कलियुग में मनुष्य देवधर्म से कोसों दूर चला गया है । इसलिए टोपी अथवा फेंटा जैसे बाह्य माध्यमों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी, जिससे उसमें अपने कर्म के प्रति भाव तथा गंभीरता और आगे इसी माध्यम से ईश्वरप्राप्ति की रुचि उत्पन्न हो । इसीसे फेंटा अथवा टोपी धारण करने की पद्धति निर्मित हुई ।
इस लेख में पहनने के लिए उपयुक्त वस्त्रों का चुनाव किस प्रकार करें, इस विषय में अधिकतर पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर प्रस्तुत किए गए हैं ।
प्रस्तुत लेख में वस्त्र पहनने के सम्बन्ध में व्यवहारिक सुझाव दिए गए हैं; जैसे - वस्त्र आरामदायक हों तथा पूरे शरीर को भली भांति ढकनेवाले हों । इस लेख में यह भी बताया गया है कि नए वस्त्रों का शुभारंभ कैसे करें, वस्त्रों की शुद्धि कैसे करें इत्यादि ।
प्रस्तुत लेख में वस्त्रों के रंगों का चुनाव किस प्रकार करें कि रंगों का संयोजन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से योग्य हो, ऋतु एवं व्यक्ति के स्वभाव के अनुकूल हो तथा विशिष्ट देवता के तत्व को आकृष्ट करता हो, यह विस्तार से बताया गया है ।
सामान्य मनुष्य को चैतन्य ग्रहण करने के उद्देश्य से सात्त्विक वस्त्र ही पहनने चाहिए । प्रस्तुत लेख में वस्त्रों के प्रकार तथा प्राकृतिक धागों से बने वस्त्रों का कृत्रिम धागे से बने वस्त्रों की तुलना में क्या महत्त्व है, इसका वर्णन किया गया है ।
वस्त्रों में गांठ बांध कर पहनने की प्राचीन योग्य पद्धति, वस्त्रों पर न्यूनतम सिलाई क्यों होनी चाहिए ?, सिलाई-यंत्र से वस्त्रों की सिलाई करने से अथवा बनाने से होनेवाली हानि एवं उस पर उपाय इस की जानकारी इस लेख में दी है ।
हिन्दू धर्म में स्त्री एवं पुरुषद्वारा धारण किए जानेवाले वस्त्रों की रचना देवताओं ने की है । इस लेख में हम वस्त्रधारण क्यों करते हैं, सात्त्विक वस्त्र पहनने का क्या महत्त्व है और इसके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से क्या लाभ हैं ।