१. देवालय (मंदिर) का महत्त्व
हममें से अधिकतर लोग समय-समय पर मंदिर जाते हैं । हिन्दू धर्म हमें देवालय में देवता के दर्शन करने का शास्त्र बताता है । इस लेख में हम देखेंगे कि देवालय में देवतादर्शन से हमें क्या-क्या लाभ होते हैं तथा देवालय का महत्त्व क्या है ।
अ. देवालय से दसोंदिशाओं का चैतन्यमय होना
‘देवालय’, प्रत्यक्ष ईश्वरीय ऊर्जा के आकर्षण, प्रक्षेपण एवं संचार के केंद्र होते हैं । इसलिए, ईश्वरीय ऊर्जा निरंतर देवालय की ओर आकर्षित होती रहती है तथा उसका प्रक्षेपण सर्व दिशाओं में होता रहता है । इससे, सगुण रचनाक्षेत्र में संचार के माध्यम से वायुमंडल एवं जीव की शुद्धि होती है ।’
-
अधोदिशा : देवालय की नींव डालते समय किए जानेवाले शिलान्यास के फलस्वरूप देवालय की अधोदिशा में वातावरण चैतन्यतरंगों से युक्त रहता है।
-
अष्टदिशा : देवालय में देवता की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा होने पर आठों दिशाएं चैतन्यमय बनती हैं ।
-
ऊर्ध्वदिशा : देवालय के कलश से फुहारे समान प्रक्षेपित सात्त्विकता से उसके समीप के क्षेत्र की ऊर्ध्वदिशा का वायुमंडल शुद्ध होता है । साथ ही, दस दिशाओं से मंदिर-परिसर में प्रवेश करनेवाली अनिष्ट शक्तियों से गांव की रक्षा होने में सहायता होती है ।’
आ. हिन्दुओं के देवालयों के कारण ग्रहणकाल में पृथ्वी की ओर आनेवाली काली शक्तिसे भारित रज-तमात्मक तरंगें पृथ्वीतलसे ५ कि.मी. ऊंचाई पर ही नष्ट होना तथा कुछ पंथोंके प्रार्थनास्थलों द्वारा ग्रहणकाल में रज-तमात्मक तरंगें ग्रहण किया जाना
ग्रहणकाल में पृथ्वीपर काली शक्ति से भारित तरंगें आती हैं । हिन्दुओं के देवालयों में प्रतिष्ठित देवताओं की ओर से प्रक्षेपित देवता तत्त्व, चैतन्य, सात्त्विकता एवं मारक शक्ति के कारण ये रज-तमात्मक तरंगें पृथ्वीतल से ५ कि.मी. ऊंचाई पर ही नष्ट होती हैं एवं पृथ्वी पर उनका संभावित अनिष्ट परिणाम घट जाता है । इसके विपरीत, कुछ पंथों के प्रार्थनास्थलों में काली शक्तिका संचय रहता है । अतः, उनसे निरंतर रज-तमात्मक तरंगों का प्रक्षेपण होता रहता है । ग्रहणकाल में काली शक्तिसे भारित रज-तमात्मक तरंगें इन प्रार्थनास्थलों द्वारा तुरंत ग्रहण कर ली जाती हैं । इससे इन प्रार्थनास्थलों में संचित काली शक्तिका स्तर ५ से १० प्रतिशत बढ जाता है ।’
२. देवालय में देवतादर्शन का महत्त्व
अ. ‘देवालय में देवतादर्शन’, अर्थात सगुण से निर्गुण की ओर जाने का प्रयास
-
देवालयमें देवतादर्शन करना, अर्थात जीवद्वारा सगुण कृत्योंका आलंबन कर, देवताके सूक्ष्म-लोकमें जाकर
निर्गुण-सगुण माध्यमका उपयोग कर, देवताकी उपासना कर, कृत्यके स्तरपर साधना कर, अपनी आध्यात्मिक उन्नति करना । -
देवालयमें देवतादर्शन करना, अर्थात प्रत्यक्ष ईश्वरीय ऊर्जाकी सगुण उपासनाके माध्यमसे ईश्वरका साक्षात्कार कर, स्वानुबोध द्वारा देवतासे कृपाशीर्वाद प्राप्त कर, सगुण रचनाके माध्यमसे ईश्वरीय कृपा-ऊर्जाकी उपासना प्रारंभ कर, निर्गुणतक जानेके लिए क्रमिक प्रयास ।
आ. देवालयमें देवतादर्शन प्रक्रियासे व्यष्टि (व्यष्टि साधना वह साधना है, जिसका लाभ केवल संबंधित साधकको मिलता है) एवं समष्टि साधना (अध्यात्मप्रसारके माध्यमसे समाजगत साधना)
देवालय में दर्शन करनेकी प्रक्रिया, अर्थात ‘व्यष्टि साधनासे समष्टि साधनामें प्रवेश’ एवं ‘समष्टि कार्यसे व्यष्टि उद्देश्य साध्य करानेवाला स्थूल कार्य ।’ इसलिए, देवालय में देवतादर्शन से जीवकी व्यष्टि एवं समष्टि, दोनों प्रकार की साधना होती है ।
संदर्भ – सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘देवालयमें दर्शन कैसे करें ? (भाग १)’