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शिव से संबंधित शक्ति : पार्वती

shakti-parvati

१. व्युत्पत्ति एवं अर्थ

(हिमालय) पर्वत की कन्या है अथवा जिसने पर्वत पर रहकर तप किया, वे हैं पार्वती ।

२. कुछ अन्य नाम

२ अ. पार्वती

शैव एवं शाक्त तंत्र एकत्र होने पर पार्वती इत्यादि नाम प्रचलित हुए । इसके पूर्व उसके अदिति, सुंदरी, सुरसुंदरी, पट्टांबरा (लाल रंग का वस्त्र पहनी हुई), श्‍वेतांबरा, नीलांबरा ऐसे अनेक नाम थे ।

२ आ. गौरी

गौर अर्थात तपद्वारा प्राप्त तेज । पार्वतीद्वारा शिवप्राप्ति हेतु उग्र तपस्या करने पर उन्हें तेज प्राप्त हुआ; इसलिए उन्हें ‘गौरी’ नाम प्राप्त हुआ ।

२ इ. कराली

‘कर + आलि’ अर्थात कराली । ‘कर’ अर्थात हाथ । ‘आलि’ अर्थात पंक्ति । हाथों की पंक्तिवाली अर्थात कराली । ‘कर’ अर्थात करनेवाली ‘करना’ अर्थात हाथों से काम करना । कामों की पंक्ति अर्थात अनेक काम करनेवाली शक्ति अर्थात कराली ।

कराली अर्थात ‘भयंकर’ ऐसा अर्थ सर्वत्र प्रचलित है । अनेक काम करनेवाली शक्ति यदि चित्रित करनी हो, तो चित्रकार एक मानवी आकृति को अनेक हाथ दिखाएगा । चार, आठ अथवा दस हाथोंवाली स्त्री का वास्तव में वह भयंकर रूप देखा जाए तो निश्‍चित ही सब घबरा जाएंगे । इसी आधार पर ‘कराली’ अर्थात ‘भयंकर’ यह समझ निर्मित हुई है ।

२ ई. अपर्णा

अ + पर्णा अर्थात वह, जिसने पर्ण (पत्ता) भी ग्रहण किए बिना ही तप किया हो ।

२ उ. उमा

हिमालयकन्या पार्वती का एक सौम्य रूप । इस शब्द की व्युत्पत्ति निम्नानुसार है ।

१.    उं शिवं माति मिमीते वा । – शब्दकल्पद्रुम

अर्थ : उमा वे हैं जो उ अर्थात शिव को नापती हैं, गिनती हैं ।

२.    यतो हि तपसे पुत्रि वनं गन्तुं च मेनका ।

उमेति तेन सोमेति नाम प्राप तदा सती ॥ – कालिकापुराण, पृष्ठ ४२

अर्थ : तप के लिए वन में जाने के लिए इच्छुक कन्या से मेनका कहती है, ‘हे उ (कन्या), मा (तप हेतु जाना) नहीं’, इसलिए उन्हें उमा नाम मिला ।

२ ऊ. शुभदा

‘शुभं ददाति इति ।’ अर्थात शुभ प्रदान करनेवाली ।

३. विशेषताएं एवं कार्य

३ अ. शिव से अभेद

प्रथम सती के रूप में एवं तत्पश्‍चात पार्वती के रूपमें उन्होंने शिव को चुना ।

३ आ. जिज्ञासु

पुराण में पार्वती को एक अत्यंत जिज्ञासु स्त्री के रूप में दर्शाया गया है । नामरूपों की व्यापकता में अंतर्भूत शिवतत्त्व की प्राप्ति के लिए वे शिव से अनेक प्रश्‍न करती हैं एवं शिव उन्हें अनेक प्रकार के व्रत और उनकी कथाएं सुनाते हैं ।

अपने सौभाग्य के लिए स्त्रियां जो उपायन (भेंट) अर्पित करती हैं, वह शिव-पार्वती के संवाद से ही प्रकट हुआ है ।

३ इ. करुणामयी

पार्वती करुणा का साकार रूप हैं । दीन-दुखियों के दुःख से वे तत्काल व्याकुल हो जाती हैं । किसी भी भयभीत व्यक्ति की आर्त्त पुकार शिव से भी पहले उन्हें सुनाई देती है । तदुपरांत वे शिव को समाधि से जागृत करती हैं और शिव को आगे कर आतुरता से आर्त्तत्राण हेतु जाती हैं ।

३ ई. मारक शक्ति

यह उग्र-भयंकर हैं । चंड-मुंड-महिषों के मर्दन के समय उनका यह शक्तिस्वरूप अचानक प्रकट हुआ । इसी शक्ति के कारण शिव कार्यान्वित होते हैं ।

३ उ. शिव-शक्ति अद्वैत

पार्वती केवल शिव परिवार की नहीं हैं, शिवकी अर्धांगिनी ही हैं । शैव सिद्धांत में उन्हें ‘शक्ति’ नाम मिला और शिव-शक्ति कातादात्म्य प्रस्थापित हुआ । गोरक्षनाथ ने इस संबंध में आगे का श्‍लोक कहा है –

शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरे शिवः ।
अन्तरं नैव जानीयाच्चन्द्रचन्द्रिकयोरिव ॥ – गोरक्षसिद्धान्तसङ्ग्रह

अर्थ : शिव के हृदय में शक्ति का और शक्ति के हृदय में शिव का वास होता है । जिस प्रकार चंद्रमा और चांदनी अभिन्न हैं, उसी प्रकार शिव-शक्ति भी अभिन्न हैं । उनमें भेद नहीं मानना चाहिए ।

४. मूर्तिविज्ञान

‘काश्यपशिल्प’ एवं ‘मानसार’ नामक ग्रन्थों में पार्वती की मूर्ति बनाने की पद्धति इस प्रकार बताई है – स्वतंत्ररूप में अर्थात अकेली पार्वती हों, तो चतुर्भुज और शिवसहित पार्वती हों, तो उन्हें द्विभुज बनाएं । स्वतंत्ररूप में उनके मस्तक पर जटामुकुट हो । ऊपर के दोनों हाथोंमें क मल अथवा परशु एवं पाश हो और निचले दोनों हाथ वरद तथा अभयमुद्रा में हों । शिवसहित रूप में वह कमलासनस्थ अथवा खडी तथा सर्व आभूषणों से भूषित हों । उनके दाएं हाथ में कमल हो तथा बायां हाथ नीचे की ओर खुला हो ।

५. कुछ रूप

५ अ. दुर्गा का व्युत्पत्ति एवं अर्थ

  •    दैत्यनाशार्थवचनो दकारः परिकीर्तितः ।
    उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मतः ।
    रेफो रोगघ्नवचनो गश्‍च पापघ्नवाचकः ।
    भयशत्रुघ्नवचनश्‍चाकारः परिकीर्तितः ॥
    ब्रह्मवैवर्तपुराण, अध्याय २७, श्‍लोक १८, १९
  • अर्थ : दुर्गा शब्द का ‘द’कार दैत्यनाशका, ‘उ’कार विघ्नविनाश का, ‘रेफ’ (‘गा’पर रेफ) रोगहरण का, ‘ग’ पापनाशन का एवं ‘आकार’ भय एवं शत्रु के नाश का अर्थ सूचित करता है । यह वेदमान्य है ।
  • दुर्गादेवीने दुर्ग नामक दैत्य का वध किया, इसलिए लोग उन्हें दुर्गा कहने लगे ।
  • ‘दुर्गा’में ‘दुर्’ अर्थात अनिष्ट और ‘ग’ अर्थात गमन करनेवाली, नष्ट करनेवाली । दुर्गा वे हैं, जो अनिष्ट को नष्ट करती हैं ।
  • मूल रूप दुर्गा : प्राचीन काल में विविध स्थानों में विभिन्न देवियां अनेक नामों से पूजी जाती थीं । पुराणकारों ने उन सर्व देवियों को दुर्गा के रूप में एकरूप किया और उन्हें शिव के पत्नीपद पर आसीन किया ।

५ आ. अद्वितीय विशेषताएं एवं कार्य

  • महिषासुर, चंड-मुंड और शुंभ-निशुंभ नामक अति बलशाली दैत्यों का वध कर श्री दुर्गादेवी महाशक्ति बनीं तथा उन्होंने सर्व देवताओं एवं मानव को अभयदान दिया । देवताओं के द्वारा स्तुति करने पर उन्हें सुरक्षा का वचन देते हुए देवीने बताया –
  •      इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
    तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ॥
    – मार्कण्डेयपुराण, अध्याय ९१, श्‍लोक ५१
  • अर्थ : जब-जब दानवोंद्वारा (विश्‍व के लिए) बाधा उत्पन्न की जाएगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रु का संहार करूंगी । दुर्गा के आधिदैविक स्वरूप से परे उनका आध्यात्मिक स्वरूप भी है । इस स्वरूपमें वे अपने भक्तोंकी मोह-माया मिटाकर, उन्हें ब्रह्मपद पर आरूढ करती हैं । अपने इस आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन उन्होंने अपने मुखारविंद से (आगे दिए अनुसार) किया है –
  •      सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः । काऽसि त्वं महादेवि ।
    साऽब्रवीदहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगच्छून्यं चाऽशून्यं च ।
    अहमानन्दाऽनानन्दाः विज्ञानाविज्ञाने अहम् । ब्रह्मा ब्रह्मणी वेदितव्ये ॥
    – देव्युपनिषद्, खण्ड १
  • अर्थ : सर्व देवता देवी के समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने देवी से पूछा, ‘‘हे महादेवी, आप कौन हैं ?’’ इस पर देवी बोलीं, ‘‘मैं ब्रह्मस्वरूपिणी हूं । यह प्रकृतिपुरुषात्मक और शून्य-अशून्यात्मक विश्‍व मुझसे ही उत्पन्न हुआ है । आनंद और निरानंद मैं ही हूं । विज्ञान और अविज्ञान मैं ही हूं । ज्ञेय ब्रह्म और अब्रह्म मैं ही हूं ।’’

५ इ. मूर्तिविज्ञान

श्री दुर्गादेवी चतुर्भुजा, अष्टभुजा, दशभुजा इत्यादि विविध रूपों में होती हैं ।

श्री दुर्गादेवी चित्र में दिखाएं अपने शरीर के विविध भागों का प्रतीकात्मक अर्थ सूक्ष्म स्तर पर इस प्रकार सूचित करती है ।

चित्र के भाग किसका प्रतीक ? चित्र के भाग किसका प्रतीक ?
१.    छः शस्त्र षड्रिपुओं का नाश ५.    ढाल गुुरुकृपा
२.    अग्निकुंड क्षात्रवृत्ति ६.    उठाया हुआ चरण अहंकार का नाश
३.    कटा हुआ सिर रज, तम, दुष्प्रवृत्ति ७.    बायां चरण शरणागति
४.    जपमाला भक्ति

६. पार्वती का एक अन्य रूप – काली

६ अ. व्याख्या

कालीकी व्याख्या ‘प्राणतोषिणी’ नामक ग्रन्थमें इस प्रकार दी गई है ।

  •      कालसङ्कलनात् काली सर्वेषामादिरूपिणी ।
    कालत्वादादिभूतत्वादाद्या कालीति गीयते ॥
  • भावार्थ : काली, काल को जागृत करनेवाली एवं सबकी उत्पत्ति का मूल हैं । काल, पंचमहाभूत एवं प्राणिमात्र के संदर्भ में काली सर्वप्रथम प्रकट होती हैं । काल ही जिसके चरण हैं एवं जो भूतकाल से भी पूर्व प्रकट हुई हैं, उसे ‘काली’ कहते हैं ।
  •      तंत्रलोक में काली की व्याख्या इस प्रकार दी गई है ।
    काली नाम पराशक्तिः सैव देवस्य गीयते ।
  • अर्थ : ब्रह्माकी नित्य क्रियाशक्तिरूप पराशक्ति को (श्रेष्ठ शक्ति को) काली कहते हैं ।

६ आ. विशेषताएं एवं कार्य

महाकाल के अर्थात शिव के हृदय पर खडी होकर काली नृत्य करती हैं । कालीविलासतंत्र में उन्हें ‘शवासना अथवा शवारूढा’ भी कहा गया है । तंत्रमार्ग में शव एवं शिव एक ही तत्त्व के नाम हैं । निराकार ब्रह्म का प्रथम साकार रूप अर्थात शव । वह निश्‍चल होता है । उसमें शक्ति के स्पंदन आरंभ होने पर वह सृष्टिरचना हेतु क्रियाशील हो जाता है, तब उसे ‘शिव’ कहते हैं । इसे अन्य शब्दोंमें व्यक्त करना हो, तो शक्तिहीन ब्रह्म ‘शव’ है, शक्तियुक्त ब्रह्म ‘शिव’ है । शिव का इकार शक्तिवाचक ही है । वह  महाशक्तिकी क्रीडा का आधार है, इसलिए उसे ‘शवासन’ कहते हैं । ‘हेसौः’ शवबीज अथवा प्रेतबीज है । यही प्रेत सृष्टिरचना के समय पद्मरूप ग्रहण करता है एवं महामाया काली का आसन अथवा क्रीडास्थल बनता है । इसीको काली का ‘महाप्रेतपद्मासन’ कहते हैं । यही आशय आगे दिए गए श्‍लोकमें है ।

प्रेतस्थां च महामायां रक्तपद्मासनस्थिताम् ।
– कालीविलास तंत्र (२७)

अर्थ : लाल कमल के आसन पर बैठी काली महामाया का रूप है एवं प्रेतको अर्थात, निश्‍चल प्रकृति को, ब्रह्मको चेतना देती
है ।

६ इ. कालीमाता के रूपकी विशेषताओं का भावार्थ

रूपकी विशेषताएं भावार्थ
१.    महिषासुर का कटा हुआ मुंड अज्ञान अथवा मोह का नाश
२.    गलेमें मुंडमाला (कर्पूरादी स्तोत्रानुसार ५२ तथा निरुत्तर तंत्रानुसार ५० मुंड) शब्दब्रह्म का प्रतीक, ऐसी वर्णमाला
३.    शवों से काटे हुए हाथों की बनाई गई कटि की मेखला (सिकडी) साधकों के हाथ काटना अर्थात क्रियमाण-कर्म से उन्हें मुक्त करना
४.    श्मशान में नृत्य वासनाविमुक्त साधक का हृदय हैं श्मशान एवं नृत्य अर्थात आनंद

संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, शक्ति (भाग १)

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