१. दैहिक एवं भौतिक विशेषताएं
अ. शिवजी का धूसर रंग
मूल श्वेत रंग के स्पंदन साधक सहन नहीं कर पाएगा; इसलिए शिवजी के शरीर पर धूसर रंग का आवरण होता है ।
आ. गंगा
- व्युत्पत्ति एवं अर्थ
- १. ‘गमयति भगवत्पदमिति गङ्गा ।’ अर्थात ‘जो (स्नानकर्ता जीव को) भगवत्पदतक पहुंचाती है, वह गंगा है ।’
- २. ‘गम्यते प्राप्यते मोक्षार्थिभिरिति गङ्गा । – शब्दकल्पद्रुम’ अर्थात जिसके पास मोक्षार्थी अर्थात मुमुक्षु जाते हैं, वह गंगा है ।
- पृथ्वी पर गंगा
- गंगा नदी का उद्गम हिमालय में गंगोत्री से है । वहां से वह अनेक उपनदियों के साथ बंगाल की खाडी में मिल जाती है । इसकी कुल लंबाई २५१० कि.मी. है । इस आध्यात्मिक गंगा का अंशात्मक तत्त्व है पृथ्वी पर गंगा नदी, जो प्रदूषित होने पर भी अपनी पवित्रता सर्वदा कायम रखती है । इसीलिए विश्व के किसी भी जल की तुलना में गंगाजल अधिक पवित्र है; यह सूक्ष्म के जानकार ही नहीं, अपितु वैज्ञानिक भी मानते हैं । (गंगासंबंधी विस्तृत जानकारी सनातन के ग्रंथ ‘गंगामाहात्म्य’ के अंतर्गत दी गई है ।)
शिवजी ने अपने मस्तक पर कैसे धारण किया मां गंगा को..
गंगा को शास्त्रों में देव नदी कहा गया है। इस नदी को पृथ्वी पर लाने का काम महाराज भागीरथ ने किया था। महाराज भागीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगवान विष्णु के चरण से निकलने वाली गंगा को अपने सिर पर धारण करके पृथ्वी पर उतारने का वरदान दिया।
भागीरथ एक प्रतापी राजा थे। उन्होंने अपने पूर्वजों को जीवन-मरण के दोष से मुक्त करने के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने की ठानी। उन्होंने कठोर तपस्या आरम्भ की। गंगा उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं तथा स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरेंगीं तो पृथ्वी उनका वेग सहन नहीं कर पाएगी और रसातल में चली जाएगी।
गंगा को यह अभिमान था कि कोई उसका वेग सहन नहीं कर सकता। तब उन्होंने भगवान भोलेनाथ की उपासना शुरू कर दी। संसार के दुखों को हरने वाले शिव शम्भू प्रसन्न हुए और भागीरथ से वर मांगने को कहा। भागीरथ ने अपना सब मनोरथ उनसे कह दिया।
गंगा जैसे ही स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने लगीं गंगा का गर्व दूर करने के लिए शिव ने उन्हें जटाओं में कैद कर लिया। वह छटपटाने लगी और शिव से माफी मांगी। तब शिव ने उसे जटा से एक छोटे से पोखर में छोड दिया, जहां से गंगा सात धाराओं में प्रवाहित हुईं।
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इ. चंद्र
शिवजी के मस्तक पर चंद्र है । ‘चंद्रमा’ ममता, क्षमाशीलता एवं वात्सल्य (आह्लाद) के तीन गुणों की संयुक्त अवस्था है ।
ई. तीसरा नेत्र
शिव का बायां नेत्र है प्रथम, दाहिना है द्वितीय एवं भ्रूमध्य के कुछ ऊपर सूक्ष्मरूप में स्थित ऊध्र्व नेत्र है तृतीय । ऊध्र्व नेत्र दाहिने एवं बाएं नेत्रों की संयुक्त शक्ति का प्रतीक है । वह अतींद्रिय शक्ति का महापीठ है । इसी को ज्योतिर्मठ, व्यासपीठ इत्यादि नाम से भी जाना जाता है ।
शिव का तीसरा नेत्र तेजतत्त्व का प्रतीक है । इसलिए शिव के चित्र में भी तीसरे नेत्र का आकार ज्योति के समान है ।
शिवजी ने तीसरे नेत्र से कामदहन किया है । (खरे ज्ञानी पर काम के प्रहार थोथरे प्रमाणित होते हैं । इतना ही नहीं, अपितु खरा ज्ञानी अपने ज्ञान के तेज से समस्त कामनाओं को ही भस्म कर देता है ।)
योगशास्त्रानुसार तीसरा नेत्र अर्थात सुषुम्ना नाडी ।
शिवजी त्रिनेत्र हैं, अर्थात वे भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल अर्थात, त्रिकाल की घटनाओं का अवलोकन कर सकते हैं ।
उ. नाग
- नाग को शिव का आयुध भी माना जाता है । विश्व के नौ नागों को ‘नवनारायण’ भी कहते हैं । नवनाथों की उत्पत्ति नौ नागों से ही हुई है । नवनारायण एवं नवनाथसंबंधी विवेचन सनातन के ग्रंथ ‘श्रीविष्णु, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण’में दी है ।
- कार्तिकेय, जोतिबा, रवळनाथ एवं सब्बु । ये सभी नागरूप देवता हैं ।
- सर्व देवी-देवताओं के रूप में किसी न किसी संदर्भ में नाग जुडा रहता है ।
- नाग पुरुषतत्त्व का प्रतीक है । वह संतानदाता देवता है ।
ऊ. भस्म
शिवजी ने अपने शरीर पर भस्म लगाया है । भस्म को ‘शिव का वीर्य’ भी मानते हैं । (भस्मसंबंधी अधिक विवेचन के लिए यहां क्लिक करें)
ए. रुद्राक्ष
अपने बालों के जूडे, गले, भुजाओं, कलाइयों एवं कटि पर (कमर पर) शिव ने रुद्राक्षमालाएं धारण की हैं । (रुद्राक्षसंबंधी अधिक विवेचन के लिए यहा क्लिक करें)
ऐ. व्याघ्रांबर
बाघ (रज-तम गुण) क्रूरता का प्रतीक है । ऐसे बाघ का अर्थात रज-तम गुणों को नष्ट कर, शिवजी ने उसका आसन बनाया है ।
२. आध्यात्मिक विशेषताएं
अ. उत्तम गुरुसेवक
महाविष्णु पर शंकरजी की अत्यधिक श्रद्धा है । उन्होंने महाविष्णु के चरणों के निकट स्थित गंगा को अपने मस्तक पर धारण
किया है ।
आ. महातपस्वी एवं महायोगी
निरंतर नामजप करनेवाले देवता एकमात्र शिव ही हैं । वे सदैव बंध-मुद्रा में आसनस्थ रहते हैं । अत्यधिक तप के कारण बढे तापमान को न्यून (कम) करने के लिए उन्होंने गंगा, चंद्र, सर्प आदि धारण किए जो उन्हें शीतलता प्रदान करते हैं एवं उनका निवास स्थान भी हिम से ढंके कैलाश पर्वत पर है ।
इ. क्रोधी
अखंड नामजप करने में ध्यानमग्न शिव यदि स्वयं विराम करें तो उनका स्वभाव शांत ही रहता है; परंतु नामजप में कोई बाधा उत्पन्न करे (उदा. जिस प्रकार कामदेव ने विघ्न डाला), तो साधना के कारण बढा हुआ तेज तत्क्षण (एकदम से) प्रक्षेपित होता है एवं समीप खडा व्यक्ति उस तेज को सह न पाने के कारण भस्म हो जाता है । अर्थात इसे ही कहते हैं, ‘शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर भस्म कर दिया ।’ मान लें कि, विघ्न-बाधाएं डालनेवाले व्यक्ति को इस प्रक्रिया से १०० प्रतिशत कष्ट होता है तो शिव को मात्र ०.०१ प्रतिशत ही । उस कष्ट से शिव का नाडीबंध छूट जाता है; परंतु आसन नहीं छूटता । तत्पश्चात शिव पुनः बंध लगा लेते हैं ।
ई. वैरागी
विषयभोग सामग्री के सान्निध्य में भी जिसका चित्त अविकारी रहता है, वह कूटस्थ है । जंघा पर पार्वतीजी होते हुए भी, शिवजी निर्विकार रहते हैं, उन्हें कामवासना का स्पर्श भी नहीं होता । ऐसा शिव ही खरा जीतेंद्रिय है ।
उ. दूसरों के सुख के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट सहने के लिए सिद्ध (तैयार) रहनेवाले
समुद्र-मंथन से उत्पन्न हालाहल विष संपूर्ण विश्व को जला रहा था । उस समय किसी भी देवता ने उस विष को ग्रहण करने का साहस नहीं किया । तब शिव ने हलाहल का प्राशन किया एवं संपूर्ण विश्व को विनाश से बचा लिया । इस विषप्राशन के कारण उनका कंठ नीला पड गया और वे ‘नीलकंठ’ कहलाए ।
ऊ. महाकाली के आवेग को शांत करनेवाला शिवत्व
‘दैत्यसंहार करते समय महाकाली अनियंत्रित चक्रवात के समान भयंकर बन गई । उन्हें नियंत्रित करना असंभव हो गया ! शंकरजी ने प्रेतरूप धारण किया तथा कालनृत्य के मार्ग में शिव का शव गिरा । राक्षसों के शव कुचलते हुए, वह कालरात्रि शंकरजी के शवतक पहुंची । उस शव का स्पर्श होते ही कालरात्रि के नृत्य का भयंकर चक्रवात शांत हो गया, वेग शांत हो गया । यही है शिवत्व ! वही परमतत्त्व है !!’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (१)
ए. सहज प्रसन्न होनेवाले (आशुतोष)
ऐ. प्रसन्न होने पर मुंह-मांगा वरदान देनेवाले
एक बार शिव ने रावण के तप से प्रसन्न होकर उसे अपनी पत्नी ही नहीं, बल्कि आत्मलिंग (आत्मा) भी दे दिया । (आत्मलिंग प्राप्त होने पर रावण स्वयं शिव बनना चाहता था ।)
ओ. देवता एवं दानव दोनोंद्वारा पूजे जानेवाले
क्षुद्रदेवता, कनिष्ठ देवता, स्वर्गलोक के कुछ देवता तथा स्वयं श्रीविष्णु शिव के उपासक हैं । (शिव श्रीविष्णु के उपासक हैं ।) केवल देवता ही नहीं; अपितु दानव भी शिवजी के उपासक हैं । यह शिवजी की विशेषता है । बाणासुर, रावण आदि दानवों ने कभी श्रीविष्णु की तपस्या नहीं की और न ही श्रीविष्णु ने किसी दानव को वरदान दिया । दानवों ने शिवजी की उपासना कर, उन्हें प्रसन्न किया एवं मनोवांच्छित वरदान प्राप्त किया । अनेक बार इस प्रकार वरदान देकर, अन्य देवताओंसहित शिवजी स्वयं भी संकट में पड गए और तब प्रत्येक बार श्रीविष्णु ने उन्हें संकटों से उबारने की युक्ति निकाली ।
औ. भूतों के स्वामी
शिवजी भूतों के स्वामी हैं; इसलिए शिव-उपासकों को प्रायः भूतबाधा नहीं होती ।
अं. परस्परविरोधी विशेषताओं से (स्वीकृति एवं विकृति से) युक्त
उत्पत्ति-लय क्षमता, शांत-क्रोधी, चंद्र (शीतलता)-तीसरा नेत्र (भस्म करनेवाला तेज), सात्त्विक-तामसिक इत्यादि परस्परविरोधी विशेषताएं शिवजी में हैं ।
संदर्भ : भगवान शिव (भाग १) – शिवजीसंबंधी अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन