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मेवाडके महान राजा : महाराणा प्रताप सिंह

सारिणी


१. महाराणा प्रतापका परिचय !

जिनका नाम लेकर दिनका शुभारंभ करे, ऐसे नामोंमें एक हैं, महाराणा प्रताप । उनका नाम उन पराक्रमी राजाओंकी सूचिमें सुवर्णाक्षरोंमें लिखा गया है, जो देश, धर्म, संस्कृति तथा इस देशकी स्वतंत्रताकी रक्षा हेतु जीवनभर जूझते रहे ! उनकी वीरताकी पवित्र स्मृतिको यह विनम्र अभिवादन  है ।

मेवाडके महान राजा, महाराणा प्रताप सिंहका नाम कौन नहीं जानता ? भारतके इतिहासमें यह नाम वीरता, पराक्रम, त्याग तथा देशभक्ति जैसी विशेषताओं हेतु निरंतर प्रेरणादाई रहा है । मेवाडके सिसोदिया परिवारमें जन्मे अनेक पराक्रमी योद्धा, जैसे बाप्पा रावल, राणा हमीर, राणा संगको ‘राणा’ यह उपाधि दी गई; अपितु ‘ महाराणा ’ उपाधिसे  केवल प्रताप सिंहको सम्मानित किया गया ।

 

२. महाराणा प्रतापका बचपन !

महाराणा प्रतापका जन्म वर्ष १५४० में हुआ । मेवाडके राणा उदय सिंह, द्वितीय, के ३३ बच्चे थे । उनमें प्रताप सिंह सबसे बडे थे । स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण प्रताप सिंहकी विशेषता थी । महाराणा प्रताप बचपनसे ही ढीठ तथा बहादूर थे; बडा होनेपर यह एक महापराक्रमी पुरुष बनेगा, यह सभी जानते थे । सर्वसाधारण शिक्षा लेनेसे खेलकूद एवं हथियार बनानेकी कला सीखनेमें उसे अधिक रुचि थी ।

 

३. महाराणा प्रतापका राज्याभिषेक !

महाराणा प्रताप सिंहके कालमें देहलीपर अकबर बादशाहका शासन था । हिंदू राजाओंकी शक्तिका उपयोग कर दूसरे  हिंदू राजाओंको अपने नियंत्रणमें लाना, यह उसकी नीति थी । कई रजपूत राजाओंने अपनी महान परंपरा तथा लडनेकी वृत्ति छोडकर अपनी बहुओं तथा कन्याओंको अकबरके अंत:पूरमें भेजा ताकि उन्हें अकबरसे इनाम तथा मानसम्मान मिलें । अपनी मृत्यूसे पहले उदय सिंगने उनकी सबसे छोटी पत्नीका बेटा जगम्मलको राजा घोषित किया; जबकि प्रताप सिंह जगम्मलसे बडे थे, प्रभु रामचंद्र जैसे अपने छोटे भाईके लिए अपना अधिकार छोडकर मेवाडसे निकल जानेको तैयार थे । किंतु सभी सरदार राजाके निर्णयसे सहमत नहीं हुए । अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमलको सिंहासनका त्याग करना पडेगा । महाराणा प्रताप सिंहने भी सभी सरदार तथा लोगोंकी इच्छाका आदर करते हुए मेवाडकी जनताका नेतृत्व करनेका दायित्व स्वीकार किया ।

 

४. महाराणा प्रतापकी अपनी मातृभूमिको मुक्त करानेकी अटूट प्रतिज्ञा !

महाराणा प्रतापके शत्रुओंने मेवाडको चारों ओरसे घेर लिया था । महाराणा के दो भाई, शक्ति सिंह एवं जगमल अकबरसे मिले हुए थे । सबसे बडी समस्या थी आमने- सामने लडने हेतु सेना खडी करना, जिसके लिए बहुत धनकी आवश्यकता थी ।

महाराणा प्रतापकी सारी संदूके खाली थीं, जबकी अकबरके पास बहुत बडी सेना, अत्यधिक संपत्ति तथा और भी सामग्री बडी मात्रामें थी । किंतु महाराणा प्रताप निराश नहीं हुए अथवा कभी भी ऐसा नहीं सोचा कि वे अकबरसे किसी बातमें न्यून(कम) हैं ।

महाराणा प्रतापको एक ही चिंता थी, अपनी मातभूमिको मुगलोंके चंगुलसे मुक्त कराणा था । एक दिन उ्न्होंने अपने विश्वासके सारे सरदारोंकी बैठक बुलाई तथा अपने गंभीर एवं वीरतासे भरे शब्दोंमें उनसे आवाहन किया । उन्होंने कहा,‘ मेरे बहादूर बंधुआ, अपनी मातृभूमि, यह पवित्र मेवाड अभी भी मुगलोंके चंगुलमें है । आज मैं आप सबके सामने प्रतिज्ञा करता हूं कि, जबतक चितौड मुक्त नहीं हो जाता, मैं सोने अथवा चांदीकी थालीमें खाना नहीं खाऊंगा, मुलायम गद्देपर नहीं सोऊंगा तथा राजप्रासादमें भी नहीं रहुंगा; इसकी अपेक्षा मैं पत्तलपर खाना खाउंगा, जमीनपर सोउंगा तथा झोपडेमें रहुंगा । जबतक चितौड मुक्त नहीं हो जाता, तबतक मैं दाढी भी नहीं बनाउंगा । मेरे पराक्रमी वीरों, मेरा विश्वास है कि आप अपने तन-मन-धनका त्याग कर यह प्रतिज्ञा पूरी होनेतक मेरा साथ दोगे । अपने राजाकी प्रतिज्ञा सुनकर सभी सरदार प्रेरित हो गए, तथा उन्होंने अपने राजाकी तन-मन-धनसे सहायता करेंगे तथा शरीरमें  रक्तकी आखरी बूंदतक उसका साथ देंगे; किसी भी परिस्थितिमें मुगलोंसे चितौड मुक्त होनेतक अपने ध्येयसे नहीं हटेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा की  । उन्होंने महाराणासे कहा, विश्वास करो, हम सब आपके साथ हैं, आपके एक संकेतपर अपने प्राण न्यौछावर कर देंगे ।

 

५. हल्दीघाटकी लडाई : महाराणा प्रताप, एक महान योद्धा !

अकबरने महाराणा प्रतापको अपने चंगुलमें लानेका अथक प्रयास किया किंतु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ! महाराणा प्रतापके साथ जब कोई समझौता नहीं हुआ, तो अकबर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने युद्ध घोषित किया । महाराणा प्रतापने भी सिद्धताएं आरंभ कर दी । उन्होंने अपनी राजधानी अरवली पहाडके दुर्गम क्षेत्र कुंभलगढमें स्थानांतरित की । महाराणा प्रतापने अपनी सेनामें आदिवासी तथा जंगलोंमें रहनेवालोंको भरती किया । इन लोगोंको युद्धका कोई  अनुभव नहीं था, किंतु महाराणा ने उन्हें प्रशिक्षित किया । उन्होंने सारे रजपूत सरदारोंको मेवाडके स्वतंत्रताके झंडे के नीचे इकट्ठा होने हेतु आवाहन किया ।

महाराणा प्रतापके २२,००० सैनिक अकबरकी ८०,००० सेनासे हल्दीघाटमें भिडे । महाराणा प्रताप तथा उसके सैनिकोंने युद्धमें बडा पराक्रम दिखाया किंतु उसे पीछे हटना पडा। अकबरकी सेना भी राणा प्रतापकी सेनाको पूर्णरूपसे पराभूत करनेमें असफल रही । महाराणा प्रताप एवं उनका विश्वसनीय घोडा ‘ चेतक ’ इस युद्धमें अमर हो गए । हल्दीघाटके युद्धमें ‘ चेतक ’ गंभीर रुपसे घायल हो गया था; किंतु अपने स्वामीके प्राण बचाने हेतु उसने एक नहरके उस पार लंबी छलांग लगाई । नहरके पार होते ही ‘ चेतक ’ गिर गया और वहीं उसकी मृत्यु  हुई । इस प्रकार अपने प्राणोंको संकटमें डालकर उसने राणा प्रतापके प्राण बचाएं । लोहपुरुष महाराणा प्रताप अपने विश्वसनीय घोडेकी मृत्यूपर एक बच्चेकी तरह फूट-फूटकर रोए । तत्पश्चात जहां चेतक ने अंतिम सांस ली थी वहां उन्होंने एक सुंदर उद्यान का निर्माण किया । अकबरने महाराणा प्रतापपर आक्रमण किया किंतु छह महिने युद्धके उपरांत भी अकबर उन्हें पराभूत न कर सका; तथा वह देहली लौट गया । अंतिम उपायके रूपमें अकबरने एक पराक्रमी योद्धा सरसेनापति जगन्नाथको १५८४ में बहुत बडी सेनाके साथ मेवाडपर भेजा, दो वर्षके अथक प्रयासोंके पश्चात भी वह राणा प्रताप को नहीं पकड सका ।

 

६. महाराणा प्रतापका कठोर प्रारब्ध

जंगलोंमें तथा पहाडोंकी घाटियोंमें भटकते हुए राणा प्रताप अपना परिवार अपने साथ रखते थे । शत्रूके कहींसे भी तथा कभी भी आक्रमण करनेका संकट सदैव  बना रहता था । जंगलमें ठीकसे खाना प्राप्त होना बडा कठिन था । कई बार उन्हें खाना छोडकर, बिना खाए-पिए ही प्राण बचाकर जंगलोंमें भटकना पडता था । शत्रूके आनेकी खबर मिलते ही एक स्थानसे दूसरे स्थानकी ओर भागना पडता था । वे सदैव किसी न किसी संकटसे घिरे रहते थे ।  एक बार महारानी जंगलमें रोटियां  सेंक रही थी; उनके खानेके बाद उन्होंने अपनी बेटी से कहा कि, बची हुई रोटी रातके खानेके लिए रख दे; किंतु उसी समय एक जंगली बिल्लीने झपट्टा मारकर रोटी छीन ली और राजकन्या असहायतासे रोती रह गई । रोटीका वह टुकडा भी उसके प्रारब्धमें नहीं था । राणा प्रताप को बेटी की यह स्थिति देखकर बडा दुख हुआ, अपनी वीरता, स्वाभिमानपर उन्हें बहुत क्रोध आया तथा विचार करने लगे कि उनका युद्ध करना कहांतक उचित है ! मनकी इस द्विधा स्थितिमें उन्होंने अकबरके साथ समझौता करनेकी बात मान ली । पृथ्वीराज, अकबर के दरबारका एक कवी जिसे राणा प्रताप बडा प्रिय था, उन्होंने राजस्थानी भाषामें राणा प्रतापका आत्मविश्वास बढाकर उसे अपने निर्णयसे परावृत्त करनेवाला पत्र कविताके रुपमें लिखा । पत्र पढकर राणा प्रतापको लगा जैसे उसे १०,००० सैनिकोंका बल प्राप्त हुआ हो । उनका मन स्थिर तथा शांत हुआ । अकबरकी  शरणमें जानेका विचार उन्होंने अपने मनसे निकाल दिया तथा अपने ध्येयसिद्धि हेतु सेना अधिक संगठित करनेके प्रयास आरंभ किए ।

भामाशाहकी महाराणाके प्रति भक्ति महाराणा प्रतापके वंशजोेंके दरबारमें एक रजपूत सरदार था । राणा प्रताप जिन संकटोंसे मार्गक्रमण रहा था तथा जंगलोंमें भटक रहा था, इससे वह बडा दुखी हुआ । उसने राणा प्रतापको  ढेर सारी संपत्ति दी, जिससे वह २५,००० की सेना १२ वर्षतक रख सके । महाराणा प्रतापको बडा आनंद हुआ एवं कृतज्ञता भी लगी ।

आरंभमें महाराणा प्रतापने भामाशाहकी सहायता स्वीकार करनेसे मना किया किंतु उनके बार-बार कहनेपर राणाने संपात्तिका स्वीकार किया । भामाशाहसे धन प्राप्त होनेके पश्चात राणा प्रतापको दूसरे स्रोतसे धन प्राप्त होना आरंभ हुआ । उन्होंने सारा धन अपनी सेना का विस्तार करनेमें लगाया तथा चितोड छोडकर मेवाडको मुक्त किया ।

 

७. महाराणा प्रताप की अंतिम इच्छा

     महाराणा प्रतापकी मृत्यु हो रही थी, तब वे घासके बिछौनेपर सोए थे, क्योंकि चितोडको मुक्त करनेकी उनकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई थी । अंतिम क्षण उन्होंने अपने बेटे अमर सिंहका हाथ अपने हाथमें लिया तथा चितोडको मुक्त करनेका दायित्व  उसे सौंपकर शांतिसे परलोक सिधारे । क्रूर बादशाह अकबरके साथ उनके युद्धकी इतिहासमें कोई तुलना नहीं । जब लगभग पूरा राजस्थान मुगल बादशाह अकबरके नियंत्रणमें था, महाराणा प्रतापने मेवाडको बचानेके लिए १२ वर्ष युद्ध किया । अकबरने महाराणाको पराभूत करनेके लिए बहुत प्रयास किए किंतु अंततक वह अपराजित ही रहे । इसके अतिरिक्त उन्होंने राजस्थान का बहुत बडा क्षेत्र मुगलोंसे मुक्त किया । कठिन संकटोंसे जानेके पश्चात भी उन्होंने अपना तथा अपनी मातृभूमिका नाम पराभूत होनेसे बचाया । उनका पूरा जीवन इतना उज्वल था कि स्वतंत्रताका दूसरा नाम ‘ महाराणा प्रताप ’ हो सकता है । उनकी पराक्रमी स्मृतिको हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।

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