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रुद्राक्ष

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शिवपूजन करते समय गले में रुद्राक्ष की माला अवश्य धारण करें । नाथ संप्रदायी, वाम संप्रदायी एवं कापालिक, विशेषरूप से रुद्राक्ष का प्रयोग करते हैं । योगी भी रुद्राक्षमाला धारण करते हैं ।

१. रुद्राक्ष शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ

‘रुद्र ± अक्ष’, इन दो शब्दों से रुद्राक्ष शब्द बना है ।‘अक्ष’ शब्द के कुछ अर्थ ध्यान में रखते हुए ‘रुद्राक्ष’ शब्द के निम्न अर्थ बनते हैं ।

अ. अक्ष अर्थात नेत्र । रुद्र ± अक्ष अर्थात रुद्राक्ष वह है जो सर्व देखने एवं करने में समर्थ है (उदा. तीसरा नेत्र) । अक्ष का एक और अर्थ है धुरी । नेत्र एक ही अक्ष के सर्व ओर घूमता है, इसलिए उसे भी अक्ष कहते हैं ।

आ. रुद्र अर्थात रोनेवाला । ‘अ’ का अर्थ है लेना एवं ‘क्ष’ का देना, अर्थात लेने अथवा देने की क्षमता । रुद्राक्ष अर्थात वह जिसमें रोनेवाले से उसका दुःख हरण कर उसे सुख प्रदान करने की क्षमता है ।

इ. ‘रुद्राक्ष बीज है, वह कभी क्षीण नहीं होता । आत्मा भी वैसी ही है । रुद्राक्ष आत्मा का प्रतीक है । ऐसा रुद्राक्ष का भावार्थ है ।’

२. रुद्रवृक्ष (रुधिरवृक्ष, रुद्राक्षवृक्ष)

अ. तारकापुत्रोंद्वारा अधर्माचरण होने पर शंकरजी के विषाद से उनके नेत्रों से गिरे अश्रुओं का ‘रुद्राक्षवृक्ष’ बनना तथा शिवजीद्वारा उनका नाश होना

तारकापुत्र तडिन्माली, तारकाक्ष एवं कमलाक्ष ने धर्माचरण एवं शिवभक्ति से देवत्व प्राप्त किया । कुछ कालावधि उपरांत वे अधर्माचरण करने लगे । यह देखकर शंकरजी विषादग्रस्त हुए । उनके नेत्र डबडबा गए । उनके नेत्रों से चार अश्रुबिंदु पृथ्वीपर गिरे । उन अश्रुओं से बने वृक्षों को ‘रुद्राक्षवृक्ष’ कहते हैं । इन चार वृक्षों से लाल, काले, पीले एवं श्वेत रुद्राक्षों की निर्मिति हुई । तदुपरांत शिवजीने तारकापुत्रों का नाश किया ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

आ. रुद्रवृक्ष की सर्वसामान्य जानकारी

यह समुद्री सतह से तीन सहस्र मीटर की ऊंचाई पर अथवा समुद्र में तीन सहस्र मीटर की गहराई में पाया जाता है । रुद्राक्ष के वृक्ष पहाडी क्षेत्र में पनपते हैं, समतल स्थानों पर नहीं । इस वृक्ष के पत्ते इमली अथवा गुंज के पत्तोंसमान; परंतु उनसे कुछ अधिक लंबे होते हैं । इस वृक्ष पर वर्ष में एक से दो सहश्र फल लगते हैं । हिमालय में रहनेवाले यति केवल रुद्राक्षफल खाते हैं । इसे अमृतफल भी कहते हैं । इसे खाने से प्यास नहीं लगती है ।

३. रुद्राक्ष (रुद्रवृक्ष का फल)

रुद्रवृक्ष के फल वृक्ष पर पकने के पश्चात सर्दियों के मौसम में नीचे गिरते हैं । फिर अंदर के बीज सूख जाते हैं । एक फल में पंद्रह-सोलह बीज (अर्थात रुद्राक्ष) होते हैं । फल में बीज जितने अधिक होंगे, उनका आकार उतना ही छोटा एवं मूल्य भी अल्प होता है । इन छोटे रुद्राक्षों का एकाकी प्रयोग न कर, कई छोटे रुद्राक्षों की एक माला बनाते हैं और उसी के साथ एक बडे रुद्राक्ष  को भी पिरो देते हैं । रुद्राक्ष में मूलतः आर-पार छिद्र होता है, करना नहीं पडता । इस छिद्र को ‘वाहिका’ कहते हैं । रुद्राक्ष का रंग आकाश की लालिमा समान एवं आकार मछली समान चपटा होता है । उस पर पीले रंग की धारियां होती हैं तथा उसके एक सिरे का आकार खुले हुए मुख समान होता है । ‘१० मुखों की अपेक्षा अधिक मुखवाले रुद्राक्षों को ‘महारुद्र’ कहते हैं ।’

– योगतज्ञ प.पू. दादाजी वैशंपायन डज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ५, कलियुग वर्ष ५१११ (२९.५.२००९)

rudraksha

४. विशेषताएं

१. रुद्राक्ष वातावरण से तेज लेकर उसका रूपांतर तेल में करता है । रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे बैठकर ‘ॐ नमः शिवाय ।’ जप करनेपर, रुद्राक्ष से चौबीस घंटे सुगंधित तेल निकलता है । रुद्राक्ष के छिद्र में फूंक मारने से वह तेल बाहर आता है । रुद्राक्ष का तेल सुगंधित होता है । उसके वृक्ष से भी तेल निकाला जाता है । रुद्राक्ष सिद्ध करने पर उसमें से तेल के स्थान पर वायु बाहर निकलती है ।

५. रुद्राक्ष का कार्य

अ. रुद्राक्ष में विश्व में व्याप्त देवताओं की प्रकाश-तरंगों को मानव शरीर की नादतरंगों में एवं नाद-तरंगों को प्रकाश-तरंगों में परिवर्तित करने की क्षमता होती है । इससे मानव के लिए देवताओं की तरंगों को ग्रहण करना संभव हो जाता है तथा मानव के विचारों का देवताओं की भाषा में रूपांतर होता है ।

आ. रुद्राक्ष सम (सत्त्व) तरंगें ग्रहण करता है एवं अपने उभारों से सम तरंगों को प्रक्षेपित करता है । असली रुद्राक्ष को उंगलियों  में पकडने पर स्पंदन का भान होता है । उस समय रुद्राक्ष से प्रक्षेपित सम तरंगों को शरीर ग्रहण कर रहा होता है । अंगूठे एवं अनामिका से रुद्राक्ष पकडने पर स्पंदन का अनुभव शरीर के किसी भी भाग में होता है । उसके उपरांत रुद्राक्ष को रख देने पर भी आधे घंटेतक उसका प्रभाव रहता है अर्थात इस समय कोई भी वस्तु पकडी हुई हो, फिर भी रुद्राक्ष के स्पंदन का भान होता है; परंतु हाथ धो लेने पर स्पंदन का भान लुप्त हो जाता है ।

इ. किसी भी देवता के जाप हेतु रुद्राक्षमाला का प्रयोग किया जा सकता है ।

६. रुद्राक्ष के लाभ

अ. रुद्राक्षमाला को गले में अथवा अन्यत्र धारण कर किया गया जप, बिना रुद्राक्ष माला धारण किए गए जप से सहस्र गुना लाभदायक होता है । इसी प्रकार अन्य किसी माला से जप करने की तुलना में रुद्राक्ष की माला से जप करनेपर दस सहस्र गुना अधिक लाभ होता है । इसीलिए शैव मानते हैं कि रुद्राक्षमाला लिए बिना अथवा धारण किए बिना यदि मंत्रजप किया जाए, तो शीघ्र (पूर्ण) मंत्रसिद्धि प्राप्त नहीं होती । रुद्राक्षमाला का अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने हेतु उसे गले के निकट इस प्रकार बांधे कि उसका गले से अधिकाधिक स्पर्श हो ।

आ. कुंडलिनी जागृत होने हेतु एवं प्राणायाम अंतर्गत ‘केवल कुंभक’ साध्य करने में रुद्राक्ष से सहायता मिलती है ।

इ. ‘रुद्राक्ष में विद्युत चुंबकीय (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक) गुणधर्म पाए जाते हैं ।’
गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

७. नकली रुद्राक्ष

अ. भद्राक्ष

इसका वृक्ष रुद्राक्ष समान होता है; परंतु उसके फल एवं बीज गोलाकार होते हैं । बीजों के अर्थात भद्राक्षों के मुख नहीं होते, अर्थात इनके ऊध्र्व-अधर भाग नहीं होते । भद्राक्ष का प्रयोग विषवर्धन करता है अर्थात विषम तरंगों को बढाता है । सामान्यतः भद्राक्ष ही रुद्राक्ष के नाम से बेचे जाते थे । इसके फल पक्षी नहीं खाते और यदि खा लें तो अपने प्राण गंवा देते हैं ।

आ. विकृताक्ष

आजकल यही रुद्राक्ष के नाम से बेचा जाता है । यह एक प्रकार के जंगली बेरों का बीज है । तांत्रिक यज्ञ, जादू-टोना, उच्चाटन इत्यादि में विकृताक्ष का प्रयोग किया जाता है । नेपाल में गुरंग नामक जाति के घुमक्कड लोगों ने इसका प्रयोग करना आरंभ किया । इन पर उष्ण (गरम) सुई से आर-पार छिद्र करते हैं तथा ॐ, स्वस्तिक, शंख, चक्र, इत्यादि आकृतियां भी तराशते हैं । रंग भरने हेतु इसे कत्थे के पानी में रखते हैं; इसीलिए सादे पानी में रखते ही इसका रंग धुल जाता है ।

इ. कृत्रिम रुद्राक्ष

यह लाख, लकडी, प्लास्टिक इत्यादि से बनते हैं ।

ई. असली एवं नकली रुद्राक्ष में अंतर

असली रुद्राक्ष नकली रुद्राक्ष
अ. आकार मछली समान चपटा गोल
आ. रंग (आकाशकी लालिमा समान) पक्का पानी में धुल जाता है
इ. पानी में डालनेपर सीधे नीचे जाता है तैरता है अथवा हिलते-डुलते नीचे जाता है
ई. आर-पार छिद्र होता है सुईसे करना पडता है
उ. तांबे के बर्तन में अथवा पानी में डालनेपर गोल-गोल घूमना होता है नहीं
ऊ. कुछ समय बाद कीट लगना नहीं लगते लगते हैं
ए. मूल्य (वर्ष २००८ में) रु. ४,००० से ४०,००० रु. २० से २००
ऐ. कौनसी तरंगें ग्रहण करता है ? सम (सत्त्व)
ओ. स्पंदनोंका अनुभव होता है नहीं होता

उ. नकली रुद्राक्ष एवं संत

संत यद्यपि बाह्यतः ‘नकली’ रुद्राक्ष दें, तब भी उन के चैतन्य से वह अंदर से ‘असली’ रुद्राक्ष में परिवर्तित हो जाता है ।

८. अच्छा रुद्राक्ष

अ. विशेषताएं

१. भारी एवं तेजपूर्ण

२. स्पष्ट मुखों से युक्त

३. ॐ, शिवलिंग, स्वस्तिक इत्यादि शुभचिह्नयुक्त

४. बडे से बडा रुद्राक्ष एवं छोटे से छोटा शालिग्राम उत्तम होता है । (मेरुतंत्र)

५. जिस वृक्ष की गोलाई दोनों भुजाओं के आलिंगन में पूरी नहीं समाती, ऐसे वृक्ष का अर्थात पुराने वृक्ष का रुद्राक्ष

६. समुद्री सतह से अधिक ऊंचाई पर स्थित वृक्ष का रुद्राक्ष एवं एक ही वृक्ष की ऊपरी शाखाओं के रुद्राक्ष : ऊंचाई पर स्थित रुद्राक्षों को ऊपर से सत्त्वगुण अधिक मात्रा में मिलता है, इसलिए वे अधिक प्रभावशाली होते हैं ।

७. शुभ्र रंग का सर्वोत्तम होता है । अन्य रुद्राक्ष लाल, पीले एवं काले रंग के क्रमश: कनिष्ठ श्रेणी के होते हैं । प्रायः शुभ्र एवं पीले रुद्राक्ष नहीं मिलते; जबकि लाल एवं काले रुद्राक्ष सर्वत्र मिलते हैं ।

९. प्रयोगसंबंधी व्यावहारिक सूचनाएं

अ. रुद्राक्ष को सिद्ध करना

‘पहले सिद्धमंत्र का उच्चारण करते हुए रुद्राक्ष पर पांच से इकसठ बार पानी छिडककर, उसे किसी प्रतिष्ठित लिंग का (जिसकी
प्राणप्रतिष्ठा की गई हो) स्पर्श करवाना चाहिए । ज्योतिर्लिंग के स्पर्श बिना रुद्राक्ष में विशेष शक्ति का संचार नहीं हो सकता; परंतु किसी विशेष अडचन के कारण ज्योतिर्लिंग का स्पर्श करवाना संभव न हो, तो प्रतिष्ठित लिंग (पिंडी अथवा अरघा)का स्पर्श करवाएं । फिर शुभ मुहूर्त पर (उदा. महाशिवरात्रि, अमृतसिद्धि इत्यादि) जिस मुख का रुद्राक्ष हो, उस मुख के विशिष्ट मंत्र का २१, ४२ अथवा १०२ बार उच्चारण कर, मृत्युंजय मंत्र से अथवा अघोर मंत्र से एक रुद्राभिषेक करें । इस क्रिया के उपरांत उस
रुद्राक्ष में प्रत्यक्ष शिवतत्त्व अथवा मुख के अनुसार देवता (शक्ति) प्रतिष्ठापित होते हैं । (सूत्र ‘१ अ २ ओ ७’ देखें ।) इस रुद्राक्ष को ‘सिद्ध रुद्राक्ष’ कहते हैं ।

आ. रुद्राक्षसिद्धि को बनाए रखना

सिद्ध रुद्राक्ष धारण करने के पश्चात उसकी सिद्धि बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है । इस हेतु निम्न नियमों का पालन अवश्य करें ।

१. भस्मधारण : सूत्र ‘१ अ १. भस्म लगाना’ देखें ।

२. शिवलिंगपूजन : शिवलिंगपूजन अथवा रुद्राक्षपूजन महत्त्वपूर्ण है ।

३. शिवस्मरण : दिन में दो बार सवेरे जागने के पश्चात तथा रात को सोने से पूर्व शिवस्मरण करना चाहिए ।

४. शुचित्व : सिद्ध किए गए रुद्राक्षों को अन्य किसी का स्पर्श न होने दें । भूल से यदि हो जाए, तो गोमूत्र अथवा तीर्थजल से उस रुद्राक्ष की शुद्धि कर लेनी चाहिए ।

५. निषिद्ध पदार्थ : रुद्राक्ष धारण करनेवाला मद्य, मांस, प्याज, लहसुन इत्यादि निषिद्ध पदार्थों का सेवन न करे ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

इ. रुद्राक्षधारण विधि

सिद्ध रुद्राक्ष भी शुभ मुहूर्त पर ही धारण करने का विधान है । सिद्ध किए गए रुद्राक्ष को धारण करने से पूर्व, भस्म लगाकर शिवमंत्र का उच्चारण करते हुए, मंत्रसिद्ध व्यक्ति संकल्प कर साधक के शरीर पर रुद्राक्ष बांधता है । तदुपरांत मंत्रसिद्ध व्यक्ति साधक को शिवमंत्र का जप करने के लिए कहता है । रुद्राक्ष को सोने, चांदी, तांबे अथवा ऊन के धागे में पिरोकर धारण करें ।

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संदर्भ :  भगवान शिव (भाग २) शिवजी की उपासना का शास्त्रोक्त आधार

2 Comments

  1. sanklan

    I don’t think so that’s much of a help. Better put up a video displaying we have tested and found which one is real. I have Rudraksha Tree at my home and it is too light in weight (as cotton).

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