सारणी
- १. दास्यत्व में सुख माननेवाले हिन्दुओं को अंधःकार से बाहर निकालने के लिए जन्म होना
- २. पांच वर्ष में गुरूप्राप्ति हेतु गृहत्याग तथा गुरुभेट
- ३. जनजागृति के लिए कुलस्वामिनी श्री जगदंबामाता से प्रार्थना
- ४. जनजागृति का परिणाम
- ५. क्षात्रधर्म
- ६. जनजागृति के हेतु की गई रचना
- ७. देवताओं के दर्शन होने की अवस्था
१. दास्यत्व में सुख माननेवाले हिन्दुओं को अंधःकारसे बाहर निकालने के लिए जन्म होना
‘संत ज्ञानदेव एवं संत नामदेव के जीवनकाल में महाराष्ट्र में देवगिरी के राजा रामदेवराय यादव की संपन्न एवं बलशाली राजसत्ता थी; परंतु दुर्भाग्यवश उनके पश्चात् महाराष्ट्र में यवनों की राजसत्ता आई । संत ज्ञानदेव तथा संत नामदेवद्वारा आरंभ किया इस मंदिर निर्माण का कार्य लगभग रूक-सा गया था । युद्ध तथा परकीय आक्रमण के कारण समाज जीवन अस्त-व्यस्त हुआ था । संभ्रम की स्थिति निर्माण हुई थी । लोगों को क्या करना चाहिए, क्या नहीं, यह ध्यान में नहीं आ रहा था । संत नामदेव तथा संत ज्ञानदेवद्वारा निर्मित परंपरा निस्तेज हो गई थी । दास्यत्व में ही सुख मानने की हिन्दुओं की वृत्ती बन गई थी । लगभग दो सौ वर्ष ऐसी अंधःकारमय, निराशाजनक परिस्थिति में महाराष्ट्र का समाजजीवन चल रहा था । इसी कालावधी में पैठण में एकनाथजी के रूप में दूसरे ज्ञानदेव का जन्म हुआ ।’
संत एकनाथजी ने बाल्यावस्था में एक कीर्तन में गुरुचरित्र का महत्त्व सुना । उनके मनपर वह अंकित हो गया इसलिए उन्होंने किर्तनकार से प्रश्न पूछा कि, ‘गुरु कैसे मिलेंगे ?’। इस प्रश्न का उत्तर देने में कीर्तनकार असमर्थ रहे इसलिए उन्होंने बताया कि, ‘गोदावरीमाता से ही यह प्रश्न पूछे ।’ अतः दूसरे ही दिन एकनाथ महाराज ने गंगारूप मां को लगन, एवं व्याकुलता से तथा रूआं-सा होते हुए पूछा, । उस समय गोदावरीमाता ने उत्तर दिया कि, ”दौलताबाद किले के किलेदार तुम्हारे गुरु हैं । उनके पास जाओ ।’ पांच वर्ष की आयु में ही उन्होंने गृहत्याग किया एवं गुरु ढूंढने निकले । पंत जनार्दनस्वामी एक मुसलमान राजा के दौलताबाद के किले के किलेदार थे । प्रत्येक गुरुवार के दिन वे छुट्टीपर जाते थे । जब पांच वर्ष के एकनाथ महाराज किले की अनेक सीढियां चढकर स्वामीजी के सामने आए, तो उन्होंने कहा कि, ”आओ, मैं तुम्हारी ही प्रतिक्षा कर रहा था ।” गुरु भी शिष्य की प्रतिक्षा करते हैं । पूजा की सिद्धता करने की सेवा उन्होंने एकनाथ को दी । उन्होंने वह सेवा अत्यंत भावपूर्ण की । गुरु प्रसन्न हुएं । उन्होंने एकनाथ को गणित की शिक्षा दी ।’ – कु. मधुरा भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा ।
३. जनजागृति के लिए कुलस्वामिनी श्री जगदंबामाता से प्रार्थना
‘उस समय देवगिरी किलेपर निजामशाहका शासन था । संत एकनाथका निवास वहीं ही था; इसलिए शासनका अनाचार वे निकटसे देख रहे थे । परकीय सत्ताके अधीन होकर महाराष्ट्र दुर्बल हो चुका था । लोग कोई भी अनाचार चुपचाप सहकर दिन बीता रहे थे । ‘लोग मरे नहीं; अतएव जिवीत हैं’, ऐसी महाराष्ट्रकी अवस्था थी । इस भयावह परिस्थितीमें परिवर्तन लानेके लिए, ‘समाज जागृति अभियान आरंभ करना चाहिए’, ऐसा संत एकनाथजीको लगने लगा । उन्होंने महाराष्ट्रकी कुलस्वामिनी जगदंबामाताको, ‘‘माता द्वार खोलो’’, ऐसा आवाहन कर इसजनजागृतिके अभियानमें सहभागी होने हेतु प्रार्थना की । (विश्वपंढरी, वर्ष १ से, अंक २, पृष्ठ १३)
आणिक निर्दालन कंटकांचे ।।
६ अ. भावार्थ रामायण
”संत एकनाथकृत मराठी ओवीबद्ध रामायण’ यह नाथजी का महानतम ग्रंथ है । इसमें सात कांड अंतर्भूत हैं, तथा अध्यायसंख्या २९७ एवं श्लोकसंख्या लगभग ४०,००० हैं । मुख्यरूप से रामायणकथा ऐतिहासिक है, अपितु उस कथा में भी नाथजीद्वारा स्थान-स्थानपर अध्यात्मरूपक की योजना करने का प्रयास किया गया है । समस्त रामकथापर उनका बडा रूपक है । अज अर्थात् परब्रह्म अथवा परमात्मा है । उससे दशरथ अर्थात् दशेंद्रियों की निर्मिती हुई । मूल अजत्व में परिवर्तन न कर अहमात्मा प्रभू श्रीराम के रूप में दशरथ के वंश में प्रकट हुआ । अवतारों का प्रमुख उद्देश्य था, देवताओ की मनौती प्रार्थना पूरी करना एवं स्वधर्म की वृद्धि करना । दशरथ की तीन रानियां थी । कौसल्या अर्थात् सद्विद्या, सुमित्रा अर्थात् शुद्धबुद्धि एवं कैकयी अर्थात् अविद्या । कैकयी की दासी मंथरा अर्थात् कुविद्या । आनंदविग्रही श्रीराम के तीन बंधु थे । लक्ष्मण अर्थात् आत्मप्रबोध, भरत अर्थात् भावार्थ एवं शत्रुघ्न अर्थात् निजनिर्धार । विश्वामित्र अर्थात् विवेक एवं वसिष्ठ अर्थात् विचार । उन दोनों के पास श्रीराम ने शस्त्र एवं शास्त्र की विद्या प्राप्त की । राम एवं सीता अर्थात् परमात्मा एवं उसकी चित्शक्ति । उनकी एकात्मता सहज ही है ।’ – भारतीय संस्कृतीकोश, खंड ६, पृष्ठ ५०६
६ आ. नाथद्वारा वर्णित भूत अन्य भूतों की अपेक्षा
भिन्न होना एवं उनका संबंध पंचमहाभूतों से होना
मेरी आर्तता, लगन एवं सद्गुरू का कृपाशीर्वाद इन तीनों के संयोग के कारण भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे उनके दर्शन देना स्वीकार किया । भगवान् श्रीकृष्ण ने ये दर्शन मुझे एक साथ न देकर चरन-दर-चरन दिएं ।
प्रथम दिन : मुझे केवल श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही दर्शन हुए । जिनके चरणरूपी कमल अत्यंत सुकुमार, अर्थात् कोमल हैं, जिनके चरणोंपर ध्वज, वङ्का एवं अंकुश दर्शानेवाली शुभचिह्नमूलक रेखाए हैं, जिनके पैरोंके पायल भक्तवत्सलता के प्रतिक को सूचित कर रहे हैं; इस प्रकार के दर्शन मुझे उस समय हुए । अतएव आरती के पहले कडीकी निर्मिती मुझसे निम्नानुसार हुई ।
ध्वजवङ्काकुश (रेखा चरणीं) ब्रीदाचा तोडर ।।१।।
सनातन-निर्मित लघुग्रंथ में ‘ध्वजवङ्काकुश रेखा चरणी’ इन दो शब्दों की रचनासे ‘रेखा चरणी’ यह भाग हटाया गया है । आरती लय में गाने से भाव जागृत होने में सहायता होती है, यह दृष्टिकोन रखकर सनातन संस्थाद्वारा मूल रचना में अल्पसा परिवर्तन किया गया है । सनातन संस्था का उद्देश्य शुद्ध होने के कारण अपभ्रंश होकर भी आरती के चैतन्य में अधिक वृद्धि ही हुई है ।
द्वितीय दिन : मुझे मुखविरहीत श्रीकृष्णके दर्शन हुए । मुखविरहीत दर्शन होनेपर मेरे मन में प्रश्न निर्माण हुआ कि, ‘यह मैं क्या देख रहा हूं ?’ । उस समय मेरे मन में यह विचार आया कि, ‘क्या मैं भगवान् श्रीविष्णु का शरीर तो नहीं देख रहा हूं ? क्योंकि नाभिकमल के निकट प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव विराजमान हुए मुझे दिखाई दिए तथा भगवान श्रीविष्णु के हृदयस्थानपर जिस प्रकार श्वेत बालों का भंवर है एवं जिसे ‘श्रीवत्सलांछन’, कहकर संबोधित किया जाता है, तनिक वैसे ही चिह्न भगवान श्रीकृष्ण के शरीरपर मैंने पाए । इसी कारण मुझसे आरती के दूसरे कडी की निर्मिती हुई ।
हृदयी पदक शोभे श्रीवत्सलांछन ।। २ ।।
तृतीय दिन : श्रीकृष्ण के मुखकमल के साथ दर्शन हुए । उस दर्शन के उपरांत मेरे जीवन कें उत्कट आनंद की स्थिति का वर्णन करने के लिए मैं असमर्थ रहा । इस दर्शन का वर्णन करने हेतु मैंने अनेक उपमा, अलंकार ढूंढे; अपितु मुझे उचित प्रकार का उत्तर नहीं मिला । इसलिए मैं पूर्णतया थक गया । अंतिम पर्याय समझकर मैंने विवशतापूर्वक उस दर्शन का वर्णन ‘श्रीकृष्ण के दर्शन होनेपर नित्य सुख की तुलना में एक करोड गुना सुख मुझे प्राप्त हुआ ।’ ऐसा स्थूलरूप से किया है । यह दर्शन होनेपर मेरा मन उस अत्यंत सुंदर मुखकमल की ओर इतना आकर्षित हुआ कि, मानो मेरी दृष्टि ही खो गई है । मैं अन्य कुछ भी न देख सका; अतएव आरती के तिसरे कडी की निर्मिती मुझसे निम्नानुसार हुई ।
वेधले मानस हारपली दृष्टी ।। ३ ।।
चतुर्थ दिन : रत्नजडित मुकुट परिधान किए हुए श्रीकृष्ण के दर्शन हुए । इस दर्शनके उपरांत मुकुट से बाहर प्रक्षेपित तेज के कारण मैं अत्यंत प्रभावित हुआ । यह दिव्य अलौकिक तेज अर्थात् ‘समस्त त्रिभुवन की तेजप्रभा इसमें अंतर्भूत है ।’, ऐसा बोध मुझे उस समय मेरे ज्ञानचक्षु जागृत होने के कारण हुआ । अतएव मुझसे आरती के चतुर्थ कडी की निर्मिती हुई ।
तेणें तेजें कोंदलें अवघें त्रिभुवन ।। ४ ।।
पंचम दिन : श्रीकृष्ण के सर्वांग सुंदर रूपका दर्शन एवं बोधके प्रति कृतज्ञता के विचार निर्माण हुए । ‘भगवान् श्रीकृष्ण के सर्वांग सुंदर रूपका दर्शन एवं उनसे एकात्मता, यह केवल मेरे सद्गुरु श्री जनार्दनस्वामी के कृपाप्रसाद के कारण ही मुझे प्राप्त हुआ ।’, इस प्रकार का कृतज्ञता भाव मेरे मन में लगातार भर आने के कारण आरती के पांचवे कडी की निर्मिती हुई ।
पाहतां अवघें झाले तद्रुप ।। ५ ।।
छठा दिन : श्रीकृष्ण के सर्वांग सुंदर रूपगुणसंपन्नता के वर्णन के विषय में विचार निर्माण हुए । पिछले पांच दिनों से मुझे श्रीकृष्ण के जो सर्वांग सुंदर दर्शन हुए, उसके विषय में जब मैंने गहन चिंतन किया, तब उनके रूपगुणसंपन्नता की महती मेरी ओरसे संक्षिप्तमें निम्नानुसार लिखी गई ।
अ. मदन : मदनसमान अलौकिक सौंदर्यका भंडार
आ. गोपाल : गो पालन करनेवाला
इ. श्यामसुंदर : श्यामवर्ण एवं सुंदर कांतिसे युक्त
ई. वैजयंती माला परिधान किया हुआ : जिस वैजयंती मालामें पृथ्वी, आप, तेज, वायु तथा आकाश
तत्त्वो के दर्शक नील, मोती, माणिक, पुष्कराज तथा हिरा ये रत्न सुशोभित हुए हैं, ऐसी माला परिधान किया हुआ । ऐसे समस्त रूपगुणसंपन्न श्रीकृष्ण के आरती के धृपद की निर्मिती मुझसे छठे दिन निम्नलिखित रूपसे अपने आप हुई ।
श्यामसुंदर गळां वैजयंतीमाळा ।।धृ.।।
साधको, उपर्युक्त आरती की रचना भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझसे हो, इसी उद्देश्य से ही मुझे इस प्रकार की अनुभूति प्रदान की । इस आरती में मेरी अनुभूति एवं भगवान श्रीकृष्ण की विभूति, यह दोनों अंतर्भूत हैं । अतएव इस में विशेष चैतन्य निर्माण हुआ हैं, । यह मैं आपको निश्चितरूप से कह सकता हूं । यह आरती भावपूर्ण कहने के लिए सिखो । ‘भाव तेथे देव’ (जहां भाव है, वहां ईश्व रका अस्तित्व है), इस नियमके अनुसार आप स्वयं ही इसकी अनुभूति करें, यह मैं आपको आस्थापूर्वक कहना चाहता हूं ।
उपर्युक्त आरती की रचना करते समय भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे ‘देवता का दर्शन कैसे करें’, यह भी प्रत्यक्ष कृत्यद्वारा सिखाया । साथ ही उन्होने मुझे यह सिखाया कि, ”देवताका दर्शन चरणों से आरंभ कर उस देवताके समस्त चिह्न/लक्षणों का एकाग्रता से निरीक्षण करने के उपरांत अंत में मुख का दर्शन करें ।’
संत एकनाथ महाराजजीद्वारा भागवत धर्म का अभिमान एवं सत्चारित्र्य के विषय में निष्ठा जागृत करना
‘‘संत एकनाथ महाराजजी की संतकृपा यह है कि, उन्होंने ज्ञानेश्वरी का संशोधित संस्करण हमारे लिए उपलब्ध करवाया । संत एकनाथ महाराज के भारुड एवं भावार्थ रामायणमें से तत्कालीन मुसलमानी शासन से अंकित महाराष्ट्र के राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक दुरावस्था का वर्णन हमें पहली बार ही पढने के लिए उपलब्ध होता है । उस समय धार्मिक क्षेत्र में अत्याधिक अवनति एवं दांभिकता का फैलाव हुआ था । संत एकनाथ महाराजजी ने उस अवसर का अनुचित लाभ उठानेवालों को फटकारा है । इस दुर्दशा के पश्चाताप हुआ तथा वे जनउद्धार के लिए सिद्ध हुए । ‘भक्ती वाङ्मय द्वारा गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी संतत्व भी संजोया जा सकता है’, इसकी शिक्षा उन्होंने पहली बार ही महाराष्ट्र को प्रदान की । गृहस्थी में भी परमार्थ है, यह उन्होंने अपने उदाहरण से सिद्ध किया । संत एकनाथ महाराज ने भागवत धर्म के अभिमान एवं सत्चारित्र्य के प्रति निष्ठा जागृत की । दुर्भाग्यवश यह अभिमान एवं निष्ठा गहराईतक अंकित होने के पूर्व ही महाराष्ट्र पर परकीय आक्रमण हुआ एवं यह नियोजन अस्त-व्यस्त हो गया । ‘ – श्री. प्रवीण कवठेकर (संतकृपा, मई २००७)