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वटसावित्री व्रत एवं व्रतका उद्देश्य

१. ‘वटसावित्री’व्रतका उद्देश्य

        यह व्रत ‘स्कंद’ और ‘भविष्योत्तर’ पुराणाेंके अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमापर और ‘निर्णयामृत’ इत्यादि ग्रंथोंके अनुसार अमावस्यापर किया जाता है । उत्तरभारतमें प्रायः अमावस्याको यह व्रत किया जाता है । अतः महाराष्ट्रमें इसे ‘वटपूर्णिमा’ एवं उत्तरभारतमें इसे ‘वटसावित्री’के नामसे जाना जाता है ।


        भरतखंडकी प्रसिद्ध पतिव्रताओंमें सावित्रीको आदर्श माना गया है । वह एक राजकन्या थीं । उनका आध्यात्मिक स्तर ऊंचा था । अपने अल्पायु पतिका मृत्युकाल समीप आनेपर उन्होंने मृत्युके देवता यमराजके साथ तीन दिन तक शास्त्रचर्चा की । इस अवधिमें उनका व्रत था । इस समय वह वटवृक्षके नीचे बैठी थीं । इस चर्चाके द्वारा  अपने ज्ञानसे उन्होंने यमराजका मन जीता । उनके ज्ञानपर प्रसन्न होकर यमराजने उनके पतिके प्राण लौटा दिए ।

        सावित्रीको अखंड सौभाग्यका प्रतीक माना जाता है । सावित्री समान अपने पतिकी आयुवृद्धिकी इच्छा करनेवाली सुहागिनोंद्वारा यह व्रत किया जाता है । यह एक काम्यव्रत है । किसी कामना अथवा इच्छापूर्तिके लिए किया जानेवाला व्रत काम्यव्रत कहलाता है ।

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२. वटसावित्रीका महत्त्व

        वटसावित्रीके दिन वटवृक्षरूपी शिवका स्मरण कर, अपने पतिकी लंबी आयुके लिए स्त्रियां प्रार्थना करती हैं । इससे उन्हें ब्रह्मांडमें विद्यमान शिवतत्त्वका उचित लाभ मिलता है । ईश्वरकी भावपूर्ण प्रार्थना कर, कोई भी कर्म करनेसे ईश्वरीय शक्ति कार्यरत होती है ।

३. वटसावित्री व्रतसे संबधित देवता

        विशिष्ट व्रतके विशिष्ट देवता होते हैं । सावित्रीसह ब्रह्मदेव, ये वटसावित्री व्रतके प्रमुख देवता हैं  तथा नारद एवं यमराज उपांग देवता हैं । उपांगका अर्थ है – ‘गौण’। इन सभी देवताओंके साथ इस व्रतमें ‘वटवृक्ष’का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है ।

४. वटसावित्री व्रतकी दृष्टिसे वटवृक्षका महत्त्व

        मृत्युके देवता यमराजद्वारा सत्यवानके प्राण हरण किए जानेपर सावित्रीने यमराजसे तीन दिन शास्त्रचर्चा की । प्रसन्न होकर यमराजने सत्यवानको पुनः जीवित किया । यह शास्त्रचर्चा वटवृक्षके नीचे हुई थी । इस कारण सावित्रीके साथ वटवृक्षका संबंध जुडा हुआ है ।

वटवृक्षकी कुछ विशेषताएं

अ. ‘प्रलय हो जाए, फिर भी वटवृक्ष रहता ही है । प्रत्येक युगान्तके समय प्रलय होनेपर सबकुछ नष्ट हो जाता है; परंतु वटवृक्ष अपने स्थानपर वैसेही रह जाता है । वह युगान्तका साथीदार है ।

आ. बाल मुकुंदने प्रलयकालमें वटपत्रपर शयन किया ।

इ. प्रयागके अक्षय्य वटके नीचे श्रीराम, लक्ष्मणजी एवं सीता माताने विश्राम किया था ।

ई. ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नृसिंह, नील एवं माधवका निवासस्थान वटवृक्ष है ।

उ. बरगद, पीपल, औदुंबर तथा शमी पवित्र और यज्ञवृक्ष बताए गए हैं । इन सर्व वृक्षोंमें वटवृक्षकी आयु अधिक होती है और उसकी जटाओंका विस्तार भी बहुत होता है ।

ऊ. बरगदके क्षीर (वनस्पति दूध) में कपास पीसकर, उसका अंजन आंखोंमें लगानेसे मोतियाबिंद ठीक हो जाता है ।’

        वटसावित्री व्रतकी दृष्टिसे वटवृक्षका महत्त्व तथा उसकी विशेषताआेंको तो हमने समझ लिया; परंतु वटवृक्षका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व भी है ।

५. वटवृक्षका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

        वटवृक्ष व्यक्तिकी आध्यात्मिक अवस्थाका द्योतक अर्थात indicator है । व्यक्तिमें आध्यात्मिक शक्ति; जिसे कुंडलिनीके नामसे जानते हैं, वह मूलाधारचक्रमें बीजस्वरूप विद्यमान होती है । यह शक्ति जागृत होनेपर सात स्थानोंमें अर्थात कुंडलिनीके सात कमलस्वरूपी चक्रोंमें वास करती है । आध्यात्मिक साधना करनेसे व्यक्ति साधक, सिद्ध आदि अवस्थाओंसे आगे जाता है एवं परिपूर्ण अवस्थाको प्राप्त करता है । तब सहस्रदल; अर्थात सहस्रो पंखुडियोंवाले कमलमें उसकी कुंडलिनीशक्तिका शिवमें लय होता है । उस समय व्यक्तिको सर्वोच्च एवं अक्षय अवस्था प्राप्त होती है । हजारों पंखुडियां उसकी ‘सर्वज्ञ, सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान’ अवस्थाके दर्शक हैं । इसी अवस्थाको ‘वटवृक्ष अवस्था’ कहते हैं । इस अवस्थाको प्राप्त करनेके लिए ‘अक्कलकोट’ जाना पडता है ।

‘अक्कलकोट’ अवस्थाके बारेमें

        वटवृक्ष अवस्था प्राप्त होनेके लिए दो बातें आवश्यक हैं – साधकद्वारा निरंतर प्रयत्न एवं गुरुकृपा । बुद्धिका अंतिम निश्चय एवं गुरुकृपा होनेपर, कुंडलिनी इस अंतिम चरणपर सहस्रारचक्रमें प्रविष्ट होती है । इसे ‘अक्कलकोट’ कहते हैं । इसके उपरांत अंतर्गुरु अर्थात शिवतत्त्व भीतरसे ही साधकका मार्गदर्शन करता है एवं उसे अंतिम अवस्था प्राप्त करवाता है ।

६. वटवृक्षका सूक्ष्म-स्वरूप

        वटवृक्षमें शिवतत्त्वको आकृष्ट कर उसे संजोए रखने एवं आवश्यकतानुसार वातावरणमें प्रक्षेपित करनेकी क्षमता होती है । इसीलिए उसे शिवरूप मानते हैं । वटसावित्रीके दिन वटवृक्षमें विद्यमान शिवतत्त्व अधिक मात्रामें कार्यरत रहता है । यही कारण है कि, वटसावित्रीके दिन वटवृक्षके पूजनको अग्रगण्य स्थान दिया गया है । यह विषय सुस्पष्ट करनेके लिए अब हम देखते हैं, एक सूक्ष्म-चित्र…

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अ. हम देख रहे हैं शिवतत्त्वसे संचारित वटवृक्ष ।

आ. वटवृक्षके तनेमें तरंगोंके रूपमें शिवतत्त्व घूमता रहता है ।

इ. वटवृक्षके केंद्रबिंदुसे चैतन्यकी तरंगें प्रक्षेपित होती हैं ।

ई. साथही केंद्रबिंदुसे चैतन्यके वलय भी प्रक्षेपित होते हैं ।

७. वटसावित्री व्रतविधि

        यह व्रत सुहागिनद्वारा सौभाग्यकी वृद्धिके लिए किया जाता है । धर्मशास्त्रके अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशीसे ज्येष्ठ पूर्णिमातक का यह त्रिरात्रि व्रत है । इस व्रतमें तीन दिन उपवास रखते हैं । तीन दिन उपवास रखना संभव न हो, तो केवल पूर्णिमाके दिन ही उपवास रखते हैं ।

        निर्णयामृत इत्यादि ग्रंथोंके अनुसार ज्येष्ठ कृ. १२ से तीन दिनका वट-सावित्री व्रत प्रारंभ होता है एवं ज्येष्ठ अमावास्या को समाप्त होता है । इस दिन वटसावित्री व्रतके देवताआेंको प्रार्थना करते हैं की, ‘मुझे एवं मेरे पतिको आरोग्यसंपन्न, दीर्घायुष्य, धन-धान्य और बच्चे, पोतेसे प्रपंच विस्तारित तथा संपन्न होने दें ।’

इस व्रतविधिके निम्नलिखित प्रमुख स्तर हैं :

अ. तीन दिन उपवास रखना

आ. वटवृक्षका पूजन करना

इ. वटपूजनमें वटवृक्षके तनेपर सूत्रवेष्टन करना अर्थात धागा लपेटना

ई. चौथे दिन व्रतका पारण कर व्रतसमाप्ति करना

८. वटसावित्रीव्रतमें तीन दिन उपवास करनेका कारण

        उपवास व्रतका ही एक अंग है । व्रत, शास्त्रोंद्वारा बताया गया एक नियम है, तथापि उपवास उसका आचरण है । उपवासके दिन दूध एवं फल जैसा सात्त्विक आहार लेनेसे व्यक्तिके प्राणमयकोषमें सत्त्वकणोंकी वृद्धि होती है । इस कालमें व्यक्तिके पंचप्राण भी जागृत होकर कार्यरत रहते हैं । परिणामस्वरूप व्यक्तिके अंतर्मनमें विशिष्ट कर्मविधिसंबंधी विचारधारा सक्रिय रहनेमें सहायता होती है । मायाके विचारोंका परिमार्जन होता है । अंतः स्रावी ग्रंथियों अर्थात endocrine glands का कार्य बढनेसे व्यक्तिकी सूर्यनाडी कार्यरत होती है । इसी कारण वटसावित्री व्रतमें तीन दिन उपवास करनेसे वटवृक्षके माध्यमसे प्रक्षेपित शिवतत्त्व सरलतासे ग्रहण करना संभव होता है एवं चैतन्यके माध्यमसे व्रतका पूर्णरूपसे लाभ प्राप्त करना सरल हो जाता है ।

९. वटवृक्ष पूजन

        वटवृक्षकी जडमें शिवतत्त्वकी चैतन्यमय तरंगोंका अधिष्ठान होता है । वटवृक्षकी जडसे ये तरंगें निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं । इन तरंगोंके स्पर्शसे ईश्वरप्राप्तिका उद्देश्य साध्य करनेका भाव मनमें जागृत होता है । वटसावित्री के दिन महिलएं नए वस्त्र धारण करती हैं । हाथ में पूजा की थाली लेकर अनेक महिलाएं वटवृक्ष की पूजा करती हैं । वटवृक्ष का पूजन शोडषोपचार पद्धतिसे किया जाता है । इस पूजा में महत्वपूर्ण उपचार होता है ‘सूत्र वेष्टन’ । वटवृक्ष पूजनका काल सूर्योदयसे माध्याह्नतक ही होता है ।

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१०. वटवृक्षके तनेपर ‘सूत्रवेष्टन’ करनेका अर्थात धागा लपेटने का महत्त्व

        वटसावित्रीके दिन शिवतत्त्वकी तरंगें क्रियाशक्तिसे संबंधित होती हैं । इस कारण वटवृक्षका पूजन करते समय किए गए मंत्रपाठसे स्त्रियोंमें विद्यमान शक्तितत्त्व जागृत होता  है । वटवृक्षका पूजन करते समय स्त्रियां उसके तनेपर सूत्रवेष्टन करती हैं, अर्थात तनेपर सूती धागा लपेटती हैं । इस धागेके तीन घेरे बनाए जाते हैं । सूत्रवेष्टनके इन तीन घेरोंके कारण इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान, इन तीन शक्तियोंके बलपर स्त्रीकी मनोकामना पूर्ण होती है । सूत्रवेष्टनके समय स्त्रियोंके भावानुसार तनेमें विद्यमान शिवतत्त्वसे संबंधित तरंगें कार्यरत रहती हैं । ये तरंगें सूती धागेमें संचारित होती हैं । सूती धागा ‘पृथ्वी’ एवं ‘आप’ इन दो तत्त्वोंसे संबंधित है । धागेमें संचारित तरंगें दिनभर वायुमंडलमें प्रक्षेपित होती हैं । कालांतरसे ये तरंगें भूमिमें घनीभूत होती हैं तथा भूमिद्वारा दूरतक संचारित की जाती हैं । इससे भूमि भी चैतन्यमय बनती है ।

११. वटसावित्रीके दिन वटवृक्षकी टहनी अथवा कागजपर

वटवृक्षका चित्र बनाकर पूजा करनेकी अपेक्षा वटवृक्षकी ही पूजा क्यों करें ?

वटवृक्षके टहनीकी पूजा करना एवं प्रत्यक्ष वृक्षका पूजन करना

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        वटवृक्षके तनेमें प्रचुर अर्थात बडी मात्रामें शिवतत्त्व विद्यमान होता है । इस कारण प्रत्यक्ष वृक्षका भावपूर्ण पूजन करनेसे ३० प्रतिशत लाभ मिलता है । केवल उसकी टहनीकी पूजा करनेसे मात्र १-२  प्रतिशत लाभ मिलता है । टहनीको वृक्षसे विलग करनेसे उसमें चैतन्यकी मात्रा अल्प हो जाती है । इसलिए उसमें चैतन्य ग्रहण, प्रक्षेपण एवं वहन करनेकी क्षमता न के बराबर होती है । इसी कारण उसका पूजन करनेसे भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता ।

        इसी प्रकार कागजपर बनाए वटवृक्षके चित्रद्वारा ईश्वरीय चैतन्यकी फलप्राप्ति होनेके लिए पूजकका आध्यात्मिक स्तर उच्च अर्थात ५० प्रतिशतसे अधिक होना आवश्यक होता है, तभी उसके अव्यक्त भावके कारण चित्रको भी देवत्व प्राप्त होता है । सामान्य जनोंको इस प्रकार चित्रकी पूजा करनेसे १-२ प्रतिशत ही लाभ मिलता है । यही कारण है कि, वटवृक्षकी टहनी अथवा कागजपर बनाए उसके चित्रका पूजन करनेकी अपेक्षा प्रत्यक्ष वटवृक्षकी पूजा करना अधिक लाभदायक है ।

        पारण किए बिना किसी भी व्रतकी पूर्ति नहीं होती । व्रतका पूरा फल नही मिलता ।

१२. वटसावित्री व्रतकी पारणविधि

        वटसावित्री व्रतके चौथे दिन पुरोहितद्वारा हवन एवं यथाशक्ति २४, १६ अथवा ८ दंपतियोंका पूजन करते हैं । यथासंभव गोदान, शय्यादान एवं प्रतिमादान करते हैं तथा ब्राह्मणभोजन करवाकर व्रतका समापन करते हैं ।

१३. वटसावित्री व्रतासंबंधी दृष्टिकोण

        पतिके सुख-दुःखमें सहभागी होना, उसे संकटसे बचानेके लिए प्रत्यक्ष ‘काल’को भी चुनौती देनेकी सिद्धता रखना, उसका साथ न छोडना एवं दोनोंका जीवन सफल बनाना, ये स्त्रीके महत्त्वपूर्ण गुण हैं । सावित्रीमें ये सभी गुण थे । सावित्री अत्यंत तेजस्वी तथा दृढनिश्चयी थीं । आत्मविश्वास एवं उचित निर्णयक्षमता भी उनमें थी । राजकन्या होते हुए भी सावित्रीने दरिद्र एवं अल्पायु सत्यवानको पतिके रूपमें अपनाया था; तथा उनकी मृत्यु होनेपर यमराजसे शास्त्रचर्चा कर उन्होंने अपने पतिके लिए जीवनदान प्राप्त किया था । जीवनमें यशस्वी होनेके लिए सावित्रीके समान सभी सद्गुणोंको आत्मसात करना ही वास्तविक अर्थोंमें वटसावित्री व्रतका पालन करना है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत

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