१. स्नान का महत्त्व
‘स्नान करने से जीव के देह के सर्व ओर आए कष्टदायक शक्ति के आवरण एवं देह के रज-तम का उच्चाटन होता है तथा देह रोम-रोम में चैतन्य ग्रहण करने योग्य बनती है । मुखशुद्धि एवं शौचक्रिया के कारण भी जीव के देह से बाहर न निकलनेवाले कष्टदायक घटकों का स्नान के माध्यम से विघटन होता है ।’
२. स्नान करने के लाभ
अ. ‘स्नान के कारण जीव की देह के रज-तम कणों की मात्रा न्यून होती है तथा जीव वायुमंडल में प्रक्षेपित सत्त्वतरंगें सहजता से ग्रहण कर सकता है ।
आ. जीव के बाह्यमंडल में स्थिरता निर्माण करने में स्नान सहायक है । अतएव स्नान के उपरांत देवतापूजन करते समय वृत्ति अंतर्मुख कर जीव वायुमंडल से शीघ्र एकरूप हो सकता है तथा वायुमंडल की पोषकता के अनुरूप देवता की तरंगें ग्रहण कर सकता है ।’
३. प्रातःस्नान के लाभ
अ. प्रातःस्नान से तेजोबल एवं आयु में वृद्धि होती है तथा दुःस्वप्नों का नाश होता है ।
आ. ‘सूर्योदय पूर्व मंगलस्नान करने से जीव अंतर्-बाह्य शुद्ध होता है तथा काल की सात्त्विक तरंगें ग्रहण कर सकता है ।
४. स्नान के प्रकार
इसे समझने से पूर्व काल के विषय में आगे दिया गया ज्ञान समझना आवश्यक है । सूर्योदय पूर्व २ घटिका (४८ मिनट) ‘उषाकाल’ होता है । उषाकाल का अर्थ है अंधकार समाप्त होकर प्रकाश दिखाई देनेका काल । इसी को, ‘पौ फटना’ कहते हैं । उषाकाल पूर्व ३ घटिका (७२ मिनट अर्थात १ घंटा १२ मिनट) ‘ब्राह्ममुहूर्त काल’ होता है । सूर्योदय के समय के अनुरूप उषाकाल एवं ब्राह्ममुहूर्त काल के समय में भी परिवर्तन होता है ।
अ. ब्राह्ममुहूर्त पर स्नान करना
‘ब्राह्ममुहूर्त पर स्नान करने का अर्थ है, जीव द्वारा देव परंपरा का पालन करना । ब्राह्ममुहूर्त पर किया गया स्नान ‘देवपरंपरा’ की श्रेणी में आता है । देवपरंपरा के कारण जीव को आगे दिए लाभ होते हैं ।
‘ब्राह्ममुहूर्त के समय जीव की मनोदेह स्थिर-अवस्था में रहती है । अतएव इस कालावधि में स्नान करने से जीव पर शुद्धता, पवित्रता एवं निर्मलता के संस्कार काल के आधार पर होते हैं ।
ब्राह्ममुहूर्त के समय देवताओं की तरंगें अन्य काल की अपेक्षा अनेक गुना अधिक कार्यरत होती हैं । स्नान करने जैसे प्रत्यक्ष आवाहनदर्शक कृत्य के माध्यम से देवताओं का तत्त्व जीव की ओर आकृष्ट होता है । इसी के साथ इस कालावधि में जीव पर स्नान के माध्यम से हुए स्थूल एवं सूक्ष्मस्वरूप के संस्कारों के कारण जीव ब्राह्ममुहूर्त पर प्रक्षेपित ईश्वरीय चैतन्य एवं देवताओं की तरंगें ग्रहण करने में समर्थ बनता है ।
शुद्धता, पवित्रता तथा निर्मलता, इन तीन संस्कारों के माध्यम से संकल्प, इच्छा तथा क्रिया, ईश्वर की इन तीन प्रकार की शक्तियां एवं इन तीन शक्तियों से संबंधित ज्ञानशक्ति भी जीव ग्रहण कर पाता है तथा ईश्वर के पूर्णात्मक चैतन्य से एकरूप हो पाता है ।’
आ. अभ्यंगस्नान
‘अभ्यंगस्नान का अर्थ है प्रातः उठकर सिर और शरीर को तेल लगाकर गुनगुने जल से स्नान करना । पिंड के अभ्युदय हेतु किया गया स्नान, अर्थात अभ्यंगस्नान ।
अभ्यंगस्नान में तेल लगाने का महत्त्व : अभ्यंग से, अर्थात स्नानपूर्व तेल लगाने से पिंड की चेतना के प्रवाह को अभंगत्व, अर्थात अखंडत्व प्राप्त होता है । स्नान पूर्व देह को तेल लगाने से कोशिकाएं, स्नायु एवं देह की रिक्तियां जागृतावस्था में आकर पंचप्राणों को सक्रिय करती हैं । पंचप्राणों की जागृति के कारण देह से उत्सर्जन योग्य वायु डकार, उबासी इत्यादिके द्वारा बाहर निकलती है । इससे देह की कोशिकाएं, स्नायु एवं अंतर्गत रिक्तियां चैतन्य ग्रहण करने में संवेदनशील बनती हैं । यह उत्सर्जित वायु अथवा देह में घनीभूत उष्ण उत्सर्जन योग्य ऊर्जा कभी-कभी तरंगों के रूप में आंखों, नाक, कान एवं त्वचा के रंध्रों से बाहर निकलती है । इसलिए तेल लगाने के उपरांत कभी-कभी नेत्र एवं मुख लाल हो जाता है ।’
अभ्यंगस्नान के लाभ
१. ‘तेल से त्वचा पर घर्षणात्मक मर्दन से देह की सूर्य नाडी जागृत होती है तथा पिंड की चेतना को भी सतेज बनाती है । यह सतेजता देह की रज-तमात्मक तरंगों का विघटन करती है । यह एक प्रकार से शुद्धीकरण की ही प्रक्रिया है । चैतन्य के स्तर पर हुई शुद्धीकरण प्रक्रिया से पिंड की चेतना का प्रवाह अखंडित रहता है तथा जीव का प्रत्येक कर्म साधनास्वरूप हो जाता है ।
२. यह कर्म जीव के देह में सत्त्वगुण की वृद्धि करने में सहायक होता है तथा जीव का अभ्युदय साध्य होता है । अभ्युदय अर्थात उत्कर्ष । सत्त्वगुण वृद्धि की ओर जीव की नित्य यात्रा ही उसका अभ्युदय है । इसलिए अभ्यंगस्नान का अत्यधिक महत्त्व है ।
३. अभ्यंगस्नान से निर्मित चैतन्य के स्तर पर हुआ प्रत्येक कृत्य, जीव द्वारा साधनास्वरूप होने के कारण इस कृत्य से वायुमंडल की भी शुद्धि होती है ।’
इ . पुण्यदायी एवं पापक्षय स्नान
गुरुवार को अश्वत्थ (पीपल) वृक्षतले तथा अमावस्या को जलाशय (नदी) में स्नान करने से प्रयागस्नान का पुण्य प्राप्त होता है तथा समस्त पापों का नाश होता है । पुष्यनक्षत्र, जन्मनक्षत्र एवं वैधृती योग इत्यादि समय पर नदी में स्नान करने से सर्व पापों का क्षय होता है ।
ई. काम्यस्नान
‘धनप्राप्ति, रोगपरिहार इत्यादि काम्यकर्मनिमित्त, अर्थात किसी कामना से धर्मकर्मांतर्गत किया गया स्नान काम्यस्नान है ।’
५. स्नान कहां करें ?
नदी एवं जलाशय में किया स्नान उत्तम, कुएं पर किया गया स्नान मध्यम और घर में किया गया स्नान निकृष्ट है ।
अ. नदी एवं जलाशय में किया गया स्नान ‘उत्तम’ मानने का कारण
‘नदी एवं जलाशय का जल प्रवाही होने के कारण इस जल में प्रवाहरूपी नाद से सुप्त स्तर पर तेजदायी ऊर्जा निर्माण कर उसे घनीभूत करने की क्षमता होती है । इस स्थान पर स्नान करने से जल के तेजदायी स्पर्श से देह की चेतना जागृत होकर वह देह की रिक्तता में संचित एवं घनीभूत रज-तमात्मक तरंगों को जागृत कर बाहर की दिशा में ढकेलती है । इस प्रकार यह रज-तमात्मक ऊर्जा जल में उत्सर्जित होकर उसके तेज में ही विघटित हो जाती है । इसलिए यह देह सूक्ष्म-स्तरपर भी शुद्ध एवं पवित्र बनती है और यह स्नान ‘उत्तम’ समझा जाता है । जल जितना प्रवाही, उतना ही वह तेजतत्त्व के स्तर पर रज-तमात्मकरूपी कणों को विघटित करता है ।
आ. कुएं में किया गया स्नान ‘मध्यम’ माने जाने का कारण
कुएं के पानी में अपेक्षाकृत प्रवाह न्यून होने के कारण, तेज के स्तर पर ऊर्जा निर्माण करने की एवं उसे घनीभूतता प्रदान करने की जल की क्षमता भी अल्प होती है । प्रवाह के अभाव के कारण जल में एक प्रकार का जडत्व निर्माण होता है । यह जडत्व अनेक रज-तमात्मक जीवजंतुओं को तथा रज-तमात्मकरूपी अनिष्ट शक्तियों को अपने स्थान पर निवास हेतु आमंत्रित करता है । जल का प्रवाह जितना अल्प, उतनी ही कष्टदायक तरंगों को स्वयं में घनीभूत करने की उसकी क्षमता बढती है । जल जीव को शुद्धता के स्तर पर अर्थात रज-तमात्मक तरंगों के विघटन के स्तर पर, अल्प मात्रा में लाभदायक होता है ।
इ. घर में किए गए स्नान को ‘निकृष्ट’ मानने का कारण
घर का वातावरण संकीर्ण, अर्थात बाह्य वायुमंडल की व्यापकता से अल्प संबंधित होता है । इसलिए वास्तु में निवासी जीवों के स्वभाव के अनुसार विशिष्ट वास्तु में विशिष्ट तरंगों का भ्रमण भी बढ जाता है । ये तरंगें कालांतर से उसी स्थान पर घनीभूत होती हैं । कलियुग के अधिकांश जीव रज-तमात्मक ही होते हैं । इसलिए इन तरंगों की सहायता से उस स्थान पर अनेक पूर्वजरूपी अतृप्त लिंगदेह रहती हैं । ऐसे कष्टदायक, आघातदायी एवं घर्षणात्मक स्पंदनों से ग्रस्त संकीर्ण वास्तु में रखे गए जल के पात्र के सर्व ओर उससे उत्पन्न वायुमंडल के प्रवाही आपतत्त्वात्मक कोष की ओर वास्तु की कष्टदायक तरंगों का गमन आरंभ होता है । ये तरंगें पात्र के जल में संक्रमित होती हैं तथा स्नान के माध्यम से जीव की देह में संक्रमित होती हैं । इसलिए इस स्नान से देह अशुद्ध ही बनता है एवं अनिष्ट शक्तियों के कष्ट का कारण बनता है । इसलिए घर की मर्यादित कक्षा में किया गया स्नान निकृष्ट स्तर का माना जाता है । इस प्रक्रिया से अनिष्ट शक्तियों की पीडा की आशंका अधिक होती है। इसलिए यह प्रक्रिया निकृष्ट समझी जाती है ।’
ई. जलस्रोत के निकट स्नान करने से जीव द्वारा पंचतत्त्व की सहायता से देह शुद्ध कर पाना
‘जहां तक संभव हो, नदी, तालाब, कुएं इत्यादि जलस्रोत के निकट स्नान करें । प्राकृतिक वातावरण में स्नान द्वारा जीव पंचतत्त्व की सहायता से देह की शुद्धि करता है । इसलिए जीव की देह में रज-तम कणों का विघटन अधिक होने लगता है । जीव की प्राणदेह, मनोदेह, कारणदेह एवं महाकारणदेह इत्यादि की शुद्धि होकर सर्व देह सात्त्विकता ग्रहण करने हेतु तत्पर होती हैं तथा जीव कुछ मात्रा में निर्गुण स्तर की ऊर्जा एवं उच्च देवता का तत्त्व ग्रहण कर सकता है । जीव के बाह्य-वायुमंडल का संपर्क ब्रह्मांड वायुमंडल से भी होता है । परिणामस्वरूप जीव, ब्रह्मांड में स्थित तत्त्व अल्प मात्रा में पिंड के माध्यम से ग्रहण कर उसे प्रक्षेपित कर सकता है ।’
६. सवेरे स्नान क्यों करें?
ब्राह्ममुहूर्त पर अथवा प्रातःकाल स्नान करने का महत्त्व पहले ही समझाया गया है । वह स्नान करने का आदर्श समय है । वर्तमानकाल में उस समय स्नान करना अधिकांश लोगों के लिए संभव नहीं होता । ऐसे में जहां तक संभव हो, सूर्योदय होने पर शीघ्रातिशीघ स्नान करें ।
अ. दोपहर को स्नान करने की अपेक्षा सवेरे ही स्नान करें ।
अध्यात्मशास्त्र – सवेरे स्नान करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इस समय वायुमंडल सात्त्विक तरंगों से पूरित होता है । जल के माध्यम से देह को स्पर्श करनेवाली आपतत्त्व की तरंगों की सहायता से बाह्य-वायुमंडल की तरंगें ग्रहण करने में देह अतिसंवेदनशील बनती है । उसके द्वारा बाह्य-वायुमंडल की सात्त्विक तरंगें ग्रहण की जाती हैं । अब कलियुग में सबकुछ विपरीत दिशा में हो रहा है । पसीना आने के कारण स्त्रियां घर के काम करने के उपरांत स्नान करती हैं और बाल संवारती हैं । दोपहर के समय वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगों का संचार बढ जाता है । स्नान द्वारा देह बाह्य-वायुमंडल की तरंगें ग्रहण करने में संवेदनशील बनती है, इसलिए दोपहर को स्नान करने से देह रज-तमात्मक तरंगें ही ग्रहण करती है । देह की बाह्यशुद्धि तो साध्य होती है; अपितु अंतःशुद्धि नहीं होती ।’
आ. रात को स्नान करने की अपेक्षा सवेरे स्नान करें ।
अध्यात्मशास्त्र – ‘सवेरे स्नान करने पर स्थूल एवं सूक्ष्म देहों की सात्त्विकता अधिक मात्रा में बढकर वह दीर्घकाल स्थिर रहती है । रात्रि का समय तमोगुणी होने के कारण उस समय स्नान करने से स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों देहों की सात्त्विकता विशेष नहीं बढती है तथा बढने पर अल्पकाल स्थिर रहती है । इस कारण उस व्यक्ति को स्नान का लाभ बहुत अल्प मात्रा में होता है ।’
७. स्नानपूर्व करने योग्य प्रार्थना तथा स्नान करते समय उपयुक्त श्लोकपाठ
जलदेवतासे प्रार्थना : ‘हे जलदेवता, आपके पवित्र जलसे मेरे स्थूलदेहके चारों ओर निर्माण हुआ रज-तमका काला आवरण नष्ट होने दें । बाह्यशुद्धिके समान ही मेरा अंतर्मन भी स्वच्छ तथा निर्मल बनने दें ।’
नामजप अथवा श्लोकपाठ करते हुए स्नान करनेका महत्त्व : ‘नामजप अथवा श्लोकपाठ करते हुए स्नान करनेसे जलका अंगभूत चैतन्य जागृत होता है । देहसे उसका स्पर्श होकर चैतन्यका संक्रमण रोम-रोममें होता है । इससे देहको देवत्व प्राप्त होता है तथा दिनभरकी कृतियां चैतन्यके स्तरपर करने हेतु देह सक्षम बनता है ।’ – सूक्ष्म-जगतके एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ३०.१०.२००७, दोपहर १.२३)
७ अ. स्नान करते समय उच्चारित किए जानेवाले श्लोक
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।
अर्थ : हे गंगे, यमुने, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदे, सिंधु तथा कावेरी, आप सब नदियां मेरे स्नानके जलमें आएं ।
गंगा सिंधु सरस्वति च यमुना गोदावरि नर्मदा ।
कावेरि शरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका ।।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी ।
पूर्णाःपूर्णजलैःसमुद्रसहिताःकुर्वन्तु मे मंगलम् ।।
अर्थ : गंगा, सिंधु, सरस्वती, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, शरयू, महेन्द्रतनया, चंबल, वेदिका, क्षिप्रा, वेत्रवती (मालवाकी बेतवा नदी), प्रख्यात महासुरनदी, जया तथा गण्डकी नदियां, पवित्र एवं परिपूर्ण होकर समुद्रसहित मेरा कल्याण करें ।
संदर्भ पुस्तक : सनातन का सात्विक ग्रन्थ ‘आदर्श दिनचर्या भाग २ – स्नान एवं स्नानोत्तर आचारों का अध्यात्मशास्त्र‘