सारणी
१. १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम
१८५७ को प्रज्वलित हुआ भारतीय स्वतंत्रता संग्रामका यज्ञकुंड १९४७ को देशगौरव सुभाषचंद्र बोसकी जीवनरूपी समिधा लेकर शांत हुआ । इस वीरप्रसवा भारतभूमिमें पूरे नब्बे वर्षमें हुतात्माओंकी शृंखला खडी रही । स्वतंत्रतालक्ष्मीको प्रसन्न करनेके लिए अनेक वीरोंने अपने जीवनपुष्प देवी भगवतीके चरणोंपर अर्पण किए । समयसे पूर्व ही अनेक वीरोंकी गृहस्थी बिखर गई । अनेक भगिनियां विधवा हुई। अनेक माता-पिताओंको सदाके लिए पुत्रवियोग सहना पडा । पूरा दाम चुकानेके पश्चात ही हिंदुस्थानको स्वतंत्रता प्राप्त हुई । १८५७ के स्वतंत्रता संग्रामकी यज्ञवेदीपर पहली समिधा थी परमवीर मंगल पांडेकी एवं वह अर्पण हुई ८ अप्रैल १८५७ को ! आईए देखते है, इस उपलक्ष्यमें मंगल पांडेके जीवनीका कुछ भाग !
मंगल पांडे ३४ वी पलटनके तरुण ब्राह्मण सिपाही थे । वे क्रांतिदलके सदस्य थे । कोलकाताके निकटवर्ती बराकपुरमें १९ वी पलटनके लिए अंग्रेज अधिकारीयोंने गाय अथवा सूअरकी चरबी लगाए नए कारतुसोंका प्रयोग करना निश्चित किया । यह कारतुसे बंदुकमें भरने- पूर्व उनपर लगाया गया आवरण दातोंसे कांटना पडता था । कांटते समय उस आवरणको लगाई गायकी अथवा सूअरकी चरबी मुखमें जाती थी । इसलिए इस पलटनके सिपाहियोंने इस प्रकारके कारतुसोंका उपयोग करना अस्वीकार किया । इतनाही नहीं, तो प्रतिकार करने हेतु उन्होंने शस्त्र भी उठाया । उस दिन ब्रिटीश अधिकारीयोंकी संख्या न्यून होनेके कारण ब्रिटिशोंने वह अपमान चुपचाप सह लिया । उन्होंने ब्रह्मदेश(म्यानमार)से गोरे सैनिकोंको सहायताके लिए बुलाकर इस पलटनको नि:शस्त्र कर अपमानित अवस्थामें खदेडनेका निश्चय किया । इसे बराकपुरमें क्रियान्वित करनेका निश्चित हुआ । अपने बांधवोंके इस अपमानसे मंगल पांडे क्रोधित हुए । स्वधर्मपर प्राणोंसे अधिक निष्ठा रखनेवाले, आचरणमें सत्शील, तेजस्वी युवक मंगल पांडेके पवित्र रक्तमें देशके स्वतंत्रताकी ‘विद्युत् चेतनाका’ संचार हुआ । उसकी तलवार भी अधीर हुई । अनाचारको सामने देखनेपर क्षात्रवीरोंकी तलवारें म्यानमें कैसे रह पाएगी ?
३१ मईके दिन अचानक सर्वत्र क्रांतियुद्ध प्रारंभ करनेका नियोजन श्रीमंत नानासाहेब पेशवे आदियोंका था । किंतु १९ वे पलटनके स्वदेशबंधुओंका अपमान अपने समक्ष होना, इस बातसे मंगल पांडेके अंत:करणको असहनीय वेदना होने लगी । अपनी पलटनद्वारा आज ही उत्थान होना चाहिए, ऐसा कहकर मंगल पांडेने अपनी बंदूक गोलियोंसे भर ली । यह दिन था रविवार, २९ मार्च १८५७ । सैन्यशिक्षाके मैदानपर छलांग लगाकर ब्रिटीशोंके अनाचारके विरुद्ध देशी सैनिकोंको मंगल पांडे उत्तेजित करने लगे । ‘वीरों, ऊठों !’ ऐसी गर्जना कर उन्होंने सैनिकोंको कहा, ‘‘अब पिछे मत हटो । भाईयों, चलो टूट पडो ! आपको आपके धर्मकी शपथ है !! चलो, अपनी स्वतंत्रताके लिए शत्रुका नि:पात करो !!!”
यह देखते ही सार्जंट मेजर ह्यूसनने उन्हें पकडनेकी आज्ञा की; अपितु एक भी सैनिक अपने स्थानसे नहीं हिला । इसके विपरित मंगल पांडेकी गोली लगनेसे ह्यूसन घायल हुआ । यह देखते ही लेफ्टनंट बॉ घोडेपर संवार होकर मंगलपर आक्रमण करनेके लिए आया । इतनेमें मंगलके बंदुकसे निकली गोली घोडेके पेटमें घुस गई एवं घोडा लेफ्टनंटके साथ भूमिपर लुढक गया । मंगल पांडेको पुनः गोलियां भरनेका अवसर प्राप्त होनेसे पहले ही लेफ्टनंट बॉ अपनी पिस्तौल निकालकर खडा हुआ । मंगल पांडेने तनिक भी न डगमगाते हुए अपनी तलवार निकाली । बॉने पिस्तौलसे गोली चलाई; किंतु मंगल पांडेने उनका निशाना चुकाया । अपनी तलवारसे मंगल पांडेने उसे भी नीचे गिराया । ह्यूसन एवं बॉ अपने निवासस्थानोंकी ओर भाग गए ।
इतनेमें शेख पालटू नामक मुसलमान सिपाही मंगलकी ओर जाने लगा । मंगल पांडेको प्रतीत हुआ कि, वह अपनी सेनाका है; इसलिए मेरी सहायता करने हेतु आया होगा । किंतु वैसा नहीं हुआ । शेख पालटूने मंगल पांडेको पिछेसे लपेट लिया । उसकी लपेटसे पांडेने स्वयंको छुडाया । देसी सिपाही भी शेखकी ओर पत्थर तथा जूते फेंकने लगे । जान बचानेके लिए शेख पालटू भाग गया । कुछ समय पश्चात कर्नल व्हीलर उस स्थानपर आया । उसने सेनाको मंगल पांडेको पकडनेकी आज्ञा की । कर्नल व्हीलरको सेनाने डंटकर बताया कि, ‘‘इस पवित्र ब्राह्मणके केशको भी हम हाथ नहीं लगाएंगे ।” हिंदुस्थानकी भूमिपर बहनेवाले गोरे अधिकारीयोका रक्त एवं सामने खडे धर्माभिमानी सिपाही देखकर कर्नल व्हीलर अपने बंगलेकी ओर भाग गया । तत्पश्चात अनेक युरोपियन सिपाहियोंको लेकर जनरल हिअर्स मंगल पांडेपर आक्रमण करनेके लिए आया । तबतक मध्याह्न हो चुकी थी । मंगल पांडे थक गए थे । अब मैं फिरंगियोंके हाथ आऊंगा, यह ध्यानमें आते ही उन्होंने अपनी बंदूकका निशाना वक्षपर किया एवं अपने आपपर गोली चलाई । मंगल पांडे धरतीपर गिर गए । वे मूर्च्छित हुए । उसके पश्चात ही ब्रिटीशोंको उन्हें पकडना संभव हुआ । घायल मंगल पांडेको सैनिकी रुग्णालयमें भरती किया गया ।
सप्ताहभरमें ही सैनिकी न्यायालयमें उनपर अभियोग चलाया गया । स्वधर्मपर प्राणोंसे अधिक निष्ठा रखनेवाले इस युवा क्षात्रवीरको न्यायालयद्वारा अन्य सहयोगीयोंके नाम पूछे गए; परंतु मंगल पांडेने अपने मुखसे किसीका भी नाम नहीं निकाला । पांडेको फांसीका दंड सुनाया गया । अपने देशवासीयोंके अपमानके कारण अपने ही प्राण न्योछावर करनेवाले इस क्रांतिके अग्रदूतके प्रति लोगोंके मनमें इतनी विलक्षण श्रद्धा निर्माण हुई थी कि, पूरे बराकपुरमें उन्हें फांसी देनेके लिए एक भी चांडाल नहीं मिला । अंतमें इस घिनौने कार्यके लिए कोलकातासे चार लोग मंगवाए गए ।
मंगल पांडे जिस टुकडीके सैनिक थे, उस टुकडीके सुभेदारको अग्रेंजोने मृत्युदंड दिया । १९ एवं ३४ इन दोनों पलटनोंको नि:शस्त्र कर अधिग्रहित किया । इसका परिणाम विपरीत ही हुआ । डरनेकी अपेक्षा सैंकडो सिपाहियोंने अपने हाथोंसे दास्यत्वका प्रतिक अपना सेनाका गणवेश फाडकर फेंक दिया । यह परदास्यत्वकी शृंखला आजतक संभालनेके कारण हुए पापक्षालनार्थ वास्तवमें ही भागीरथीमें स्नान किया ।
५. स्वतंत्रता सूर्यको रक्तका अर्घ्य !
८ अप्रैलको प्रातः मंगल पांडेको फांसीके स्तंभकी ओर लाया गया । उनके चारों ओर सेनाका घेरा था । मंगल पांडे धैर्यसे स्तंभपर चढ गए । ‘मैं किसीका भी नाम नहीं बताऊंगा’, ऐसा उनकेद्वारा पुनः एक बार बताया जानेपर उनके पैरोंतलेका आधार निकाला गया ।
मातृभूमिके चरणोंपर अपने रक्तका अर्घ्य देकर मंगल पांडे १८५७ के क्रांतियुद्धके पहले क्रांतिकारी हुए । उनके नामका प्रभाव इतना विलक्षण था कि, इस क्रांतियुद्धके सर्व सैनिकोंको अंग्रेज ‘पांडे’ नामसे ही पुकारने लगे ।
८ अप्रैल १८५७ को बराकपुरके कारागृहमें मंगल पांडेका धारोष्ण रक्त इस हिंदभूमिपर छलका । उनके इस रक्तसिंचनके कारण देश एवं धर्म हेतु बलिदान करनेके लिए अनेक देशभक्त उत्सुक थे !
संकलनकर्ता : श्री. संजय मुळ्ये, रत्नागिरी ।