पुस्तकों द्वारा हिन्दूविरोधी लेखन प्रकाशित कर देश में फैलाया जा रहा है बौद्धिक आतंकवाद

सरिता, कारवां, चम्पक और दिल्ली प्रेस : सभी का उद्देश्य – हिन्दूफोबिया और वामपंथी प्रोपेगेंडा का विस्तार

आज हम उस दौर में रह रहे हैं, जहां कट्टरपंथी इस्लाम ने लाखों लोगों की मौत के साथ दुनिया को अपने चंगुल में जकड रखा है, जो काफिरों (हिन्दुओं) पर होने वाली हर तरह की हिंसा के लिए साफ तौर पर जिम्मेदार है। लेकिन ऐसे दौर में भी अधिकांश वामपंथी प्रचार चलाने वाले वेबसाइट उन पर आंख मूंदे हुए हैं। वहां उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती। कोई असहिष्णुता दिखाई नहीं देती क्योंकि समस्यायों के व्यापार पर पलने वाले ऐसे कुटीर उद्योग जो मुख्य रूप से हिंदुओं, उनके धर्म और संस्कृति को निशाना बनाते है । दशकों से ऐसे गिरोहों का एकमात्र उद्देश्य ही पीडित हिन्दुओं को और प्रताड़ित और अपमानित करना हो चुका है। अब तो ये गोएबल्स धुरंधर प्रचारक इतना आगे बढ चुके हैं कि अपने वे अब बच्चों को बलि का बकरा बनाने से भी नहीं चूक रहे हैं। यहां बात हो रही है बच्चों की एक पत्रिका ‘चंपक’ के नवीनतम संस्करण की ।

@OnlyNakedTruth नामक ट्विटर हैंडल से एक ट्विटर यूजर ने चंपक के अक्टूबर संस्करण के कुछ स्क्रीनशॉट ट्वीट किए, जो कि कश्मीर पर केंद्रित है। इसमें ये दिखाया गया है कि अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय करने के लिए मोदी सरकार के कदम ने उस विशेष स्थिति को ही समाप्त कर दिया, जिसका कश्मीर दशकों से लाभ ले रहा था। यहां यह छिपा है कि वामपंथी और अलगाववादी इससे मलाई काट रहे थे और आतंकी कश्मीर में आश्रय पा रहे थे।

इसी ट्विटर हैंडल द्वारा साझा किए गए स्क्रीनशॉट में से एक में बच्चों से कश्मीर में अन्य बच्चों को लिखने का देखिए कितना ‘मार्मिक’ आग्रह किया गया है।

चंपक पत्रिका के अक्टूबर संस्करण के एक हिस्से में पत्रिका बच्चों से कश्मीर में अपने जैसे अन्य बच्चों के नाम पत्र लिखने और उनसे वहां की स्थिति के बारे में पूछने के लिए अपील की गई है। पत्रिका के इस संस्करण में कहा गया है कि कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त किए जाने के बाद घाटी में स्थिति ठीक नहीं है। हजारों सैनिकों और सेना की बटालियनों को कश्मीर भेजा गया है और जगह-जगह कर्फ्यू लगा हुआ है। यहां तक कि टेलीफोन लाइनों और इंटरनेट सेवाओं को भी निलंबित कर दिया गया है। मतलब उनपर बड़ा अत्याचार हो रहा है। आप हमें पत्र भेंजे हम उन्हें निश्चित रूप से कश्मीर के बच्चों तक पहुचाएंगे। ऐसा करके बच्चों में ये जहर बोने की कोशिश है कि देखिए वहां के बच्चे किस हाल में हैं। कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है कि इससे पहले वहां के क्या हालात थे।

अगला स्क्रीनशॉट तो और भी खतरनाक है :

अगले भाग में, चंपक में एक छोटे लड़के की तस्वीर खींची गई है, नाम है हसन जो स्कूल जाना और खेलना चाहता है, जबकि अत्याचारी भारतीय राज्य और वहां की सेना उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं दे रही है। कहानी के माध्यम से दुष्प्रचार का पूरा खाका खींचा गया है, लेख में इस बारे में भी बात की गई है कि हसन की मां घर पर नहीं है और पिता फोन के काम न करने के कारण उनसे संपर्क नहीं कर पाने के कारण सभी दुखी हैं। यहां एक बात गौर करने लायक है जैसे फोन का कुछ दिनों काम न करना बहुत बुरी स्थिति है। इससे अच्छा तो आतंकवाद और अलगाववाद ही था।

हालांकि, इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं है, कि घाटी में संचार व्यवस्था पर वास्तव में रोक थी, लेकिन क्यों थी इस पर चर्चा नहीं है। जबकि सबको पता है कि कश्मीर कहीं अधिक अति संवेदनशील विषय है, जिसे छोटे विद्यालयीन बच्चों को भावुकता के साथ सुनाए गए ऐसे कहानियों के माध्यम से नहीं समझाया जा सकता है। यह कहानी स्पष्ट रूप से बच्चों को कश्मीर में बड़े पैमाने पर होने वाले जिहाद, आईएसआईएस और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों की मौजूदगी के बारे में नहीं बताती है, और ये भी नहीं कि अनुच्छेद 370 के कारण घाटी के हिंदुओं, महिलाओं के अधिकारों और अन्य छोटे समुदायों के अधिकारों पर कितना ज़्यादा बुरा प्रभाव पड रहा था। ये सभी वर्ग अपने मूलभूत अधिकारों से भी वंचित थे। लेकिन ये ऐसे वामपंथी प्रोपेगेंडा बाजों के लिए कोई समस्या की बात नहीं है बल्कि इनके लिए कुछ दिनों तक फोन का बंद होना सबसे बड़ी समस्या और कश्मीर के लोगों पर अत्याचार हो गया।

हम सब जानते हैं कि शुद्ध भावुकता के साथ बच्चों को ऐसे आधे-अधूरे तथ्य परोसने के कई खतरे हैं, ऐसे कई तथ्य हैं जो चम्पक बच्चों से छिपा रहा है। लेकिन यही तो वामपंथी प्रोपेगेंडा का असली हथियार है। हमेशा उन्हीं तथ्यों या घटनाओं पर बात या बवाल किजिए जो एजेंडे को शूट करे।

दिल्ली प्रेस और उग्र हिंदूफोबिया

दिल्ली प्रेस, जहां से बच्चों की मैगजीन चंपक प्रकाशित होती है, उसे अब परंपरागत रूप से जमीनी वास्तविकताओं से दूर कर अक्सर वामपंथी प्रोपेगेंडा को आगे बढ़ाने के लिए, हिंदुओं और भारतीय संस्कृति के खिलाफ लगातार अभियान चलाने का मुखपत्र बना दिया गया है और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस तरह से कहीं न कहीं मासूम बच्चों की जड़ों में ही जहर घोल देने का प्रयास इस वामपंथी एजेंडे के तहत किया जा रहा है।

जानकारी के लिए बता दें कि, दिल्ली प्रेस एक बड़ा प्रकाशन हाउस है जो 10 अलग-अलग भाषाओं में 36 पत्रिकाओं के माध्यम से अपना प्रोपेगेंडा और एजेंडा फैला रहा है। दिल्ली प्रेस की स्थापना 1939 में हुई थी और इसकी शुरुआत 1940 में कारवां पत्रिका से हुई थी। कारवां के कारनामे आपने पुलवामा के समय देखें होंगे जहां एक तरफ देश बलिदानियों के दुःख से आहत था तो वहीं कारवां हुतात्माओं की जाति तलाश रहा था।

ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेस में वामपंथी आज भी सबसे आगे आते हैं, दिल्ली प्रेस भी शुरुआत से ही वामपंथी विचारों का गढ रहा है। इसके संस्थापक विश्वनाथ का वैचारिक झुकाव किसी से छिपा नहीं है। उनके बाद बेटे पारसनाथ ने जिम्मेदारी संभाली जो आज दिल्ली प्रेस के प्रकाशक और 30 पत्रिकाओं के संपादक हैं। एक व्यक्ति द्वारा 30 पत्रिकाओं का संपादन किया जाना सामान्य नहीं है, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि प्रोपगेंडा सही तरीके से पहुंचे, उसमें कोई कमी न रह जाए।

मित्रोखिन आर्काइव में प्रकाशित डाक्यूमेंट्स के आधार पर यह स्पष्ट है कि आजादी के बाद सोवियत रूस ने भारत में कम्युनिस्ट प्रोपगेंडा को विस्तार देने के लिए लाखों लेख प्रकाशित करवाए। सैकड़ों पत्रकारों और लेखकों के माध्यम से हिन्दू विरोधी विचारों को बढ़ावा दिया गया। इन सबके साथ दिल्ली प्रेस कदमताल करके चलती रही। यही कारण है कि जब सोवियत रूस कमजोर होने लगा तो फंडिंग की कमी की वजह से 1988 में कारवां को बंद करना पड़ा था, उसके अगले ही साल 1989 में सोवियत रूस टूट गया। 2009 में कारवां को दोबारा शुरू किया गया और कांग्रेस के वरदहस्त के नीचे ये पत्रिका दोबारा राष्ट्रविरोधी विचारों के प्रसार में सक्रिय हो गयी।

दिल्ली प्रेस विश्व बुक्स के बैनर पर किताबों का भी प्रकाशन करती है। अमेज़न पर इस प्रकाशन की कई किताबें बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ किताबों के नाम हैं – धर्म एक धोखा, धर्म का शाप, धार्मिक कर्मकांड – पंडों का चक्रव्यूह, द हिस्ट्री ऑफ हिन्दूज – सागा ऑफ डीफिट्स, तुलसीदास – हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक, क्या हम हिन्दुओं में नैतिकता है इत्यादि। इन पुस्तकों के नाम से ही स्पष्ट है कि यह कैसे नफरत से भरी हैं, लेकिन इसके बावजूद न तो इनका कोई विरोध है, न ही इन्हें रोकने का कोई उपाय।

हमें ये समझना होगा कि वो मंचों से हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगलने वाले हों या स्वस्तिक के निशान पर फ़क हिंदुत्व लिखने वाले, दिल्ली के सड़कों पर आजादी के नारे लगाने वाले या हिन्दू मान्यताओं का उपहास उड़ाने वाले। उनका मानस तैयार करने का काम दिल्ली प्रेस जैसी संस्थाएं ही करती हैं। अगर हम इस देश से हिन्दूफोबिया का अंत चाहते हैं तो इन संस्थाओं की जड़ों में मठ्ठा डालना जरुरी है।

IndiaFacts.org में प्रकाशित एक ओपिनियन में लेखक ने लिखा है…

“ऐसे समय में जब नास्तिकता वयस्कों के बीच भी अलोकप्रिय हो रही थी, बच्चों की पत्रिका, चंपक ने नास्तिक प्रोपेगेंडा पर काम करना शुरू किया, जिसका मुख्य निशाना हिंदू धर्म था। कई कहानियों के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया गया कि, कैसे ‘मूर्तियों की पूजा करना अंधविश्वास है’ और कैसे ‘विज्ञान के वर्चस्व वाले विश्व में धर्म पर हावी होने वाली संस्कृति को बदल देना चाहिए।’ यहां इनके वामपंथियों के निशाने पर यह धर्म हमेशा ‘हिंदू धर्म’ ही है।

यह सब कुछ नया नहीं है बल्कि कश्मीर पर चंपक की नवीनतम लघु कहानी के जरिए परोसे गए प्रोपेगेंडा जैसा ही है।

सरिता: ‘अश्लीलता’ और हिंदूफोबिया से जुडे वाक्यांश का उपयोग

दिल्ली प्रेस, की एक अन्य पत्रिका सरिता तो ‘उग्र हिंदूफोबिया’ के विरूद्ध तो पूरा वसीयतनामा ही प्रस्तुत करती है।

दिल्ली प्रेस की वेबसाइट खुद सरिता को एक प्रमुख पत्रिका के रूप में पेश करते हुए लिखता है कि यह पत्रिका जो ‘धार्मिक अश्लीलतावाद’ और ‘राजनीतिक सत्तावाद’ के खिलाफ लड़ाई है।

यह देखना दिलचस्प है कि सरिता का वर्णन करने के लिए दिल्ली प्रेस ‘धार्मिक अश्लीलता’ से लडने जैसे शब्द का उपयोग कर रहा है। इस मैगजीन में छपे हिंदू-विरोधी लेखन को देखते हुए, कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि सरिता का उद्देश्य केवल हिंदू संस्कृति और धर्म के सिद्धांतों पर सवाल उठाना है, जिसे वे अक्सर ‘अंधविश्वास’ के रूप में दिखाते हैं। ‘अश्लीलतावाद’ जब एक गहरी हिंदू-विरोधी पत्रिका का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है, तो इसका अर्थ केवल ब्राह्मणवाद-विरोधी माना जा सकता है, जो कि एक ट्रैप है जो अक्सर वामपंथियों द्वारा हिंदू धर्म को गलत तरीके से वर्णित करने के लिए बड़ी धूर्तता से उपयोग किया जाता है।

सरिता में छपे कई ऐसे लेख हैं जिनके शीर्षक, जो स्पष्ट रूप से हिंदू-विरोधी तिरस्कार और नफरत को प्रदर्शित करते हैं। जैसे- ‘कांवडिया, अंधविश्वासी परंपराओं के वाहक’, “(हिन्दू) पंडितों का भ्रम”, “वास्तु (हिंदू) धर्म की एक बुराई”, धर्म की आड़ में सब्ज़बाग, नए टोटकों से ठगी: मिर्ची यज्ञ और गुप्त नवरात्री’ आदि कुछ ऐसे लेख हैं जो पत्रिका में मौजूद हैं। इन लेखों के शीर्षकों से ही एजेंडा साफ़ दिखने लगता है कि इनके निशाने पर कौन है।

सरिता पत्रिका का वर्तमान मुखपृष्ठ,  धर्म इस प्रकार दिखता है:

’धर्म’ के होम पेज पर हर एक लेख में हिंदू धर्म को अपमानित करता हुआ लेख देख सकते हैं। 13 लेखों में कुछ के टाइटल हैं- “पुजारी कैसे भक्तों को भटकाते हैं”, “किस तरह से भक्ति के शहर में ‘लड़कियों की बिक्री’ होती है। साधुओं और संतों को एक्सपोज़ करने के नाम पर यह लेख कि ‘धर्म खून से खेलता है।”

वेबसाइट के आर्काइव में आगे भी, ऐसे कई लेख मिलते हैं जो बताते हैं कि सरिता हिंदुओं के विश्वास का अपमान करने के मिशन पर है।

यहां 2016 का एक ऐसा ही लेख है..

अनिवार्य रूप से, लेख का शीर्षक है, “अंधविश्वास और पाखंड का महिमामंडन करती श्री दुर्गासप्तशती”।

सरिता ने पहले भी और यहां तक कि हाल ही में अक्टूबर 2019 में हाल ही में प्रकाशित किए गए गटर के स्तर के हिंदूफोबिक लेखों के बारे में बात करने के लिए देखे जा सकते हैं। हालांकि, इतने से ही यह स्पष्ट है कि सरिता, दिल्ली प्रेस की प्रमुख हिंदी पत्रिका पिछले कई दशकों से हिंदू धर्म के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़े हुए है। इसे सारी बुराई सिर्फ एक ही धर्म में दिख रही है।

सरिता के हिंदूफोबिया की यह गाथा नई नहीं है। 1957 में, अरविंद कुमार की कविता “राम का अन्तर्द्वंद” को लेकर एक विवाद उत्पन्न हुआ जो सरिता में ही प्रकाशित हुआ था।

कारवां : दिल्ली प्रेस का मूल हिंदूफोबिया

१. कारवां पत्रिका दिल्ली प्रेस की पहली पेशकश थी और इसे 1940 में लॉन्च किया गया था। लेकिन वर्तमान में कारवां इस बात का प्रमाण है कि दिल्ली प्रेस वास्तव में अपने दुर्भावनापूर्ण लेखों के माध्यम से कितना नीचे गिर गया है। पुलवामा आतंकी हमला पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और नृशंस रूप से किया गया एक आत्मघाती हमला था जिसमें कई भारतीय सैनिकों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया था। पूरा देश ने एकजुट होकर शोक व्यक्त किया। देश ने एक ऐसे आतंकी राज्य पाकिस्तान के खिलाफ प्रतिशोध की मांग भी की जिसने हमारे सैनिकों के खून से पुलवामा की गलियों को रंग दिया। जब राष्ट्र अपने सशस्त्र बलों के पीछे खडा था, तो उस समय कारवां उनकी जाति की गिनती में व्यस्त था।

२. कारवां पत्रिका ने हाल ही निम्न ट्विट पोस्ट किया था जिसमें यह दावा किया है कि, ‘‘नालंदा को “हिंदू कट्टरपंथियों” द्वारा जलाया गया था न कि बख्तियार खिलजी द्वारा’’ – हिंदू पोस्ट की रिपोर्ट

३. ग्लोबल कॉन्फ्रेंस में ‘धर्म और मीडिया’ पर एक सत्र के दौरान भारत विरोधी व्याख्यान के लिए प्रसार भारती के प्रमुख डॉ. ए. सूर्यप्रकाश ने कारवां पत्रिका के संपादक का विरोध किया था । – नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट

द कारवां के एजाज अशरफ की एक रिपोर्ट में, उन्होंने हमारे शहीद सैनिकों की ‘जाति का विश्लेषण’ किया था। कारवां का एजेंडा तो ऐसा है, जिसमें उन्होंने उन बलिदानी सैनिकों को भी नहीं छोडा, जिनकी पाकिस्तान जैसे आतंकी स्टेट द्वारा प्रायोजित आतंकी संगठन जैश द्वारा निर्मम हत्या कर दी गई थी।

इसी द कारवां ने केवल अपने एजेंडे के लिए अमित शाह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, एनएसए डोभाल और उनके बेटे पर कई घटिया आधारहीन रिपोर्ट प्रकाशित किए हैं। और जब खुलासा हुआ तो नए प्रोपेगेंडा की तरफ निकल लिए।

हिन्दुओं, ब्राह्मणों, प्राचीन इतिहास की घृणा से सनी हैं ‘विश्व बुक्स’ की किताबें, धर्मग्रंथों का घोर अपमान

विश्व बुक्स’ की अधिकतर पुस्तकें बच्चों और छात्रों के लिए लिखी जाती है। वो लोग ही इसे ज्यादा पढ़ते हैं। कई पुस्तकें वयस्कों के लिए भी हैं। इनमें से अधिकतर हिन्दूघृणा से सनी हुई किताबें हैं।

उदाहरण के लिए इसके एक किताब का शीर्षक देखिए- “धार्मिक कर्मकांड- पंडों का चक्रव्यूह“, जिसमें ब्राह्मणों का मजाक बनाया गया है। इसमें हिन्दू धर्म की पूजा पद्धतियों को नकारते हुए इसे ब्राह्मणों की साजिश बताया गया है। यानी, ब्राह्मणों, साधुओं, हिन्दू धर्म और मंदिरों को बदनाम करने का ‘विश्व बुक्स’ ने बीड़ा उठाया हुआ है। राकेश नाथ द्वारा लिखित इस पुस्तक के कवर पर ही भगवा वस्त्रों में एक ब्राह्मण को कमण्डल लेकर भागते हुए दिखाया गया है।

जब छात्र व बच्चे इन चीजों को पढ़ते होंगे तो क्या वो अपने ही धर्म और समाज के प्रति हीन भावना से ग्रसित नहीं हो जाते होंगे? ब्राह्मणों को इस तरह से पेश किया गया है जैसे वो समाज के सबसे बड़े विलेन्स हों। इसी तरह इसने जयप्रकाश यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘धर्म: एक धोखा’ नामक पुस्तक का प्रकाशन किया है, जिसमें धर्म को छल-कपट का विषय बताया गया है। इसके कवर पेज पर भी कमंडल लिए एक ब्राह्मण को दिखाया गया है।

अमेजन वेबसाइट पर एक महिला ने श्रीमद्भगवद्गीता का ऑर्डर किया , विश्व बुक्स ने स्पेशल गिफ्ट के नाम पर उसके साथ ‘भागवत पुराण कितना अप्रासंगिक’ यह पुस्तक भी भेजा । यह पहली बार नहीं है, जब इस विक्रेता ने अमेजॉन के जरिए इस प्रकार की किताबें अपने ग्राहक को भेजने का काम किया। इससे पहले भी लोगों ने अमेजॉन पर रिव्यू लिखे हैं, जहां एक यूजर लिखता है कि, किताब विक्रेता ने उसे भी एक किताब फ्री भेजी थी। जिसमें हिंदुत्व औऱ श्रीमद्भगवद्गीता के विरूद्ध विचार प्रस्तुत थे। अधिक पढें..

बाद में पता चला कि इस तरह की घटना कई उपभोक्ताओं के साथ हो चुकी है। कई लोगों को ऐसी किताबें भेजी गई हैं। किसी ने सुपरहीरोज की किताब ऑर्डर की तो उन्हें ये मिला, किसी ने अंग्रेजी की किताब मंगाई तो उन्हें बाइबल पहुँची। जाहिर है, वो भले ही मुफ्त में चीजें दे दें लेकिन उन्हें हिन्दुओं के विरूद्ध घृणा को भडकाना ही है, हर हाल में। ऐसे पाठकों को खासकर निशाना बनाया जा रहा है, जो आस्तिक हैं, धर्म में विश्वास रखते हैं।

कुलमिलाकर, लाखों पाठकों के साथ, दिल्ली प्रेस ने एक ऐसा व्यापक जाल बुन डाला है। जिससे निकलना शायद अब उससे संभव न हो। सरिता, कारवां, जो संभ्रांत अंग्रेजी बोलने वाली भीड़ का मुखपत्र है। दिल्ली प्रेस ने अब अपनी प्रोपेगेंडा की धार और तेज करने के लिए स्पष्ट रूप से अब बच्चों की पत्रिका चंपक को भी अपने एजेंडे का हथियार बनाकर मासूमों के कोमल मन पर भी अपनी विषबेल फैलाने के पथ पर अग्रेसर है।

आज सूचना युद्ध के युग में दिल्ली प्रेस ने एक ऐसे पक्ष को चुना है जो हिन्दूफोबिया से ग्रसित और वामपंथी दूषित एजेंडे का पोषक है। आज जब एक ऐसा दौर चल रहा है जहां आतंक को बढावा देने के लिए एक देश जी जान से लगा है तो इस दौर में आपको सोचना अपने समाज, अपने देश और अपने बच्चों के भावी भविष्य के बारें में। हम सबको पता है यह वामपंथी एजेंडे का पोषक पक्ष जो हिंदुओं के लिए खड़ा नहीं है, और न ही यह भारत के लिए खड़ा है। तो हमें खुद अपने लिए खड़ा होना होगा। और ऐसे प्रोपेगेंडा से निपटना होगा। ये वामपंथी गिरोह जहां भी जहर फ़ैलाने की कोशिश करें उसे पूरी सजगता से रोकना होगा। इसी में देश, समाज और आने वाली पीढ़ियों की भलाई है।

देवदत्त पटनायक : हिन्दू प्रथा-परंपरा को पाखंड बतानेवाले लेखक

देवदत्त पट्टनायक आज हिंदू धर्म पर साहित्य लिखनेवाले लेखकों में से एक है। हालांकि, उनके लेखन में, विकृति, गलत ढंग से प्रस्तुत करने और गढने की प्रवृत्ति है। सोशल मीडिया पर उनकी नाराजगी मनोवैज्ञानिक समस्याओं से प्रेरित एक व्यक्ति की तस्वीर को चित्रित करती है, जिस पर सवाल उठने पर गालियां देने का खतरा होता है और मान्य आलोचनाओं का जवाब देने में उल्लेखनीय अक्षमता होती है।

देवदत्त पटनायक की पुस्तक “The Illustrated Mahabharata” में असंख्य त्रुटियां, विकृतियां, गलत बयानबाजी – अभिनव अग्रवाल की रिपोर्ट

नित्यानंद मिश्रा वित्तीय उद्योग में कार्यरत एक आईआईएम स्नातक हैं। वह हिंदू धर्मग्रंथों के बारे में अभ्यासक हैं और उन्होंने रुचि के साथ इसका अध्ययन किया है। नित्यानंद ने हाल ही में राजीव मल्होत्रा ​​के साथ बातचीत में देवदत्त पट्टानिक के कार्यों की विस्तृत आलोचना की है ।उन्होंने खुलासा किया कि, स्व-घोषित पौराणिक लेखक का लेखन हिंदू पुराणों की कहानियों पर आधारित नहीं है। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि लेखक संस्कृत के शब्दों का गलत अर्थ निकाल सकता है । – OpIndia की रिपोर्ट

नित्यानंद का दावा है कि, देवदत्त मनगढंत पद्धति से अपनी कहानियों का आविष्कार कर रहे हैं और उन्हें हिंदू पौराणिक कथाओं के रूप में बेच रहे हैं । इसके अतिरिक्त, मिश्रा का कहना है कि पटनायक को ब्राह्मणों से विशेष घृणा है और वह उनके काम की वास्तविक आलोचना को स्वीकार नहीं करता है।

पूरी बातचीत नीचे देखी जा सकती है :

यह एक विस्तृत भेंटवार्ता है जहां वह पटनायक के कार्य का काफी अच्छी पद्धति से विश्लेषण किया है । जैसा कि वीडियो के विवरण में संक्षेप में कहा गया है, राजीव मल्होत्रा ​​के साथ मिश्रा की बातचीत में निम्न विषयों पर प्रकाश डाला है…

  • उदाहरण से यह प्रतीत होता है कि, देवदत्त संस्कृत की मूल बातें भी नहीं जानते हैं।
  • उन्होंने अपनी मनगढंत पौराणिक कथाओं में कामवासना को जोडा जैसे की उनके ही चहेते लेखक वेंडी डोनिगर ने किया है ।
  • पटनायक द्वारा संस्कृत शब्दों का भाषांतर करने समय उसमें गंभीर गलतियां है, जिससे शब्द का अर्थ ही बदल जाता है ।

श्री. मिश्रा ने एक विस्तृत लेख भी लिखा है, जिसमें उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘मेरी गीता’ की आलोचना की गई है। पुस्तक एक सर्वश्रेष्ठ विक्रेता के रूप में प्रसिद्ध है जिसे हिंदू शास्त्रों को समझने के लिए व्यापक रूप से लोगों द्वारा पढा जा रहा है। हालांकि, पटनायक के आलोचकों के अनुसार, इसमें गंभीर त्रुटियां हैं।

ब्रेकिंग इंडिया के लेखक राजीव मल्होत्रा ने कहा है कि, पटनायक ईसाई मिशनरीज के एक प्रोजेक्ट का हिस्सा है ! उनकी पुस्तकों को देखकर तो यही प्रतीत हो रहा है ! वह भारत की पूरी सभ्यता-संस्कृति को पश्चिमी विद्वानों की तरह मिथक साबित करने पर तुले हुए है! वह हिंदू इतिहास को मिटाने के लिए प्रयत्नशील है !

चूंकि अधिकांश हिंदुओं ने अपने मूल शास्त्रों को नहीं पढा है, इसलिए देवदत्त पटनायक के विश्लेषण को ही वो शास्त्र मान लेते हैं और पटनायक सफल हो जाता है। वह झूठ के जरिए भ्रम पैदा कर रहा है। जैसे, वह आपको समझा रहा है कि महाभारत पहले हुआ और रामायण बाद में ! और इसे मानते ही आपके युग की पूरी अवधारणा ध्वस्त हो जाती है !

डॉ. मकरंद परांजपे के खिलाफ बौद्धिक आतंकवाद !

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र शाखा ने फरवरी 2016 में जेएनयू में एक कार्यक्रम आयोजित किया था । इसमें इस्लामिक आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु, जिसे 2001 के भारतीय संसद हमले के लिए दोषी ठहराया गया था उसकी फांसी का विरोध किया गया था । कैंपस में खुलेआम ‘भारत तेरे तुकडे होंगे, इंशाअल्ला’, ‘अफजल हम शर्मिंदा है, तेरे कातिल अब भी जिंदा है’ जैसे कई भारत विरोधी नारे लगाए गए । प्रदर्शनकारियों ने सीधे तौर पर भारतीय राज्य और इसकी संप्रभुता को कई टुकड़ों में तोडने की धमकी दी। यह भारतीय राज्य के खिलाफ आक्रामकता का एक स्पष्ट मामला था। डॉ. मकरंद परांजपे ने प्रदर्शनकारियों ’का विरोध किया तथा यह तर्क देते हुए कि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब भारत को तोडने की खुलेआम धमकियां देना नहीं है ।

एेसा कहकर मकरंद परांजपे ने वामपंथियों का विरोध करने की हिम्मत दिखाई । किंतु दुर्भाग्यवश उनके इस विरोध को वामपंथियों ने उनके खिलाफ बदनामी का अभियान बताया, जिसका उद्देश्य उनकी तर्कसंगत आवाज को शांत करना था। और यह सफल भी रहा । उनकी आवाज दबाई गई ।

डॉ. परांजपे को भारतीय समाचार पत्रों, समाचार चैनलों और ऑनलाइन माध्यमों में वामपंथी ’बुद्धिजीवियों’ द्वारा विरोध का सामना करना पड़ा। उन्हें कैंपस में वामपंथी छात्रों द्वारा आक्रामकता और धमकी का भी सामना करना पड़ा । उन्हें विश्वविद्यालय परिसर में अपने स्वयं के कार्यालयों में प्रवेश करने से भी रोक दिया गया।

स्त्रोत : OpIndia

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