१. स्नान
शंकरजी की पिंडी को ठंडे जल, दूध एवं पंचामृत से स्नान कराते हैं । (चौदहवीं शताब्दी से पूर्व शंकरजी की पिंडी को केवल जल से स्नान करवाया जाता था; दूध एवं पंचामृत से नहीं । दूध एवं घी ‘स्थिति’के प्रतीक हैं, इसलिए ‘लय’ के देवता शंकरजी की पूजा में उनका उपयोग नहीं किया जाता था । चौदहवीं शताब्दी में दूध को शक्ति का प्रतीक मानकर शैवों ने भी वैष्णव उपासना में प्रचलित पंचामृतस्नान, दुग्धस्नान इत्यादि अपनाए ।)
२. हलदी एवं कुमकुम निषिद्ध
पिंडी पर हलदी एवं कुमकुम न चढाने का कारण आगे दिए अनुसार है । हलदी मिट्टी में उपजती है एवं उर्वर धरती अर्थात उत्पत्ति का वह प्रतीक है । कुमकुम भी हलदी से ही बनता है, इसलिए वह भी उत्पत्ति का ही प्रतीक है । चूंकि शिवजी ‘लय’के देवता हैं, इसीलिए ‘उत्पत्ति’के प्रतीक हलदी-कुमकुम का प्रयोग शिवपूजन में नहीं किया जाता । भस्म इसलिए लगाते हैं, क्योंकि वह लय का द्योतक है ।
३. भस्म
पिंडी के दर्शनीय ओर से भस्म की तीन समानांतर धारियां बनाते हैं अथवा फिर समांतर धारियां खींचकर उन पर मध्य में एक वृत्त बनाते हैं, जिसे शिवाक्ष कहते हैं । अधिक जानकारी हेतू पढें ‘शिवपूजन में भस्म लगाने का महत्व’
४. अक्षत
पिंडी का पूजन करते समय श्वेत अक्षत का प्रयोग आगे दिए गए कारणों से उचित होता है । श्वेत अक्षत वैराग्य के, अर्थात निष्काम साधना के द्योतक हैं । श्वेत अक्षत की ओर निर्गुण से संबंधित मूल उच्च देवताओं की तरंगें आकर्षित होती हैं । शंकर एक उच्च देवता हैं और वह अधिकाधिक निर्गुण से संबंधित हैं, इसलिए श्वेत अक्षत पिंडी के पूजन में प्रयुक्त होने से शिवतत्त्व का अधिक लाभ मिलता है ।
५. पुष्प
धतूरा, श्वेत कमल, श्वेत कनेर, चमेली, मदार, नागचंपा, पुंनाग, नागकेसर, रजनीगंधा, जाही, जूही, मोगरा तथा श्वेत पुष्प शिवजी को चढाएं । (शिवजी को केतकी, केवडा वर्जित हैं, इसलिए न चढाएं । केवल महाशिवरात्रि के दिन चढाएं ।)
६. बेल
बिल्वपत्र को औंधे रख और उसके डंठल को अपनी ओर कर पिंडी पर चढाते हैं ।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रंच त्रयायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।। – बिल्वाष्टक, श्लोक १
अर्थ : त्रिदल (तीन पत्र) युक्त, त्रिगुण के समान, तीन नेत्रों के समान, तीन आयुधों के समान एवं तीन जन्मों के पाप नष्ट करनेवाला यह बिल्वपत्र, मैं शंकरजी को अर्पित करता हूं ।
७. जल की धारा
पिंडी में शिव-शक्ति एकत्रित होने के कारण प्रचंड ऊर्जा उत्पन्न होती है । इस ऊर्जा का पिंडी के कणों पर एवं दर्शनार्थियों पर कोई प्रतिकूल परिणाम न हो, इसलिए पिंडी पर निरंतर पानी की धारा पडती रहनी चाहिए । पानी की इस धारा से खर्ज स्वर में सूक्ष्म ओंकार (ॐ, निर्गुण ब्रह्म का वाचक) उत्पन्न होता है । वैसे ही मंत्र की निरंतर धार पडते रहने से कालपिंड खुल जाता है, अर्थात जीव निर्गुण ब्रह्मतक पहुंच जाता है ।
८. शिवपूजा की कुछ विशेषताएं एवं उनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार
अ. ‘शिवपूजा में शंख की पूजा नहीं की जाती, उसी प्रकार शिवजी पर शंखद्वारा जल नहीं डालते । देवताओं की मूर्तियों के मध्य में यदि पंचायतन (पंचायतन अर्थात पंच देवता – नारायण (श्रीविष्णु), गणपति, शिव, देवी एवं रवि (सूर्य)) की स्थापना हो, तो उसके बाणलिंग पर शंखद्वारा जल डाल सकते हैं; परंतु महादेव की पिंडी के बाणलिंग को शंख के जल से स्नान नहीं करवाते ।’
अध्यात्मशास्त्रीय आधार : शिवपिंडी में अरघा के रूप में स्त्रीकारकत्व होता है, इसलिए स्त्रीकारकत्व युक्त शंख का जल पुनः डालने की आवश्यकता नहीं होती । बाणलिंग के साथ अरघा नहीं होती, इस कारण उसे शंख के जल से स्नान करवाते हैं ।
आ. ‘मंदिर में महादेव की पूजा करते समय शंखपूजा का विधान नहीं है । केवल आरतीपूर्व शंखनाद का विधान है, इसलिए आरती के समय शंखनाद अवश्य किया जाता है ।’
अध्यात्मशास्त्रीय आधार : शंखनाद से प्राणायाम का अभ्यास तो सिद्ध होता है ही; साथ ही शंखनाद की ध्वनि जहांतक गूंजती है, वहांतक भूतबाधा, जादू-टोना आदि अनिष्ट शक्तियों से कष्ट नहीं होता है ।
इ. ‘शिवजी पर तुलसी नहीं चढाते हैं; परंतु शालग्राम शिला पर अथवा विष्णुमूर्ति पर चढाई गई तुलसी उन पर चढा सकते हैं ।’
अध्यात्मशास्त्रीय आधार : इसका कारण यह है कि शिवजी श्रीविष्णुभक्त हैं; इसलिए श्रीविष्णु पर चढाई गई तुलसी उन्हें प्रिय है ।
ई. ‘आषाढ कृष्ण पक्ष अष्टमी के दिन शंकरजी की एवं चतुर्दशी को रेवती की पूजा नीले पुष्पों से करनी चाहिए । शिवजी को केवडे की बालियां महाशिवरात्रि व्रत के उद्यापन के समय ही चढाते हैं ।’
अध्यात्मशास्त्रीय आधार : कालानुसार पूजासामग्री में होनेवाले परिवर्तन का यह एक उदाहरण है । उदा. ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अष्टमी के दिन नीले रंग के फूलमें, हरे बेल के समान, शिवतत्त्व ग्रहण करने की क्षमता होती है । इसलिए इस दिन शिव को नीले रंग के फूल चढाने चाहिए ।
उ. ‘शिवपिंडी पर अर्पित किए गए बेल एवं श्वेत पुष्प तथा भोगप्रसाद ग्रहण करना वर्जित है ।’
अध्यात्मशास्त्रीय आधार : शिवजी वैराग्य के देवता हैं । शिवजी को अर्पित की गई वस्तु यदि सर्वसाधारण व्यक्ति ग्रहण करे, तो उसमें वैराग्य निर्माण हो सकता है । सहसा सर्वसाधारण व्यक्ति को वैराग्य की इच्छा नहीं होती । इसलिए शिवपिंडी पर अर्पित वस्तु को अग्राह्य माना जाता है । ५० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति के लिए यह नियम लागू नहीं होता; स्तर अधिक होने के कारण उस पर वैराग्यदायक तरंगों का परिणाम नहीं हो सकता । ऐसा इसलिए क्योंकि, उसके मन में माया से दूर जाने के विचार आरंभ हो चुके होते हैं । साथ ही, ५० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति अधिकांशतः स्थूल कर्मकांड के परे जा चुका होता है; उसकी मानस-उपासना आरंभ हो चुकी होती है । ऐसे व्यक्ति के मन में ऐसे कर्मकांडजन्य विचार आने की संभावना अल्प होती है कि, ‘शिवजी को अर्पित वस्तु ग्रहण करनी चाहिए ।’
ऊ. ‘शैव, कापालिक, गोसावी, वीरशैव इत्यादि अपने-अपने संप्रदायानुसार पार्थिवलिंग, कंठस्थ (गले में पहनने हेतु चांदी की पेटी में) लिंग, स्फटिकलिंग, बाणलिंग, पंचसूत्री, पाषाणलिंग, इस प्रकार के लिंग शिवपूजा हेतु प्रयोग किए जाते हैं ।’
९. शिवालय में पूजा के लिए कहां बैठें ?
सामान्यतः शिवजी के मंदिर में पूजा एवं साधना करनेवाले श्रद्धालुगण शिवजी की तरंगों को सीधे अपने शरीर पर नहीं लेते; क्योंकि इससे उन्हें कष्ट होता है । शिवजी के मंदिर में अरघा के स्रोत के ठीक सामने न बैठकर आगे दी गई आकृति में दिखाए अनुसार एक ओर बैठते हैं । ऐसा इसलिए क्योंकि शिवजी की तरंगें सामने की ओर से न निकलकर, अरघा के स्रोत से बाहर निकलती हैं ।
१०. शिवोपासनांतर्गत कुछ नियमित कृत्योंके शास्त्र
प्रत्येक देवता का एक विशिष्ट उपासनाशास्त्र है । इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक देवता की उपासनांतर्गत प्रत्येक कृत्य को विशिष्ट प्रकार से करने का आध्यात्मिक शास्त्र है । उपासक का ऐसा कृत्य उस देवता के तत्त्व का अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने में सहायक है । शिवोपासनांतर्गत कुछ नियमित कृत्यों को निश्चितरूप से कैसे करें, इस विषय पर सनातन के साधकों को ईश्वरीय कृपा के फलस्वरूप प्राप्त ज्ञान आगे दी गई सारणी में प्रस्तुत है ।
उपासना का कृत्य | कृत्य के विषय में ईश्वरीय कृपास्वरूप प्राप्त ज्ञान |
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१. शिवजी को पुष्प चढाना
अ. कौनसे चढाएं ? आ. संख्या कितनी हो ? इ. पुष्प चढाने की पद्धति क्या हो ? ई. पुष्प कौनसे आकार में चढाएं ? |
रजनीगंधा, जाही, जूही एवं मोगरा दस अथवा दस गुना पुष्पों का डंठल देवता की ओर चढाएं । पुष्प गोलाकार चढाकर वर्तुल के मध्य की रिक्ति को भर दें । |
२. अगरबत्ती से आरती उतारना
अ. तारक उपासना के लिए किस सुगंध की अगरबत्ती ? आ. मारक उपासना के लिए किस सुगंध की अगरबत्ती ? इ. संख्या कितनी हो ? ई. उतारने की पद्धति क्या हो ?
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चमेली एवं हिना केवडा (टिप्पणी १), हिना एवं दरबार दो दाहिने हाथ की तर्जनी एवं अंगूठे में पकडकर घडी की सुइयों की दिशा में पूर्ण गोलाकार पद्धति से तीन बार घुमाकर उतारें । |
३. इत्र किस सुगंध का अर्पित करें ? | केवडा (टिप्पणी १) |
टिप्पणी १ – सूत्र ‘५’ में बताया गया है कि महाशिवरात्रि के दिन को छोडकर अन्य प्रसंगों पर शिव को केवडा नहीं चढाते और यहां बताया गया है कि शिव की उपासना में केवडे के सुगंध की अगरबत्ती एवं इत्र का उपयोग करें । इसका शास्त्रीय कारण कुछ इस प्रकार है – ‘केवडे में ज्ञानतरंगों के प्रक्षेपण की क्षमता अधिक होती है । केवडा ज्ञानशक्ति के स्तर पर मारक रूपी कार्य करता है, इसलिए उसे पूर्णतः लयकारी कहा गया है । पूजाविधि लयकारी शक्ति से संबंधित नहीं है, इसलिए जहांतक संभव हो, शिवपूजन में केवडे का उपयोग नहीं करते । तथापि ‘अनिष्ट शक्तियों के कष्टों पर उपायस्वरूप’ केवडे के पत्ते का उपयोग किया जाता है । इस दृष्टि से केवडे की सुगंध की अगरबत्ती एवं इत्र का उपयोग करने के लिए कहा गया है ।’
– एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यमसे, २९.८.२००५, दिन १०.४४)
११. परिक्रमा की पद्धति
शिवजी की परिक्रमा चंद्रकला के समान अर्थात सोमसूत्री होती है । अरघा से उत्तर दिशा की ओर, अर्थात सोम की दिशा की ओर, मंदिर के आंगन के कोनेतक जो सूत्र अर्थात नाला जाता है, उसे सोमसूत्र कहते हैं । परिक्रमा बार्इं ओर से आरंभ करें एवं अभिषेक की जलप्रणालिका (अरघा का स्रोतरूपी आगे निकला हुआ भाग) की दूसरी छोरतक जाकर, उसे न लांघते हुए मुडें एवं पुनः प्रणालिकातक वि परीत दिशा में आकर परिक्रमा पूर्ण करें । यह नियम केवल मानवस्थापित अथवा मानव निर्मित शिवलिंग पर ही लागू होता है; स्वयंभू लिंग अथवा चल (पूजाघरके) लिंग पर नहीं । अरघा के स्रोत को लांघते नहीं, क्योंकि वहां शक्तिस्रोत होता है । उसे लांघते समय पैर फैलते हैं तथा वीर्यनिर्मिति एवं पांच अंतस्थ वायुओं पर विपरीत परिणाम होता है । इससे देवदत्त एवं धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है । लांघते समय यदि स्वयं को संकुचित कर लें, अर्थात नाडियों को भींच लें, तो नाडियों पर दुष्परिणाम नहीं होता । बुद्धिजीवी समझते हैं कि प्रणालिका लांघते समय उसमें पैरों की गंदगी गिरने से, उस जल को तीर्थ मानकर प्राशन करनेवाले श्रद्धालुओं को रोग हो सकता है; इसलिए प्रणालिका लांघते नहीं !
संदर्भ : भगवान शिव (भाग २) शिवजी की उपासना का शास्त्रोक्त आधार