुत बुदि्धको इस क्षेत्रका महत्त्व ध्यानमें आया । समुद्रमें(दर्यामें) झूला(पालाण) डालनेके लिए यह स्थान उत्तम है । उन्होंने इस बंदरगाहपर नया जलदुर्ग निर्माण करनेका निश्चय किया । भूमिपूजनके लिए योग्य मुहूर्त निकालने हेतु मालवण गांवके वेदशास्त्रसंपन्न ज्ञानभट अभ्यंकरको आमंत्रित किया गया । मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष द्वितीया, शाके १५८६, अर्थात २५ नवम्बर १६६४ यह शुभमुहूर्त निकला । शास्त्रीबुवाने महाराजके हाथों विधिवत भूमिपूजन करवाया । सुवर्णका श्रीफळ समुद्रार्पण कर सागरका पूजन किया गया । तत्पश्चात महाराजके ही हाथों मुहुर्तके पत्थरकी स्थापना की गई । इस शिवलंकाकी अभेद्य निर्मिति हेतु सूरतके आक्रमणमें प्राप्त प्रचुर धन व्यय किया गया । पारंगत वास्तुविशारदोंके मार्गदर्शनमें सहस्रों पाथरवट, गवंडी, वडारी, लोहार, सुतार, शिल्पकार तथा श्रमिक (मजदूर) दिनरात परिश्रम करने लगे । शत्रुद्वारा व्यत्यय न आएं, इसलिए महाराजने २ सहस्र मावलोंकी सेना नियुक्त की थी । महाराज स्वयं ध्यान देकर आवश्यक रसद तथा अन्य साहित्यकी पूर्ति कर रहे थे । प्रसंगसे संबंधित आवश्यक सूचना भी दे रहे थे । एक पत्रमें महाराज कहते हैं कि हमने अपना ध्यान सिंधुर्दुपर इस प्रकार एकाग्र किया कि पूरा कार्य उत्तम हो । भूमिके पायाकी निर्मिति योग्य हो, पायामें डालनेके लिए शीशेका(कांचका) प्रबंध किया । चुनचुनकर व्यवस्थित सामानका उपयोग किया । स्वच्छ की हुई रेत, घाटकी उबटनके समान चूनेका पत्थर/खडिया (चुनखडी) भेजी । नित्यका वेतन नित्य ही दिया । उन्हें किसी भी बातकी भ्रांत न रखी एवं नित्य सावधानीका पालन किया ।
इस पत्रद्वारा महाराजकी सूक्ष्मता तथा अचूकता दिखाई देती है । चैत्र शुक्ल पूर्णिमा, शाके १५८९, अर्थात २९ मार्च १६६७ को सिंधुदुर्गका निर्माण कार्य पूरा होनेकी प्रविषि्ट प्राप्त होती है । इस वास्तुशांतिके समय महाराज स्वयं उपसि्थत थे । उनके आगमनके समयपर तोपोंकी आवाजें की गर्इं तथा शर्करा वितरित की गई । महाराजने सर्व कारीगरोंको विपुल/प्रचुर पारितोषिक वितरित किए । विशेष कार्यके लिए सोने-रूपेके कडे भी वितरित किए ।
६ इ. स्वराज्यकी समुद्री राजधानी !
गढको सिंधुदुर्ग नाम प्रदान कर बडा समारोह मनाया गया । चित्रगुप्त बखरीमें सिंधुदुर्गका अत्यंत सुंदर विवरण किया गया है । चौर्याऐंशी बंदरगाह यह उत्तम जलदुर्ग । अठारह टोपीकरोंके उरावरी शिवलंका अजिंक्य स्थान निर्माण किया । सिंधुदुर्ग जलदुर्ग जगी आसमानी तारा, जैसे मंदिरके मंडन । राज्यका भूषणप्रद अलंकार, महाराजको जैसे पंद्रहवां रत्न प्राप्त हुआ । स्वराज्यकी समुद्ररी राजधानी निर्माण की, इस प्रकारका यह विवरण है ।
तदनंतरकी कालावधिमें महाराजने राजकोट, सजरेकोट, खांदेरी, कुलाबा, सुवर्णदुर्ग आदि जलदुर्ग निर्माण किए; तो विजयदुर्गकी निर्मिति कर पूरी कोकणपट्टीपर ही नियंत्रण पाया । सिंधुदुर्ग चार किलोमीटर तटबंदीसे सजाया है । साथ ही बयालीस तटबंदियोंसे अभेद्य बनाया गया है । दस मीटर ऊंचाईकी तटबंदी एवं ऊपर-नीचे जानेके लिए पैंतालीस सीढियां हैं । रखवालों/पहरेदारोंके लिए चालीस शौचकूपकी निर्मिति की है । किलेका प्रमुख द्वार गोमुखी रचनासे सुरक्षित किया है ।
चूनेमें मुद्रित हुई(उभरी हुई) महाराजके हाथ-पावोंकी मुद्रा हमें श्रद्धालु बना रही है । शिवप्रभुके मूर्तिरूपमें साकार एकमात्र मंदिर यही है । सिंधुदुर्गके भूमिपूजनके २५ नवम्बर २०१४ को ३५० वर्ष पूरे हो रहे हैं ।
शिवरायके कर्तुत्वका यह महान उत्तराधिकार उचित देखरेखके अभावमें आज उद्ध्वस्त हो रहा है । इसकी चिंता न शासनको है, न ही शिवाजी महाराजका नाम लेकर राजनीति करनवालोंको !
(संदर्भ : दैनिक तरुण भारत)
(कहां समुद्ररी मार्गसे होनेवाले आक्रमण रोकने हेतु अभेद्य जलदुर्गकी निर्मिति करनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज, तो कहां समुद्री मार्गसे आक्रमण होनेके पश्चात भी साधारण पहरेकी नौका भी निरंतरके लिए कार्यरत रखनेमें असमर्थ नाकर्ता कांग्रेस शासन ! छत्रपति शिवाजी महाराजके समान राजनेता प्राप्त होनेके लिए हिंदु राष्ट्र स्थापित करना अनिवार्य है ! – संपादक, दैनिक सनातन प्रभात)
७. शिवचरित्रका विस्मरण करनेकी कृतघ्नता करनेसे हुए दुष्परिणाम !
अंग्रेज जब इस देशमें आए, तब उन्होंने रायगढको अपने अधिकारमें किया एवं शिवाजी महाराजका महाराष्ट्रमें विद्यमान साम्राज्य नष्ट किया । साथ ही समस्त रियासतोंको विसर्जित किया । रायगढपर हुई बमबारीके कारण रायगड १८ दिनोंतक धधकता रहा । रायगढपर शिवाजी महाराजद्वारा निर्मित आठ प्रासाद अंग्रेजोंने ध्वस्त कर दिए । रायगढके सिंहासनका क्या किया गया, यह किसीको ज्ञात नहीं है । सर रिचर्ड टेंपल नामके भारतके गर्व्हनर थे । उन्हें एक बार प्रश्न पूछा गया कि, ‘‘औरंगजेब ७ लक्ष यवनोंकी सेनाके साथ महाराष्ट्रमें आया । २५ वर्ष लगातार वह संघर्ष कर रहा था; परंतु २५ वर्षोंमें वह महाराष्ट्र जीत न सका । छत्रपति शिवाजी महाराजका साम्राज्य वह नष्ट कर न सका । औरंगजेब ७ लक्ष सेना एवं प्रचंड गोला-बारूदकी सहायता होते हुए भी २५ वर्षोंमें जो संभव नहीं कर सका, वह आपको केवल १०-१५ वर्षोंर्षमें कैसे संभव हुआ ? इतनी अल्प अस्त्रोंके सहायतासे आपको यह कैसे संभव हुआ ?” उस समय रिचर्ड टेंपलद्वारा दिया गया उत्तर अत्यंत मौलिक है । उन्होंने कहा, ‘‘जब औरंगजेब महाराष्ट्रमें आया था, तब महाराष्ट्रकी समस्त जनताको शिवचरित्रका स्मरण था । तत्पश्चात सभी लोग उसे भूल गए ; अतएव हमें इस महाराष्ट्रकी प्राप्ति हुई ।’’ इसलिए, हिंदुओ, वर्तमान राजनेताओंको शिवचरित्रका विस्मरण हुआ है, किंतु आप इसे भूलनेकी कृतघ्नता न करें । शिवचरित्रके विस्मरणका अंत पराधीनतामें होता है, इस सत्यको जानें ! यह जानकर आपने शिवचरित्रके अनुसार मार्गक्रमण किया, तो दैनिक ‘सनातन प्रभात’ द्वारा आजकी आवृत्तिमें किया गया शिवचरित्रका पुनर्स्मरण श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित हुआ, ऐसा कहना उचित होगा !
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात