सारणी
- १. मराठेशाहीको अपने अंकित करनेका हठ मनमें रखनेवाला औरंगजेब !
- २. मुघल सेनाद्वारा ‘छत्रपति’ राजाराम महाराजका पिछा किया जाना
- ३. औरंगजेबको चकमा देकर जिंजीमें पहुंचनेका राजाका कूटनिश्चय
- ४. पन्हाळगढसे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर महाराजका पूर्वकी ओर प्रस्थान
- ५. मराठा राजा अपने हाथसे निकल गया है, यह बात मुघलोंके ध्यानमें आना
- ६. रानी चन्नम्माद्वारा राजाराम महाराजको हर प्रकारकी साहायता प्राप्त होना
- ७. राजाराम महाराजपर तुंगभद्रामें स्थित द्वीपपर मुघल सेनाकी एक बडी टुकडीद्वारा आक्रमण होना
- ८. खानद्वारा राजाके प्रतिरूपको बंदी बनाया जाना
- ९. महाराज एवं उनके सहकारीयोंद्वारा विविध प्रकारके वेषांतर कर अपनी कठीन यात्रा जारी रखना
- १०. बंगळुरूके निवासमें स्थानीय लोगोंने महाराजके बारेमे समाचार तुरंत मुघल थानेदारतक पहुंचाना
- ११. हिंदवी स्वराज्यके लिए आत्यंतिक देहदंड सहनेवाले खंडो बल्लाळ एवं अन्य प्रभृतियां !
- १२. राजाराम महाराज मराठोंके अधीन अंबुर नामक स्थानपर पहुंचे
- १३. जिंजी किला अर्थात कर्र्नाटकके मराठी राज्यका प्रमुख केंद्र
- १४. सौतेली बहनका राजाराम महाराजको प्रतिकार करनेका अविचार
- १५. जिंजीमें मराठा राज्यके नए पर्वका आरंभ
- १६. मराठोंका मुघलोंके साथ कडा संघर्ष होना और तत्पश्चात महाराजने महाराष्ट्रमें आकर मुघलोंके विरुद्ध बडी धूम मचाना
१. मराठेशाहीको अपने
अंकित करनेका हठ मनमें रखनेवाला औरंगजेब !
‘मुघल छावनीमें छत्रपति संभाजी महाराजकी हुई अत्यंत क्रूर एवं निर्दय हत्याके कारण हिंदवी स्वराजकी नींव ही डगमगाई थी । मुघल सेना स्वराज्यमें चारों ओरसे घुसकर आक्रमण कर रही थीं । स्वराज्यके गढकोट, चौकीयां एक-एक कर शत्रुका ग्रास बन रही थीं । प्रत्यक्ष राजधानी रायगढको ही औरंगजेबके सेनापति जुल्फीकार खानने घेरा डाला था । सभी मराठा राजपरिवारोंसहित मराठोंकी राजधानी हस्तगत कर दक्खनकी आदिलशाही एवं कुतुबशाहीके साथ मराठेशाही भी अपने अंकित करनेका दुराग्रह मनमें रखकर औरंगजेब महाराष्ट्रमें छावनी कर बैठा था ।
२. मुघल सेनाद्वारा ‘छत्रपति’ राजाराम महाराजका पिछा किया जाना
ऐसे भयंकर संकटमें रायगढपर संभाजी महाराजकी रानी येसूबाई एवं स्वराज्यके प्रमुख अधिकारियोंने एकत्रित आकर राजाराम महाराजको मंचकारोहण कर उन्हें ‘छत्रपति’ घोषित किया । ‘मराठोंका राज्य नामशेष नहीं हुआ है, इतना ही नहीं, तो अंतिम समयतक मराठोंका शत्रुके साथ निश्चयपूर्वक युद्ध जारी ही रहेगा’, यह उन्होंने बादशाहको दर्शाया । ऐसी स्थितिमें रायगढपर राजपरिवारके सभी सदस्योंका एक ही स्थानपर उलझना संकटको निमंत्रण दे सकता था; इसलिए राजाराम महाराज अपने सहकारीयोंके साथ किलेसे बाहर निकलें, किला-दर किला घूमते हुए तथा शत्रुसे प्रतिकार जारी रखते हुए एवं उसमें भी कठिन परिस्थिति आनेपर प्राण बचाने हेतु कर्नाटकमें जिंजीकी ओर निकल जाएं, ऐसा विचार-विमर्श येसूबाईके मार्गदर्शनमें निश्चित हुआ । तद्नुसार राजाराम महाराज रायगढसे निकलकर प्रतापगढपर गए । प्रतापगढसे सज्जनगढ, सातारा, वसंतगढ ऐसा करते हुए पन्हाळगढपर पहुंचे । वे जहां भी गए, वहां वहां मुघल सेना उनके पीछे लगी रही । शीघ्र ही पन्हाळगढको भी मुघलोंने अपना घेरा डाला । स्वराज्यकी स्थिति दिनोंदिन कठिन बनने लगी । तब पूर्वायोजित परामर्शके अनुसार राजाराम महाराजने अपने प्रमुख सहकारीयोंके साथ जिंजीकी ओर जानेका निर्णय लिया ।
३. औरंगजेबको चकमा देकर जिंजीमें पहुंचनेका राजाका कूटनिश्चय
‘अपने दबावके कारण मराठोंका नया राजा महाराष्ट्रसे निकलकर जिंजीकी ओर जानेकी संभावना है’, इसका अनुमान धूर्त औरंगजेबने पहलेसे ही किया था एवं उस दृष्टिसे दक्षिणके सभी संभाव्य मार्गोंपर किलेदार एवं थानेदारोंको सतर्क रहनेका आदेश भेजा था । कदाचित राजा समुद्रमार्गसे भाग जाएगा; इसलिए उसने गोवाके पोर्तुगीज व्हॉईसरॉयको भी ध्यान रखनेके लिए कहा था । ‘किसी भी परिस्थितिमें राजाको बंदी बनानेकी’, प्रतिज्ञा उसने की थी तथा ‘किसी भी परिस्थितिमें शत्रुको चकमा देकर जिंजीमें पहुंचनेका’, राजाका कूटनिश्चय था ।
४. पन्हाळगढसे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर महाराजका पूर्वकी ओर प्रस्थान
पन्हाळगढके घेरेके जारी रहते हुए ही २६.९.१६८९ को राजाराम महाराज एवं उनके सहयोगी लिंगायत वाणीका वेश परिधान कर गुप्तरूपसे घेरेसे बाहर निकले । मानसिंग मोरे, प्रल्हाद, निराजी, कृष्णाजी अनंत, निळो मोरेश्वर, खंडो बल्लाळ, बाजी कदम इत्यादि लोग साथ थे । घेरेके बाहर निकलते ही अश्वयात्रा आरंभ हुई । सूर्योदयके समय सभी कृष्णा तटपर स्थित नृसिंहवाडीको पहुंचे । पन्हाळगढसे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर शत्रुको चकमा देनेके लिए महाराज पूर्वकी ओर गए । आग्रासे छटकते समय शिवछत्रपतिने भी ऐसी ही चाल चली थी । वे सीधे दक्षिणकी ओर न जाकर पहले उत्तर एवं तत्पश्चात पूर्व एवं तत्पश्चात दक्षिणकी ओर गए थे । कृष्णाके उत्तरतटसे कुछ समय यात्रा कर उन्होंने पुनः कृष्णा पार कर दक्षिणका मार्ग पकडा; क्योंकि जिंजीकी ओर जाना है, तो कृष्णाको पुनः एक बार पार करना आवश्यक था । यह सब झंझट केवल शत्रुको चकमा देनेके लिए था । महाराजकी शिमोगातककी यात्रा गोकाक-सौंदत्ती-नवलगुंद-अनेगरी-लक्ष्मीश्वर-हावेरी-हिरेकेरूर-शिमोगा ऐसी हुई ।
५. मराठा राजा अपने हाथसे निकल गया है, यह बात मुघलोंके ध्यानमें आना
मार्गमें स्थानस्थानपर महाराजने बहिर्जी घोरपडे, मालोजी घोरपडे, संताजी जगताप, रूपाजी भोसले इत्यादि अपने सरदारोंको पहलेसे ही भेजा था । यात्रा करते समय महाराज उनसे मिलते थे । इधर महाराष्ट्रमें मुघलोंके ध्यानमें आया कि, मराठा राजा अपने चंगुलसे निकल गया है । स्वयं बादशाहद्वारा विविध मार्गोंपर उनके पीछे सेना भेजी गई थी । ऐसी ही एक सेना वरदा नदीके निकट महाराजके पास पहुंच गई; तब उन्होंने बहिर्जी एवं मालोजी इन बंधुओंकी सहायतासे शत्रुको चकमा देकर नदी पार की; किंतु आगे मुघलोंकी अन्य सेनाने उनका मार्ग रोक दिया । तब रूपाजी भोसले एवं संताजी जगताप जैसे वीर बरछैतोंने (बरछाद्वारा युद्ध करनेवाले) विशालकाय पराक्रमद्वारा मुघलोंको थाम लिया । शीघ्र ही महाराजने संताजीको आगेकी ओर एवं रूपाजीको पिछवाडे रखकर आगे प्रस्थान किया । शत्रुके साथ लडते-लडते, उसे अनपेक्षिततासे चकमा देकर वे तुंगभद्राके तटतक पहुंचे ।
६. रानी चन्नम्माद्वारा राजाराम महाराजको हर प्रकारकी साहायता प्राप्त होना
मार्गस्थित बिदनूरकी रानी चन्नमाद्वारा प्राप्त सहयोगके कारण यह चकमा देना संभव हुआ । हिंदु धर्म एवं संस्कृतिको इस्लामी आक्रमणसे बचाने हेतु किया गया शिवछत्रपतिका कार्य चन्नमाको ज्ञात था; अतएव राजाराम महाराजको उनके राज्यसे सुरक्षित रूपसे बाहर निकलनेका आवाहन करते ही उसने उन्हें सभी प्रकारकी सहायता की । संकटमें फंसे मराठा राजाको सहायता करना उसने राजधर्म समझा एवं उसका पालन उसने किया । साथहि औरंगजेबके संभाव्य क्रोधकी तनिक भी चिंता न कर महाराजकी यात्राका गुप्तरूपसे उत्तम प्रकारका प्रबंध किया । रानीकी इस सहायताके कारण ही मराठा राजा अपने सहकारीयोके साथ तुंगभद्राके तटपर स्थित शिमोगामें सुरक्षित पहुंचे । रानीकी इस सहायताका समाचार औरंगजेबको मिलते ही उसने उसे दंड देने हेतु प्रचंड सेना भेजी; अपितु इस सेनाके साथ मार्गमें ही संताजी घोरपडेने लडकर रानीकी रक्षा की ।
७. राजाराम महाराजपर तुंगभद्रामें स्थित
द्वीपपर मुघल सेनाकी एक बडी टुकडीद्वारा आक्रमण होना
राजाराम महाराज एवं उनके सहकारी तुंगभद्रामें स्थित एक द्वीपपर निवास करनेके लिए ठहरे थे । ठीक मध्यरात्रिके समय मुघल सेनाकी एक बडी टुकडीद्वारा उनपर आक्रमण किया गया । इस टुकडीका नेतृत्व विजापुरका सुभेदार सय्यद अब्दुल्ला खान कर रहा था । स्वयं औरंगजेबके आदेशसे ३ दिन तथा ३ रात्रियोंतक अखंड घुडदौड कर अब्दुल्ला खानने राजाराम महाराजका पता लगाया था । सभी ओरसे मुघलोंका घेरा पडते ही मराठे सतर्क हुए एवं उन्होंने अपने राजाकी रक्षा हेतु कडा प्रतिकार करना आरंभ किया । घनघोर युद्ध हुआ ।
८. खानद्वारा राजाके प्रतिरूपको बंदी बनाया जाना
इस युद्धमें अनेक मराठे मारे गए । अनेक बंदी हुए । खानको बंदियोंमें प्रत्यक्ष मराठोंका राजा दिखाई दिया । उसके हर्षकी सीमा न रही । तत्काल उसने बादशाहको यह समाचार भेजा । बादशाहने राजाको सुरक्षाके साथ लाने हेतु विशेष सेना भेज दी; परंतु शीघ्र ही अब्दुल खानके ध्यानमें आया कि, बंदी किया गया मराठोंका राजा बनावटीr है । सिद्दी जोहरके घेरेमें शिवछत्रपतिने ऐसा ही बहाना कर शिवा काशीदके माध्यमसे शत्रुको चकमा दिया था । हिंदवी स्वराज्यके होमकुंडमें इस समय इसी प्रकारका आत्मबलिदान कर एक अनामी मराठाने मराठाओंके छत्रपतिको बचाया था । धन्य है वह अनामी शूर मराठा वीर! उसके बलिदानके कारण मराठा स्वतंत्रता-समर अधिक तेजस्वी हुआ ।
९. महाराज एवं उनके सहकारीयोंद्वारा
विविध प्रकारके वेषांतर कर अपनी कठीन यात्रा जारी रखना
शिमोगातककी यात्रा राजाराम महाराज एवं उनके सहकारीयोने अश्वपर सवार होकर पार की थी; अपितु अब मुघलोंने उनके सभी संभाव्य मार्गोंपर गुप्तचरोंका जाल बिछानेके कारण अश्वपर यात्रा करना संकटको आमंत्रण सिद्ध हुआ । तब उन्होंने यात्री, बैरागी, कार्पाटिक, व्यापारी, भिखारीr जैसे विभिन्न प्रकारके वेषांतर कर अपनी कठीन यात्रा जारी ही रखी । स्थानस्थानपर होनेवाली चौकिया-पहरे इनको चकमा देकर वे शिमोगाके आग्नेयकी ओर १७० मीलकी दूरीपर बंगळुरूमें पहुंचे ।
१०. बंगळुरूके निवासमें स्थानीय लोगोंने
महाराजके बारेमे समाचार तुरंत मुघल थानेदारतक पहुंचाना
बंगळुरूके निवासमें महाराजपर एक अन्य संकट आया । एक सेवकद्वारा उनके चरण धोते देख कुछ स्थानीय लोगोंके ध्यानमें यह बात आई कि, यह कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति दिख रही है । उन्होंने त्वरित यह समाचार मुघल थानेदारतक पहुंचाया । उस कालावधिमें मराठी लोग भी सजग हुए । उन्हें संभाव्य आपत्तिकी आहट लगी । तब खंडो बल्लाळने आगे बढकर महाराजको विनति की कि,‘वे अपने सहकारीयोंके साथ विभिन्न मार्गोंसे आगे निकल जाएं, पिछे हम २-४ लोग मिलकर प्राप्त प्रसंगका सामना करेंगे तथा उससे छुटकारा पाकर मार्गमें निर्धारित स्थानपर आकर मिलेंगे ।’ खंडो बल्लाळकी इस सूचनाके अनुसार महाराज निकल पडे। इधर थानेदारने छापा डाला एवं खंडो बल्लाळ प्रभृतियोंको बंदी बनाकर थानेमें ले गया ।
११. हिंदवी स्वराज्यके लिए आत्यंतिक
देहदंड सहनेवाले खंडो बल्लाळ एवं अन्य प्रभृतियां !
थानेमें खंडो बल्लाळ एवं उनके साथीयोंपर क्रूरतापूर्ण अत्याचार किए गए । उनपर कोडे लगाए गए । सिरपर पत्थर दिए गए । मुंहमें राखके तोबडे थामें गए; अपितु ‘हम यात्री हैं’ इसके अतिरिक्त अधिक जानकारी उनके मुंहसे बाहर नहीं निकली । तब ‘वास्तवमें ही ये यात्रीगण हैं । महाराजके निकटवर्ती होतें, तो इतनी मारपीट होनेपर कुछ कहते’, ऐसा विचार कर थानेदारने उन्हें छोड दिया । छुटकारा पाते ही वे निर्धारित स्थानपर आकर राजाराम महाराजसे मिले । खंडो बल्लाळ प्रभृतियोंने केवल छत्रपति एवं हिंदवी स्वराज्यके लिए ही आत्यंतिक देहदंड सह लिया । स्वामीनिष्ठा एवं स्वराज्यनिष्ठाका यह एक अलौकिक उदाहरण है । इस अलौकिताकी परीक्षामें वे उत्तीर्ण हुए ।
१२. राजाराम महाराज मराठोंके अधीन अंबुर नामक स्थानपर पहुंचे
राजाराम महाराजकी यात्रा जारी ही रही । बंगळुरूके पूर्वकी ओर ६५ मीलकी दूरीपर अंबुर नामक स्थानपर वे पहुंचे । अंबुर थाना मराठोंके अधिकारमें था तथा वहां बाजी काकडे नामक मराठा सरदारका पडाव था । उसे महाराजके आगमनका समाचार प्राप्त होते ही दर्शन हेतु वह त्वरित आया एवं उसने महाराजका यथोचित आदरके साथ सम्मान कर उनका गुप्तवास समाप्त किया । अब महाराज प्रकट रूपसे अपनी सेनासह अंबुरसे वेलोरकी ओर निकले । वेलोरका किला भी मराठोंके अधीन था । २८.१०.१६८९ को महाराज वेलोर पहुंचे । पन्हाळगढसे वेलोरतकका अंतर काटनेके लिए उन्हें लगभग ३३ दिन लगे । वेलोरके निवासमें कर्नाटकके कुछ सरदार अपनी सेनाके साथ उन्हें आकर मिले । वास्तवमें अंबुरसे सीधे दक्खनस्थित जिंजीकी ओर उन्हें जाना चाहिए था; परंतु जिंजीकी ओर जानेमें उनके सामने एक अडचन उपस्थित हुई थी ।
१३. जिंजी किला अर्थात कर्र्नाटकके मराठी राज्यका प्रमुख केंद्र
स्वयं शिवाजी महाराजने इस किलेको जीतकर उसे अभेद्य बनाया था । भविष्यमें महाराष्ट्रके किसी भी मराठी राजाको संकटका सामना करना पडा, तो उसे वहां आश्रय लेना सहज संभव होगा, ऐसी उनकी दूरदृष्टि थी । औरंगजेबके संकटके विषयमें शिवछत्रपति पूर्णतः परिचित थे । भविष्यवाणी की गई थी ठीक उसीके अनुसार ही घटना घटी । औरंगजेबने दक्खनकी ओर आक्रमण किया । मराठी राजा संकटमें पडा । तब जिंजी किला सहायताके लिए आया ।
१४. सौतेली बहनका राजाराम महाराजको प्रतिकार करनेका अविचार
संभाजीराजाके समय हरजीराजे महाडीक कर्नाटकमें मराठोंके प्रमुख सुभेदार था । कुछ समय पहले ही उनका देहांत हुआ था । उसकी पत्नि, अर्थात् राजाराम महाराजकी सौतेली बहन । हरजीराजाके पश्चात स्वतंत्र होनेका उसका षडयंत्र चल रहा था । उसने जिंजीचा किला साधनसंपत्तिके साथ अपने अधिकारमें लिया था । अब उसने महाराजको प्रतिकार करनेका निश्चय किया एवं वैसी सिद्धता आरंभ की । ‘किला हमारे स्वाधीन करें’, महाराजके इस संदेशको उसने ठुकरा दिया । इतना ही नहीं, तो उन्हें सैनिकी प्रतिकार करने हेतु स्वयं सेना लेकर जिंजीसे बाहर निकलीr; किंतु कुछ अंतर जानेके पश्चात उसकी ही सेनाके अधिकारीयोंने उसे इस अविचारसे परावृत्त किया । अंतमें अपना पक्ष दुर्बल हुआ है, यह देखकर विवश होकर वह किलेमें लौटी । जिंजीमें मराठोंने राजाराम महाराजके पक्षका समर्थन किया । अंतमें अंबिकाबाईको अपने भाईका सम्मान करनेके लिए जिंजीका द्वार खोलना पडा । नवंबर १६८९ के पहले सप्ताहमें राजाराम महाराज अपने सहकारीयोंके साथ जिंजी किलेमें पहुंचे । इस प्रकार जिंजीकी यात्राका अंत सुखदायी हुआ ।
१५. जिंजीमें मराठा राज्यके नए पर्वका आरंभ
मराठा लोगोंद्वारा कर्नाटक एवं जिंजीमें राजाराम महाराजका अधिक उत्साहके साथ स्वागत होनेके कारण मद्रास किनारपट्टीके राजनैतिक वातावरणमें परिवर्तन होने लगा । नए मराठा राजाने जिंजीमें अपनी नई राजधानी स्थापित की । राजसभा सिद्ध हुई । मराठा राज्यके नए पर्वका आरंभ हुआ ।
१६. मराठोंका मुघलोंके साथ कडा संघर्ष होना और
तत्पश्चात महाराजने महाराष्ट्रमें आकर मुघलोंके विरुद्ध बडी धूम मचाना
आगे चलकर औरंगजेबने जिंजीको अधिकारमें लेकर राजाराम महाराजको बंदी बनाने हेतु जुल्फिकार खानको भेज दिया । इसवी सन १६९० में खानने जिंजीको घेरा डाला, जो ८ वर्षतक जारी रहा । उस कालावधिमें रामचंद्र पंडित, शंकराजी नारायण, संताजी, धनाजी प्रभृतियोंने राजाराम महाराजके नेतृत्वमें मुघलोंके साथ कडा संघर्ष किया । संताजी-धनाजीने इसी कालावधिमें कुटनितिसे लडकर मुघलोंको त्रस्त किया । नाशिकसे जिंजीतक मराठी सेना सभी ओर संचार करने लगी । अंतमें सन १६९७ को यद्यपि जुल्फिकार खानने जिंजीको जीत लिया; उसके पहले ही महाराज किलेसे निकल गए । महाराष्ट्रमें आकर उन्होंने मुघलोके विरूद्ध बडी धूम मचा दी । शत्रुके प्रदेशमें आक्रमण करते समय ही उनके स्वास्थ्यने उनको धोखा दिया एवं सिंहगढपर फागुन कृ. नवमी, शके १६२१ को उनका निधन हुआ ।’
– डॉ. जयसिंघराव पवार (पुढारी, २९.३.२०००)