१. परिचय
यह लेख देवीपूजन की विशेषताआें तथा देवीपूजन के उचित कृत्यों जैसे विविध पहलुआें पर प्रकाश डालता है । इस विवरण से देवीपूजक की देवीपूजन में श्रद्धा बढने में सहायता होगी । श्रद्धासहित पूजन करने से अधिक लाभ मिलता है ।
२. शिव एवं शक्ति की उपासना में अंतर
देवता की तुलना में देवी में प्रकट शक्ति अधिक मात्रा में होती है । इस कारण देवताओं की अपेक्षा देवी के नामजप से अधिक शक्ति प्रतीत होती है । अर्थात साधना के कारण आध्यात्मिक स्तर ३५ प्रतिशत से अधिक होने पर, जिन्हें सूक्ष्म का अल्पाधिक ज्ञान है, उन्हें ही यह प्रतीत होता है ।
कुछ तुलनात्मक सूत्र
शिव | शक्ति | |
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१. विशेषता | योगरूप | ज्ञानरूप (टिप्पणी १) |
२. कार्य | निवृत्ति पर | प्रवृत्ति पर |
३. स्तर | सर्वश्रेष्ठ | श्रेष्ठ |
४. मांगना | कुछ नहीं | गौण शक्ति मांगती है, ‘अमुक कार्य के लिए अमुक चाहिए ।’ |
५. बलि चढाना (टिप्पणी २) | नहीं | है |
टिप्पणी १ – श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ३९
अर्थ : जो श्रद्धावान्, तत्पर और जितेंद्रिय है, ऐसे मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है ।
टिप्पणी २ – शिव एवं शक्ति के सम्मिलित रूप में भी बलि देने का विधान नहीं है ।
३. शक्ति-उपासकों के प्रकार
३ अ. नित्य पूजासमान पूजन करना
यह उपासनापद्धति सात्त्विक होती है । उसमें आडंबर भी अल्प होता है । वह केवल देवी को संतुष्ट करने हेतु होती है । ऐसा संकेत है कि सात्त्विक उपासना निष्काम होनी चाहिए; परंतु मन में कोई कामना हो तो कुछ नहीं बिगडता; क्योंकि सकाम उपासना में भी प्रथम देवी की संतुष्टि और कृपा अपेक्षित होती है ।
३ आ. अंतर्याग एवं बहिर्याग
ये शाक्तसाधना के अथवा शक्तिपूजा के दो प्रमुख प्रकार हैं । मानसपूजा एवं यौगिक साधना को अंतर्याग तथा बाह्य सामग्री से की जानेवाली पूजा को बहिर्याग कहते हैं । बहिर्याग की साधना बिना अंतर्याग साध्य होना दुष्कर है ।
अंतर्याग के भी आगे दिए पांच भाग हैं – पटल, पद्धति, वर्म (कवच), स्तोत्र एवं सहस्रनाम ।
अ. पटल : पटल का अर्थ है मंत्राक्षरों द्वारा मूलाधारादि चक्र में देवी के स्वरूप की कामना करते हुए, चित्त को शक्तिसंपन्न बनाना ।
आ. पद्धति : मंत्रपटल द्वारा हृदयादि पीठों में देवी की पूजा करना ।
इ. कवच : इष्टमंत्रों के अक्षरों द्वारा स्थूलदेह पर आच्छादन का निर्माण करना ।
ई. स्तोेत्र : देवी के मंत्रों की स्मृति जागृत रहे, इस उद्देश्य से उसकी स्तुति करना ।
उ. सहस्रनाम : देवी के सहस्र गुणों के निर्देशित सहस्रनामों का पाठ करना ।
बहिर्याग के पांच भाग हैं –
- जप
- होम
- तर्पण (जल छोडना)
- मार्जन (दर्भाग्र से पानी छिडकना)
३ इ. कुलदेवी-उपासक
विविध साधनामार्गों में शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करानेवाला सुलभ मार्ग है नामसंकीर्तनयोग । गुरुद्वारा दिए गए नामजप का, अर्थात गुरुमंत्र का जप श्रद्धा से करने पर मोक्षप्राप्ति होती है; परंतु नाम देनेवाले उचित गुरु न मिलें, तो अपने कुलदेवता का अर्थात कुलदेवी / कुलदेव का जप करना कैसे उचित है, यह आगे स्पष्ट किया गया है ।
‘कुलदेवता’ शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ
१. कुल अर्थात आप्तसंबंधों से एकत्र आए एवं एक रक्त-संबंध के लोग । जिस कुलदेवता की उपासना आवश्यक होगी, उस कुल में व्यक्ति जन्म लेता है
२. कुल अर्थात मूलाधारचक्र, शक्ति अथवा कुंडलिनी । कुल + देवता अर्थात ऐसे देवता जिसकी उपासना से मूलाधारचक्र में विद्यमान कुंडलिनीशक्ति जागृत होती है तथा आध्यात्मिक प्रगति आरंभ होती है । कुलदेवता, अर्थात कुलदेव अथवा कुलदेवी, दोनों ।
महत्त्व
- हम गंभीर रोगों में स्वयं निर्धारित औषधि नहीं लेते । ऐसे में उस क्षेत्र के अधिकारी व्यक्ति अर्थात, डॉक्टर के पास जाकर उनके परामर्शनुसार औषधि लेते हैं । उसी प्रकार भवसागर के गंभीर रोगों से बचने हेतु अर्थात, अपनी ध्यात्मिक उन्नति के लिए, आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्तियों के मार्गदर्शन अनुसार साधना करना आवश्यक है; परंतु ऐसे उन्नत व्यक्ति समाज में बहुत अल्प होते हैं । ९८ प्रतिशत तथाकथित गुरु वास्तव में गुरु होते ही नहीं । अतः यह प्रश्न उठता है कि कौनसा नाम जपना चाहिए; परंतु इस संदर्भ में भी प्रत्येक को उसकी उन्नति हेतु आवश्यक, ऐसे उचित कुल में ही भगवान ने जन्म दिया है ।
- अस्वस्थ होने पर हम अपने फैमिली डॉक्टर के पास जाते हैं, क्योंकि उन्हें हमारी शरीरप्रकृति एवं रोग की जानकारी रहती है । यदि किसी कार्यालय में शीघ्र काम करवाना हो, तो हम परिचित व्यक्तिद्वारा काम करवा लेते हैं । उसी प्रकार अनेक देवताओं में से कुलदेवता ही हमें अपने लगते हैं । वे हमारी पुकार सुनते हैं एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु उत्तरदायी होते हैं ।
- जब ब्रह्मांड के सर्व तत्त्व पिंड में लाए जाते हैं, तब साधना पूर्ण होती है । र्व प्राणियों में से केवल गाय में ही ब्रह्मांड के सर्व देवताओं की स्पंदन-तरंगें ग्रहण करने की क्षमता है । (इसीलिए गाय के उदर में तैंतीस करोड देवता वास करते हैं, ऐसा कहा जाता है ।) उसी प्रकार ब्रह्मांड के सर्व तत्त्वों को आकर्षित कर, उन सभी में ३० प्रतिशत वृद्धि करने का सामर्थ्य केवल कुलदेवता के जप में है । इसके विपरीत श्रीविष्णुु, शिव, श्री गणपति आदि देवताओं का नामजप केवल विशिष्ट तत्त्व की वृद्धि हेतु है, जैसे शक्तिवर्धक के रूप में जीवनसत्त्व अ, ब (विटामिन ए, बी) इत्यादि लेते हैं ।
४. उद्देश्यानुसार उपास्य देवी
४ अ. विलासदायी देवी
ललिता, त्रिपुरसुंदरी, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, कामाक्षी, शाकंभरी इत्यादि देवताओंको अधिकतर पूरी, चने और हलवे का अथवा पूरण का (चने की दाल पकाकर, पीसकर, उसमें गुड मिलाकर बनाया गया एक खाद्य पदार्थ) नैवेद्य चढाया जाता है । इनका नैवेद्य अधिकांशतः कामोन्मादी होता है ।
४ आ. संतानप्राप्ति करानेवाली देवी
लज्जागौरी, छिन्नमस्ता इत्यादि । अधिकतर इन्हें पीले रंग के किनारेवाली हरी साडी अर्पण करते हैं । हरा रंग सृजनशीलता का और पीला रंग ज्ञान का दर्शक है ।
४ इ. शत्रु का नाश करनेवाली देवी
मयूरी, निर्ऋति, स्वधा, काली, चंडी, कंकालभैरवी, महिषासुरमर्दिनी इत्यादि को नैवेद्य के रूप में बलि चढाते हैं ।
५. देवीपूजनसे संबंधित कुछ सर्वसामान्य कृत्योंकी अध्यात्मशास्त्रकी दृष्टिसे उचित पद्धतियां
त्येक देवताका एक विशिष्ट उपासनाशास्त्र है । इसका अर्थ है कि त्येक देवताकी उपासनाके अंतर्गत त्येक कृत्य विशिष्ट कारसे करनेका अध्यात्मशास्त्रीय आधार है । आदिशक्ति श्री दुर्गादेवी एवं उनके सर्व रूपोंके (सर्व देवीके) पूजनसे संबंधित सर्वसाधारण कृत्यके विषयमें जानकारी, आगेकी सारणीमें दी है ।
उपासनाका कृत्य | कृत्यसे संबंधित प्रप्त ज्ञान | |
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१. | शक्तिपूजनसे पूर्व उपासक स्वयंको तिलक कैसे लगाए ? | मध्यमासे आज्ञाचक्रपर एक खडी रेखाका तिलक लगाए । |
२. | देवीको चंदन किस उंगलीसे लगाएं ? | चंदन अनामिकासे लगाएं । |
३. | पुष्प चढाना | |
अ. कौनसे पुष्प चढाएं ? | मोगरा, गुलदाउदी, रजनीगंधा, कमल, जूही | |
आ. संख्या कितनी हो ? | एक अथवा नौ गुना | |
इ. पुष्प चढानेकी पद्धति क्या हो ? | पुष्पोंका डंठल देवताकी ओर कर चढाएं । | |
ई. पुष्प कौनसे आकारमें चढाएं ? | पुष्प गोलाकार चढाकर वर्तुलके मध्यकी रिक्तिको भर दें । | |
४. | अगरबत्तीसे आरती उतारना | |
अ. तारक उपासनाके लिए किस सुगंधकी अगरबत्ती ? | चंदन, गुलाब, मोगरा, केवडा, चमेली, चंपा, जाही, खस, रातरानी एवं अंबर | |
आ. मारक उपासनाके लिए किस सुगंधकी अगरबत्ती ? | हिना एवं दरबार | |
इ. संख्या कितनी हो ? | दो | |
ई. उतारनेकी पद्धति क्या हो ? | दाएं हाथकी तर्जनी एवं अंगूठेके बीच दो अगरबत्तियां पकडकर घडीकी सुइयोंकी दिशामें पूर्ण गोलाकार पद्धतिसे तीन बार घुमाएं । | |
५. | इत्र किस सुगंधकी अर्पित करें ? | मोगरा |
६. | देवीकी कितनी परिक्रमाएं करें ? | न्यूनतम (कमसे कम) एक अथवा नौ और उससे अधिक करनी हो तो नौ गुना |
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, शक्ति (भाग १)