सारिणी
- १. माँ सरस्वती के वरदपुत्र ‘महाराजा भोज’
- २. महान शासक
- ३. अनोखा काव्यरसिक – महाराजा भोज
- ४.विश्वविख्यात विद्वान
- ५. अप्रतिम स्थापत्य कला
१. माँ सरस्वती के वरदपुत्र ‘महाराजा भोज’
परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में १००० ईसवीं से १०५५ ईसवीं तक शासन किया, जिससे कि यहाँ की कीर्ति दूर-दूर तक पहुँची। विश्ववंदनीय महाराजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे! उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया।राजा भोज ने धार, माण्डव तथा उज्जैन में सरस्वतीकण्ठभरण नामक भवन बनवाये थे। भोज के समय ही मनोहर वाग्देवी की प्रतिमा संवत् १०९१ (ई. सन् १०३४) में बनवाई गई थी। गुलामी के दिनों में इस मूर्ति को अंग्रेज शासक लंदन ले गए। यह आज भी वहां के संग्रहालय में बंदी है।
२. महान शासक
महाराजा भोज मुंज के छोटे भाई सिंधुराज का पुत्र थे। रोहक उनके प्रधान मंत्री और भुवनपाल मंत्री थे। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति वे भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहता थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इसे अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। उन्होंने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेंद्रचोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् १०४४ ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालव राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परंतु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया।
सन् १०१८ ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, हराया था जो संभवत: कलिंगके गांग राजाओं का सामंत था। जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। इसके बाद लगभग सन् १०२० ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया। महाराजा भोज के प्रराक्रम के कारण ही मेहमूद गजनवी ने कभी महराजा भोज के राज्य पर आक्रमण नहीं किया! तथा सोमनाथ विजय के पश्चात तलवार के बल पर बनाये गए मुसलमानों को पुन: हिन्दू धर्म में वापस ला कर महान काम किया!
भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी, जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था, चढ़ाई कर दी। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् १०५५ ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहे थे कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।
३. अनोखा काव्यरसिक – महाराजा भोज
माँ सरस्वती की कृपा से महाराजा भोज ने ६४ प्रकार की सिद्ध्या प्राप्त की तथा अपने यूग के सभी ज्ञात विषयो पर ८४ ग्रन्थ लिखे जिसमे धर्म, ज्योतिष्य आयर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतीशास्त्र आदि प्रमुख है! ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वान्त संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धान्त’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि की रचना की। “भोज प्रबंधनम्” उनकी आत्मकथा है।
हनुमान जी द्वारा रचित राम कथा के शिलालेख समुन्द्र से निकलवा कर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है! तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है!
चम्पू रामायण महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के बाद सबसे तथ्य परख महाग्रंथ है! महाराजा भोज वास्तु शास्त्र के जनक माने जाते है! समरान्गंसुत्रधार ग्रन्थ वास्तु शास्त्र का सबसे प्रथम ज्ञात ग्रन्थ है! वे अत्यंत ज्ञानी, भाषाविद् , कवि और कलापारखी भी थे। उनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। सरस्वतीकंठाभरण उनकी प्रसिद्ध रचना है। इसके अलावा अनेक संस्कृत ग्रंथों, नाटकों, काव्यों और लोक कथाओं में राजा भोज का अमिट स्थान है। ऐसे महान थे राजा भोज कि उनके शासन काल में धारानगरी कलाओं और ज्ञान के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध हो गई थी।
महाराजा भोज की काव्यात्मक ललित अभिरुचि, सूक्ष्म व वैज्ञानिक दृष्टि उन्हें दूरदर्शी और लोकप्रिय बनाता रहा। मालवमण्डन, मालवाधीश, मालवचक्रवर्ती, सार्वभौम, अवन्तिनायक, धारेश्वर, त्रिभुवननारायण, रणरंगमल्ल, लोकनारायण, विदर्भराज, अहिरराज या अहीन्द्र, अभिनवार्जुन, कृष्ण आदि कितने विरूदों से भोज विभूषित थे।
४. विश्वविख्यात विद्वान
आइने-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में पांच सौ विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
महाराजा भोज ने अपने ग्रंथो में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। चित्रो के माध्यम से उन्होंने पूरी विधि बताई है! इसी तरह उन्होंने नाव एवं बड़े जहाज बनाने की विधि विस्तारपूर्वक बताई है। किस तरह खिलो को जंगरोधी किया जाये जिससे नाव को पानी में सुरक्षित रखा जा सकता था! इसके अत्रिरिक्त उन्होंने रोबोटिक्स पर भी कम किया था! उन्होंने धारा नगरी के तालाबो में यन्त्र चालित पुतलियो का निर्माण करवाया था जो तालाब में नृत्य करती थी!
विश्व के अनेक महाविद्यालयो में महाराज भोज के किये गए कार्यो पर शोध कार्य हो रहा है! उनके लिए यह आश्चर्य का विषय है, की उस समय उन्होंने किस तरह विमान, रोबोटिक्स और वास्तुशास्त्र जेसे जटिल विषयों पर महारत हासिल की थी! वैज्ञानिक आश्चर्य चकित है, जो रोबोटिक्स आज भी अपने प्रारम्भिक दौर में है उस समय कैसे उस विषय पर उन्होंने अपने प्रयोग किये और सफल रहे! महाराजा भोज से संबंधित १०१० से १०५५ ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। इन सबमें भोज के सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण मिलता है। एक ताम्रपत्र के अन्त में लिखा है – स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य। अर्थात् यह (ताम्रपत्र) भोजदेव ने अपने हाथों से लिखा और दिया है।
५. अप्रतिम स्थापत्य कला
राजा भोज के समय मालवा क्षेत्र में निर्माण क्रांति आ गई थी। अनेक प्रसाद, मंदिर, तालाब और प्रतिमाएं निर्मित हुई। मंदसौर में हिंगलाजगढ़ तो तत्कालीन अप्रतिम प्रतिमाओं का अद्वितीय नमूना है। राजा भोज ने शारदा सदन या सरस्वती कण्ठभरण बनवाये। वात्स्यायन ने कामसूत्र में इस बात का उल्लेख किया है कि प्रत्येक नगर में सरस्वती भवन होना चाहिए। वहां गोष्ठियां, नाटक व अन्य साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां होते रहना चाहिए।
राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। यहां का विशाल किन्तु खंडित शिवमंदिर आज भी भोज की रचनाधर्मिता और इस्लामिक जेहाद और विध्वंस के उदाहरण के रूप में खड़ा है। यहीं बेतवा नदी पर एक अनोखा बांध बनवाया गया था। इसका जलक्षेत्र २५० वर्गमील है। इस बांध को भी होशंगशाह नामक आक्रंता ने तोड़ कर झील खाली करवा दी थी। यह मानवनिर्मित सबसे बड़ी झील थी जो सिंचाई के काम आती थी। उसके मध्य जो द्वीप था वह आज भी दीप (मंडीद्वीप) नाम की बस्ती है।
महाराजा भोज ने जहाँ अधर्म और अन्याय से जमकर लोहा लिया और अनाचारी क्रूर आतताइयों का मानमर्दन किया, वहीं अपने प्रजा वात्सल्य और साहित्य-कला अनुराग से वह पूरी मानवता के आभूषण बन गये। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं। चाहे विश्व प्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्व भर के शिव भक्तों के श्रद्धा के केन्द्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब, ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन है। उन्होंने जहाँ भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है। इन सभी मंदिरों तथा स्मारकों की स्थापत्य कला बेजोड़ है। इसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक हजार साल पहले हम इस क्षेत्र में कितने समुन्नत थे।
महाराजा भोज ने अपने जीवन काल में जितने अधिक विषयों पर कार्य किया है, वो अत्यंत ही चकित करने वाला है। इन सभी को देख कर लगता है की वो कोई देव पुरुष थे ! ये सब कम एक जीवन में करना एक सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं है!