शिवजी के रूप – जो दुःख का नाश करता है वह है रुद्र, शिव के क्रोध से उत्पन्न हुए कालभैरव, नटराज, यमधर्म एवं दक्षिणलोक के प्रमुख वीरभद्र, विकृतियों को अपनी ताल पर नचानेवाले वेताल, भूतनाथ, इत्यादि की जानकारी इस लेख में दी है ।
१. रुद्र
अ. व्युत्पत्ति एवं अर्थ
१.रोदयति इति रुद्र ।
अर्थ : जो रुलाता है, वह रुद्र है ।
२. ‘रु अर्थात रोना एवं द्रु अर्थात भागना । रुद्र अर्थात रोनेवाला, रुलानेवाला; देवतादर्शन के लिए बिलखनेवाला । जो मुिक्त हेतु क्रंदन करता है, वह रुद्र ।
३. रुतं राति इति रुद्रः ।
अर्थ : रुतं – दुःख एवं राति – नाश करता है । जो दुःख का नाश करता है, वह है रुद्र । दुःख का अर्थ है अविद्या अथवा संसार । रुद्र – अविद्या से निवृत्त करनेवाला ।
४. रुत् अर्थात सत्य अर्थात शब्दरूपी उपनिषद् । रुद्र वह है जिसने रुत् को समझा अथवा प्रतिपादित किया ।
५. रुत् अर्थात शब्दरूप वाणी अथवा तत्प्रतिपाद्य आत्मविद्या । जो अपने उपासकों को यह वाणी अथवा विद्या देते हैं, वे हैं रुद्र ।’
६. रुद्र का एक अन्य नाम है ‘वृषभ’ । वृषभ शब्द ‘वृष्’ धातु से बना है । उसके दो अर्थ हैं – वृष्टि करनेवाला एवं अत्यधिक प्रजननशक्तियुक्त । रुद्र वृष्टि करते हैं, जिससे वनस्पति जगत में बहार आती है, ऐसी स्पष्ट धारणा ऋग्वेद के रुद्रसंबंधी मंत्र में व्यक्त की गई है । आजकल ‘वृषभ’ शब्द अधिकतर ‘बैल’ के अर्थ से प्रयुक्त होता है । उसका कारण है बैल में विद्यमान विशेष प्रजननशक्ति ।’
आ. रुद्रगण
‘ये रुद्र के पार्षद (सेवक) हैं, अर्थात सदैव रुद्र के समीप रहकर सेवा करते हैं । ऐसा बताया जाता है कि इन गणों की संख्या एक करोड है । भूतनाथ, वेताल, उच्छुष्म, प्रेतपूतन, कुभांड इत्यादि गण रुद्रद्वारा उत्पन्न किए गए हैं । रुद्रगण रुद्रसमान ही वेष धारण करते हैं । वे स्वर्ग में निवास करते हैं, पापियों का नाश करते हैं, धार्मिकों का पालन करते हैं, पाशुपतव्रत धारण करते हैं, योगियों की विघ्न-बाधाएं दूर करते हैं तथा शिवजी की अविरत सेवा करते हैं ।’
२. कालभैरव
ये आठ भैरवोंमें से एक हैं एवं इनकी उत्पत्ति शिव के क्रोध से हुई है । शिव ने ब्रह्मदेव का पांचवा मस्तक कालभैरवद्वारा तुडवाया एवं उसके उपरांत उन्हें काशीक्षेत्र में रहने की आज्ञा दी । इन्हें ‘काशी का कोतवाल’ भी कहा जाता है । काशी में प्रवेश करने पर सर्वप्रथम इनके दर्शन करने पडते हैं । दर्शन से लौटते समय कालभैरव का काला धागा हाथ पर बांधते हैं ।
३. वीरभद्र
यमधर्म एवं दक्षिणलोक के प्रमुख वीरभद्र भी शिवगण हैं । दक्षिणलोक से प्रत्यक्ष संबंध रखनेवाले वीरभद्र एक ही देवता हैं; इसलिए ये भूतमात्रों के नाथ अर्थात भूतनाथ हैं । वीरभद्र ने वेताल को अपना वाहन बनाया है । प्रचलित कथा के अनुसार, शिव के लिंगरूप की प्रथम पूजा वीरभद्रने की थी ।
४. भैरव (भैरवनाथ)
‘शिवागम में भैरवों के चौंसठ प्रकार बताए गए हैं । भैरवों के आठ वर्ग हैं एवं प्रत्येक वर्ग में आठ भैरव हैं । इन आठ वर्गों के प्रमुख अष्टभैरव के नाम से प्रसिद्ध हैं । इसके साथ ही, कालभैरव, बटुकभैरव भी प्रसिद्ध हैं । तंत्रग्रंथ में चौंसठ भैरवों को चौंसठ योगिनियों का स्वामी मानकर शक्तियों एवं भैरवों के बीच निकटता का संबंध दर्शाया गया है । ऐसी मान्यता है कि, ‘भैरव प्रत्येक शक्तिपीठ का संरक्षण करते हैं ।’ महापीठनिरूपण ग्रंथ के अनुसार ‘जिस शक्तिपूजा में भैरव को वर्जित किया गया हो, वह पूजा निष्फल सिद्ध होती है ।’
अ. उपासना
महाराष्ट्र में आम तौर पर भैरव को ही ग्रामदेवता मानकर पूजा जाता है । उन्हें भैरोबा, बहिरोबा अथवा विरोबा नाम से भी संबोधित करते हैं । प्रायः प्रत्येक गांव में इस देवता का निवासस्थान होता है, जो बांबी (सांप का बिल) अथवा श्मशान जैसी जगहों पर रहते हैं । कभी उनकी मूर्ति होती है अथवा कभी गोल पत्थर होता है । ऐसा कहा जाता है कि ‘रात को जब घोडे पर सवार वे गश्त लगाने निकलते हैं, तो उनके साथ एक काला कुत्ता होता है ।’
भैरव क्षुद्रदेवता हैं, इसलिए साधना के तौर पर भैरव की उपासना नहीं करते ।
आ. अनिष्ट शक्तियों का निवारण करनेवाले
इन उपचारों में ‘कांटे से कांटा निकालना’, इस नियम का उपयोग किया जाता है । इसके अनुसार भैरव के जप से जो शक्ति निर्मित होती है, वह अनिष्ट शक्तियों की पीडा को दूर करती है । जब यह प्रक्रिया होती है, उस समय व्यक्ति को कष्ट का अनुभव हो सकता है । मृत्युपरांत व्यक्ति का मार्गक्रमण दक्षिणमार्ग अथवा क्षेत्र की ओर होता है । भैरव वहां के देवता हैं जबकि नारायण उत्तरमार्ग अर्थात आनंदमार्ग के देवता हैं ।
४. वेताल
यह ‘वैताल’ शब्द से बना है । वैताल अर्थात विकृतियों को अपनी ताल पर नचानेवाला । जहां आहत एवं अनाहत नाद एकत्रित
होते हैं, वहां ‘वै’ नामक स्पंदन उत्पन्न होते हैं जो विकृतियों को सीधी राह पर लाते हैं । ‘वेताल को आग्यावेताल, ज्वालावेताल अथवा प्रलयवेताल भी कहते हैं ।
अ. विशेषताएं
वेताल इत्यादि स्कंदसैनिकों का भूतगणों में समावेश किया जाता है । मत्स्यपुराण में वेताल को ‘लहु एवं मांस का भक्षण करनेवाला’ बताया गया है । शिवजी ने वेताल को पिशाचों का स्वामी बनाया । मांत्रिक, वेताल को ‘वीर’ कहते हैं । वेताल की मां वैताली ने ‘मातृका’ के नाम से भी महत्ता पाई है ।
आ. मूर्तियां
वेताल की मूर्तियां लकडी अथवा पाषाण की होती हैं । ग्रामदेवता के स्वरूप में वेताल गोल पत्थर के आकार का होता है । गोमंतक (गोवा) क्षेत्र में उनकी मूर्तियां लकडी अथवा पाषाण की होती हैं, जिनमें से कुछ मूर्तियां नग्न भी हैं । इनके हाथ में त्रिशूल अथवा डंडा होता है ।
इ. उपासना
गोमंतक में प्रियोळ, आमोणे, सावर्डे इत्यादि ग्रामों के अथवा महाराष्ट्र में पुणे क्षेत्र के अनेक गांवों के ये ग्रामदेवता हैं । पश्चिम महाराष्ट्र में सिंदूर से सने गोल पत्थर के स्वरूप में वे गांव की सीमा पर विश्राम करते हैं । उनके आस-पास सिंदूर मले हुए अन्य गोल पत्थर रखे रहते हैं, जो उनके सैनिक कहलाते हैं । वेताल मंदिर के आस-पास अधिकतर नवग्रहों के मंदिर होते हैं । महाराष्ट्र की महार नामक जाति इनकी उपासक है । इनकी पूजा नग्नावस्था में की जाती है । उन्हें प्रसन्न करने हेतु मुर्गी-बकरियों की बलि दी जाती है । कुछ जगह मिष्ठान्न भी चढाते हैं एवं उत्सव के दौरान उन्हें पुष्पों से सुशोभित पालकी में ले जाते हैं ।’
क्षुद्रदेवताओं को बलि चढाने का उद्देश्य : क्षुद्रदेवताओं को प्रसन्न करने हेतु प्राणियों की बलि चढाते हैं । क्षुद्रदेवता पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित हैं तथा उच्च देवता तेज, वायु एवं आकाश के तत्त्वों से संबंधित हैं । पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित होने के कारण पृथ्वीतत्त्व से बना तमप्रधान प्राणी अर्पित करने पर क्षुद्रदेवता संतुष्ट होते हैं । इसके विपरीत उच्च देवताओं को गंध (चंदन), अक्षत, फूल इत्यादि सात्त्विक वस्तुए अर्पित करने पर वे प्रसन्न होते हैं । इसीलिए उच्च देवताओं को बलि नहीं चढाते ।
क्षुद्रदेवताओं को बलि चढाने का आधारभूत दृष्टिकोण : बलि चढाते समय किए जानेवाले मंत्रोच्चारण से प्राणी को मुक्ति मिलती है तथा जिस पर आए संकट को दूर करने के लिए बलि दी जाती है, उसकी समस्या देवता की कृपा से मिट जाती है । दोनों को लाभ प्राप्त होने हेतु आवश्यक है कि प्राणी का बलिदान स्वेच्छापूर्वक हो । मूक प्राणी स्वेच्छा से बलि चढ रहा है अथवा नहीं, यह उसके आचरण से ज्ञात होता है । यदि वह गर्दन सीधी रख बलिवेदी की ओर जाए, उसे रस्सी से बांधकर ले जाते समय रस्सी पर तनाव न आए, बिना चीखे वह बलिवेदी पर शांति से शस्त्र के आघात की प्रतीक्षा करे, तो वह आत्मबलिदान, आत्मसमर्पण है । ऐसी बलि से ही दोनों को लाभ मिलता है । यदि प्राणी की इच्छा न हो, तो बलि अर्पित करनेवाले को उसे मारने का पाप लग सकता है ।
हिन्दू धर्मविरोधी पशुप्रेमी संगठन एवं ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ (अंनिस) : पशुप्रेमी संगठनों एवं अंनिस (अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति) जैसे बुद्धिवादी संगठन बलि चढाने के अध्यात्मशास्त्रीय आधार अथवा सिद्धांत से अपरिचित रहते हैं । इसके बोध के बिना ही वे हिन्दू धर्म को ‘जीवहत्या का दंड देनेवाला धर्म’ बताते हैं तथा इसे कलंकित करने का प्रयास करते हैं । इस कारण वे बलि की प्रथा रोकने का आवाहन करते हैं । पशुप्रेम का केवल दिखावा करनेवाले ऐसे संगठन केवल हिन्दुओं की बलि प्रथा का ही विरोध करते हैं । इन लोगों को संपूर्ण विश्व में मांसाहार के लिए मारे जानेवाले एवं इस्लाम धर्म में ‘कुर्बानी’ के समय ‘कत्ल’ किए जानेवाले पशुओं पर किंचित भी दया नहीं आती !
६. भूतनाथ
‘यह वेताल के वर्ग के ही एक क्षुद्रदेवता हैं । गोमंतक क्षेत्र में भूतनाथ के मंदिर हैं । लोगों की धारणा है कि वे मध्यरात्रिमें, हाथ में एक डंडा एवं कंधे पर कंबल लेकर, अपने सैनिकोंसहित गश्त लगाते हैं । महाराष्ट्र के सावंतवाडी क्षेत्र के लोगों की मान्यता है कि भूतनाथ पैदल भ्रमण करते हैं, जिससे उनकी चप्पलें घिस जाती हैं । इसलिए प्रतिमाह लोग उन्हें नई चप्पलें अर्पित करते हैं ।
७. नटराज
शिवजी की दो अवस्थाएं मानी जाती हैं । उनमें से एक है समाधि अवस्था एवं दूसरी है तांडव अथवा लास्य नृत्य अवस्था । समाधि अवस्था का अभिप्राय निर्गुण अवस्था से है एवं नृत्यावस्था का सगुण अवस्था से । ‘जब किसी निश्चित घटना अथवा विषय को अभिव्यक्त करने के लिए भाव-भंगिमाओं सहित शरीर के अवयवों से विविध मुद्राएं की जाती हैं, उसे ‘नटन अथवा नाट्य’की संज्ञा दी जाती है तथा ऐसे नटन करनेवाले को नट कहते हैं । एक पारंपारिक धारणा यह है कि नटराज के रूप में शिवजी ने ही नाट्यकला को प्रेरित किया है । लोगों की यह धारणा है कि वे ही आद्य (प्रथम) नट हैं, इसीलिए उन्हें नटराज की उपाधि दी गई । ‘ब्रह्मांड नटराज की नृत्यशाला है । वे नर्तक भी हैं एवं इस नृत्य के साक्षि भी । जब उनका नृत्य आरंभ होता है तो उससे उत्पन्न होनेवाली ध्वनि से संपूर्ण विश्व को गति मिलती है । जब यह नृत्य समाप्त होता है, तो वे चराचर विश्व को अपने अंदर समेटकर अकेले ही आनंद में निमग्न रहते हैं ।’ यही नटराज संकल्पना की भूमिका है । संक्षेप में, ईश्वर के समस्त क्रियाकलापों के – उत्पत्ति एवं लय के प्रतिरूप नटराज हैं । नटराज का नृत्य सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव (माया का आवरण) एवं अनुग्रह (माया से परे जाने के लिए कृपा), इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक माना जाता है ।’
तांडवनृत्य : ‘संगीतरत्नाकर में तांडवनृत्य की उत्पत्ति इस प्रकार दी गई है –
प्रयोगमुद्धतं स्मृत्वा स्वप्रयुक्तं ततो हरः ।
तण्डुना स्वगणाग्रण्या भरताय न्यदीदिशत् ।।
लास्यमस्याग्रतः प्रीत्या पार्वत्या समदीदिशत् ।
बुद्ध्वाऽथ ताण्डवं तण्डोः मत्र्येभ्यो मुनयोऽवदन् ।।
– संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ५, ६
अर्थ : तदुपरांत शिवजी को अपने पूर्व किए गए ‘उद्धत’ नृत्य का स्मरण हुआ । उन्होंने अपने गणों में तंडू नामक प्रमुख गण के माध्यम से वह नृत्य भरतमुनि को दिखाया । उसी प्रकार लास्य नृत्य भी पार्वती के माध्यम से बडे चाव से भरतमुनि को दिखलाया ।
लास्य स्त्रीनृत्य है, जिसमें हाथ मुक्त रहते हैं । जो तंडूने कर दिखाया वह तांडव नृत्य है, भरतादि मुनियोंने यह जाना एवं उन्होंने यह नृत्य मनुष्यों को सिखाया ।
जिस नृत्य को करते समय शरीर की प्रत्येक पेशी का नाद शिवकारक होता है, उसे तांडवनृत्य कहते हैं । यह पुरुष-नृत्य मुद्रांकित होता है, उदा. ज्ञानमुद्रा – अंगूठे एवं तर्जनी के सिरों को एक-दूसरे से जोडना । इससे तर्जनी के मूल पर स्थित गुरु का उभार एवं अंगूठे के मूल पर स्थित शुक्र का उभार, ये दोनों जुड जाते हैं । अर्थात पुरुष एवं स्त्री जुड जाते हैं ।
इस नृत्य के ७ प्रकार हैं – १. आनंदतांडव, २. संध्यातांडव (प्रदोषनृत्य), ३. कालिकातांडव, ४. त्रिपुरतांडव, ५. गौरीतांडव, ६. संहारतांडव, ७. उमातांडव ।
संदर्भ : भगवान शिव (भाग १) – शिवजीसंबंधी अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन