भारत को जगत के आध्यात्मिक गुरु की दृष्टि से देखा जाता है । अन्य किसी भी धर्म के पास इतना उच्च कोटि का ज्ञान नहीं है । वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण के माध्यम से ऋषि-मुनियों ने हमारे लिए यह ज्ञान लिखकर रखा है, तब भी हिन्दुओं को यह कहना पडता है कि ‘स्वधर्माभिमान निर्माण करो ।’ यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है । हिन्दुओं के अधःपतन का मुख्य कारण उनका धर्मविषयक अज्ञान ही है । हिन्दुओं को यह ज्ञात नहीं है कि उनके धर्मकर्तव्य कौन से हैं । हिन्दुओं को अब उनके धार्मिक कर्तव्यों का स्मरण करवाने की, अर्थात उन्हें साधना के लिए प्रवृत्त करने की आवश्यकता है ।
धर्मरक्षा करना, यह पूर्व के राजाओं का कर्तव्य था; परंतु आज के राजनेता धर्मद्रोही हैं । ऐसे में हम हिन्दुओं को ही अब धर्मरक्षा का शिवधनुष्य उठाना होगा । यहां ‘शिवधनुष्य’ ऐसा उल्लेख जानबूझकर किया है; वह इसलिए कि केवल बाहुबल द्वारा शिवधनुष्य उठाना संभव नहीं होता । उसके लिए दैवीय सामर्थ्य की आवश्यकता होती है । केवल शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर कार्य करने से धर्मरक्षा नहीं होगी, अपितु आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रयत्न करना होगा । अर्थात धर्मरक्षा करने के लिए क्षात्रतेज के साथ-साथ ब्राह्मतेज भी आवश्यक है । उस दृष्टि से ब्राह्मतेज क्या है, हिन्दुओं के इतिहास में ब्राह्मतेज का स्थान क्या है, हिन्दू संगठन में उसकी क्या आवश्यकता है, ये विषय हम इस लेख में पढेंगे ।
१. ब्राह्मतेज क्या है ?
ब्राह्मतेज का अर्थ है, साधना करने से उत्पन्न होनेवाला आध्यात्मिक बल !
२. ब्राह्मतेजकी आवश्यकता
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का शिवधनुष धर्माचरणी हिन्दुआें को ही उठाना है । शिवधनुष शब्दका उपयोग इसलिए किया है कि यह कार्य केवल बाहुबल से नहीं हो पाएगा । इसके लिए दैवी सामर्थ्य भी आवश्यक है । केवल शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक स्तर पर कार्य करने से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो पाएगी । इसके लिए आध्यात्मिक स्तर पर भी यत्न करने पडेंगे । हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए क्षात्रतेज के साथ ब्राह्मतेज भी (आध्यात्मिक बल भी) आवश्यक है ।
३. ब्राह्मतेज से कार्य कैसे होता है ?
अणुबम से परमाणुबम अधिक शक्तिशाली होता है; क्योंकि वह अणु से अधिक सूक्ष्म होता है । अर्थात जो जितना अधिक सूक्ष्म है, वह उतना अधिक शक्तिशाली है । कोई भी कार्य विविध स्तरों पर कैसे होता है, इसका विचार करने पर ब्राह्मतेज का सामर्थ्य समझ में आएगा ।
३ अ. पंचभौतिक (स्थूल, वैज्ञानिक स्तर)
शत्रु कहां है, यह पंचज्ञानेन्द्रियों से पता चलता है । उदाहरण के लिए, वह दिखाई दे अथवा उसकी हलचल ज्ञात हो, तो उसे बन्दूक की गोली से मारा जा सकता है; परन्तु यदि वह चुपचाप कहीं छिप जाए, तो बन्दूकधारी उसे नहीं मार पाएगा । यहां मारने के लिए केवल स्थूल शस्त्र बंदूक का उपयोग किया गया है ।
३ आ. पंचभौतिक (स्थूल) और मन्त्र (सूक्ष्म) साथ-साथ
प्राचीनकाल में धनुष पर चढाया हुआ बाण मन्त्रोच्चारण के साथ छोडा जाता था । मन्त्रोच्चारण से उस बाण पर शत्रु का नाम सूक्ष्मरूप से अंकित हो जाता था और वह बाण, तीनों लोकों में कहीं भी छिपे हुए शत्रु को ढूंढकर मार डालता था ।
३ इ. मन्त्र (सूक्ष्मतर)
अगले चरण में बन्दूक, धनुष-बाण आदि स्थूल शस्त्रों के बिना केवल विशिष्ट मन्त्र से शत्रु को मारा जा सकता है ।
३ ई. व्यक्त संकल्प (सूक्ष्मतम)
अमुक कार्य हो जाए, इतना-सा विचार भी किसी गुरु अथवा सन्त के मन में आ जाए, तो वह कार्य हो जाता है । इससे अधिक उन्हें दूसरा कुछ नहीं करना पडता । इस कार के कार्य ७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के (टिप्पणी १) सन्तों से ही होते हैं ।
(टिप्पणी १ – सर्वसाधारण व्यक्ति का आध्यात्मिक प्रस्तर २० तिशत होता है । मोक्षाप्राप्त व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत होता है ।)
३ उ. अव्यक्त संकल्प (सूक्ष्मातिसूक्ष्म)
इसमें अमुक कार्य हो जाए, ऐसा संकल्प सन्त के मन में आए बिना भी वह कार्य हो जाता है । इसका कारण है, सन्त का अव्यक्त संकल्प । इस प्रकार के कार्य ८० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के सन्तों से ही होते हैं ।
३ ऊ. अस्तित्व (अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म)
इस अन्तिम चरण में मन में संकल्प भी नहीं करना पडता । सन्त के केवल उपस्थित रहने से, समीप रहने से अथवा सत्संग से कार्य हो जाता है । ९० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के सन्त से ही ऐसे कार्य होते हैं ।
३ ए. संकल्प से होनेवाले कार्य, अर्थात ब्राह्मतेज से होनेवाले कार्य !
संकल्प से कार्य होने के लिए न्यूनतम ७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर होना चाहिए । संकल्प कैसे कार्य करता है, यह अगले उदाहरण से ध्यान में आएगा ।
कल्पना कीजिए कि मनुष्य के मन की शक्ति १०० इकाई (यूनिट) है । प्रत्येक के मन में दिनभर कुछ-न-कुछ विचार आते ही रहते हैं । इन विचारों में शक्ति व्यय होती रहती है । किसी के मन में दिनभर में १०० विचार आए, तो उसकी उस दिन की अधिकांश शक्ति समाप्त हो जाएगी । परन्तु यदि विचार ही नहीं आए, अर्थात मन निर्विचार रहा और ऐसे व्यक्ति के मन में विचार आया कि अमुक कार्य हो जाए; तब उस एक विचार को सफल बनाने के लिए १०० इकाई शक्ति सक्रिय हो जाती है । इसीलिए उस विचार (संकल्प) के अनुसार कार्य हो जाता है । इसीको ब्राह्मतेज कहते हैं ।
विचार यदि सत् का होगा, तब उसमें अपनी साधना की शक्ति व्यय नहीं होती । ईश्वर ही यह कार्य पूरा करते हैं; क्योंकि यह सत् का अर्थात ईश्वर का कार्य है । यह होने के लिए व्यक्ति को नामस्मरण, सत्संग, सत्सेवा तथा सत् के लिए त्याग इस मार्ग से साधना करते हुए मन की ऐसी अवस्था प्राप्त करनी चाहिए कि उसमें असत् के विचार ही न आएं । यह सुनकर किसी-किसी को विश्वास नहीं होगा कि संकल्प से भी कार्य होते हैं । वे लोग समझ लें कि विश्व की उत्पत्ति ही ईश्वर के संकल्प से हुई है । अतः संकल्प जैसा शक्तिशाली और कुछ भी नहीं है !
हम पुराणों में ऋषि-मुनियों के शाप देने की कथाएं पढते हैं । इस शाप में संकल्प की ही शक्ति होती है । ऋषि-मुनियों को यह संकल्पशक्ति साधना से ही प्रप्त होती थी । हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए केवल शारीरिक स्तरपर यत्न करना पर्याप्त नहीं होगा, इसके लिए तो साधना से संकल्पशक्ति प्रप्त कर कार्य करना होगा ।
४. ब्राह्मतेज का महत्त्व
अ. ब्राह्मतेज में क्षात्रतेज होता ही है; इसलिए ऋषि राजा को शाप दे सकते थे ।
आ. सन्तों में विद्यमान ब्राह्मतेज के कारण ही उनके कार्यक्रम में लाखों लोग श्रद्धापूर्वक स्वेच्छा से आते हैं । उन्हें बुलाने के लिए राजनीतिक दलों की भांति पैसे नहीं देने पडते अथवा वाहन की निःशुल्क व्यवस्था नहीं करनी पडती ।
इ. किसी भी राजनीतिक दल का विदेश में चार नहीं होता; परन्तु आध्यात्मिक संस्थाओं का होता है; क्योंकि आध्यात्मिक संस्थाओं में धर्म की व्यापकता एवं आध्यात्मिक बल अर्थात ब्राह्मतेज होता है ।
५. क्षात्रतेज के साथ ब्राह्मतेज का महत्त्व बतानेवाले उदाहरण
हिन्दुओं के पूर्व इतिहास में अवतारी पुरुष एवं महापुरुषों में क्षात्रतेज और ब्राह्मतेज धारण करके धर्मरक्षा करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं ।
अ. भगवान परशुराम
इनका वर्णन इस प्रकार किया गया है –
अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ॥
अर्थ : जिन्हें चार वेद कण्ठस्थ हैं, अर्थात पूर्ण ज्ञान है । जिनकी पीठपर धनुष- बाण है, अर्थात शौर्य है; ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज से युक्त इनका (परशुरामजी का) जो कोई विरोध करेगा, उसे वे शाप से अथवा बाण से पराजित करेंगे । भगवान परशुराम ने ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज के बल पर २१ बार पृथ्वी को दुर्जन क्षत्रियों के भार से मुक्त किया था । वाल्मीकि ऋषि ने इस कार्य को राजविमर्दन कहा था । जिसका अर्थ है, दुर्जन राजनीतिज्ञों का नाश । यहां ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि भगवान परशुराम ने केवल शस्त्र से ही नहीं, शाप से भी अर्थात ब्राह्मतेज से भी, दुष्ट राजनीतिज्ञों का विनाश किया था ।
आ. अर्जुन
हमारे सद्गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी ने एक बार कहा था, ‘‘अर्जुन उत्तम धनुर्धर तो था ही; इसीके साथ वह श्रीकृष्ण का भक्त भी था । बाण छोडते समय वह सदैव श्रीकृष्ण का ही नाम लेकर छोडता था । इस कारण उसके बाण अपनेआप लक्ष्य वेधते थे । श्रीकृष्ण के नाम के कारण अर्जुन के मन में लक्ष्य को वेधने का संकल्प सिद्ध होता था ।’’
इ. छत्रपति शिवाजी महाराज
ये अपनी कुलदेवी श्री भवानीदेवी के असीम भक्त थे । उनके मुख में सदैव, जगदंब जगदंबका जप होता रहता था । उनकी सेना भी लडते समय हर हर महादेव का जयघोष करती थी । इसलिए सेना एवं संसाधन अल्प होने पर भी, वे पांच बलवान मुसलमान राज्यसत्ताओं को झुकाकर हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना कर पाए । उनकी इस साधना के कारण ही उन्हें सन्त तुकाराम महाराज एवं सन्त रामदासस्वामीजी के आशीर्वाद मिले तथा बडे-बडे संकटों से उनकी रक्षा हुई । देवताआें की भक्ति करने से हमें दैवी सहायता मिलती है, जिससे हमारे कार्य सफल होते हैं, इसका यह उत्तम उदाहरण है ।
६. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज का बल आवश्यक !
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए ब्राह्मतेज प्रप्त हो, इस उद्देश्य से समष्टिकार्य करनेवाले १०० सन्त तथा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए ५ लाख सक्रिय राष्ट्रेप्रेमियों और धर्मेप्रेमियों की आवश्यकता है । अगले ४ वर्ष में सनातन संस्था के १०० साधक सन्तत्व प्रप्त करेंगे । इससे वातावरण से रज-तम घटेगा तथा राष्ट्रेमियों और धर्मेमियों के सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनेगा । इस सुरक्षाकवच से उन्हें बल मिलेगा । (टिप्पणी १) इससे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना सम्भव होगा । (९.४.२०१३)
(टिप्पणी १ – जैसे अंधेरे में दीपक का काश उपयोगी होता है; परन्तु घने कोहरे में दीपक का काश भी निष्भ होता है । उसी कार वर्तमान रज-तम युक्त आवरण में कार्य करने के कारण हम अपनी साधना की क्षमता का उपयोग कार्य के लिए पर्याप्त मात्रा में नहीं कर पाते । सन्तों के भाव से जब यह रज- तम का आवरण दूर होगा, तभी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए राष्ट्रेमियों तथा धर्मेमियों की कार्यक्षमता का पूरा उपयोग हो पाएगा ।)
७. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के युद्ध में सनातन के साधकों का मुख्य योगदान ब्राह्मतेज के रूप में रहेगा !
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए ब्राह्मतेज और क्षात्रतेज दोनों नितान्त आवश्यक है । समर्थ रामदासस्वामी-छत्रपति शिवाजी महाराज, आर्य चाणक्य- सम्राट चंद्रगुप्त, ये जोडियां इतिहास में ब्राह्मतेज और क्षात्रतेज के आपस में मिलकर कार्य करने के उत्तम उदाहरण हैं । सनातन का हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य मुखरूप से ब्राह्मतेज पर आधारित रहेगा ।
क्षात्रतेज, दुष्वृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करने की शारीरिक और मानसिक क्षमता है । यह क्षमता एक वर्ष में भी प्राप्त की जा सकती है; परन्तु ब्राह्मतेज के विषय में ऐसा नहीं है । इसे प्राप्त करने के लिए तन-मन-धन का त्याग करते हुए १०-१५ वर्ष तो साधना करनी पडती है । सनातन के साधकों ने ऐसी साधना की है । इसलिए वे ब्राह्मतेज के माध्यम से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में सम्मिलित होंगे ।
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कार्य में अन्य अधिकतर संगठनों में साधना की नींव न होने के कारण, वे क्षात्रतेज का उपयोग करेंगे तथा सनातन के साधक ब्राह्मतेज का उपयोग करेंगे ।
८. ब्राह्मतेज के बिना हिन्दू संगठन असंभव !
भारत में अनेक संगठन हिन्दू धर्म का कार्य करते हैं । हिन्दू धर्म के विषय में कुछ करने की तीव्र इच्छा इन संगठनों मे है; परंतु हिन्दू समाज के लिए वे बहुत कुछ नहीं कर सके । उनकी ऐसी स्थिति क्यों है ? इसका कारण है उन्होंने सर्व कार्य मानसिक स्तर पर किया है । साधना का सामर्थ्य न होने से उन्हें ब्राह्मतेज, उसी प्रकार ईश्वर का आशीर्वाद नहीं मिल सका । हम ऐसा नहीं करेंगे । ईश्वर राष्ट्रभक्त की नहीं, अपने भक्त की सहायता करते हैं, यह ध्यान में रख, हमें अपनी साधना बढानी चाहिए । इससे हमारे कार्य को ईश्वर का आशीर्वाद मिलेगा !
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनाकी दिशा’